अंडमान-निकोबार में जापानी निवेश के मायने
९ अप्रैल २०२१जापान पिछले कई दशकों से अपनी ऑफिशियल डेवेलपमेंट असिस्टेंस (ओडीए) नीति के तहत जरूरतमंद और मित्र देशों को अनुदान देता रहा है. पिछले दो दशकों में भारत पर उसने खासा ध्यान दिया है. 2014 में एक्ट ईस्ट नीति के लॉन्च होने से आए परिवर्तनों और भारत जापान के संबंधों में आयी निकटता से दोनों देशों के बीच आर्थिक और निवेश संबंधी रिश्ते भी बेहतर हुए हैं. मिसाल के तौर पर 2018 में ही भारत सबसे ज्यादा जापानी ओडीए निवेश प्राप्त करने वाला देश बन गया था. पिछले एक दशक में भारत को आवंटित ओडीए अनुदान लगातार बढ़ता ही गया है. जापानी अनुदान और निवेश का दौर अभी भी बरकरार है जो भारत के इंफ्रास्ट्रक्चर और कनेक्टिविटी जैसे सेक्टरों के लिए बहुत बड़ी सहूलियतें लेकर आ रहा है. मेट्रो रेल परियोजनाएं हों या दिल्ली-मुंबई कारिडोर या फिर उत्तरपूर्व के प्रदेशों में निवेश, जापान ने तत्परता से भारत की क्षमता बढ़ाने संबंधी परियोजनाओं में निवेश किया है.
यह दोनों देशों के बीच बढ़ती सामरिक समझदारी का ही नतीजा है कि जो देश पिछली सदी के अंत तक शायद एक दूसरे को ढंग से दोस्तों की फेरहिस्त में गिनते तक नहीं थे वह आज एक दूसरे के सबसे बड़े सामरिक साझेदार बन गए हैं. इंडो-पेसिफिक क्षेत्रीय व्यवस्था को सुदृढ़ करने की बात हो या अमेरिका, जापान, और आस्ट्रेलिया के साथ चार-देशीय क्वाड की सामरिक संरचना हो, भारत और जापान एक दूसरे के स्वाभाविक साझेदार बन चुके हैं. यही नहीं चीन की आर्थिक दादागीरी के खिलाफ सप्लाई चेन रेजीलियेंस इनीशिएटिव और पिछड़े अफ्रीकी और एशियाई देशों में इंफ्रास्ट्रक्चर के विकास के लिए बने एशिया-अफ्रीका ग्रोथ कॉरिडोर, सभी भारत और जापान की दोस्ती की मजबूत बुनियाद पर खड़े हैं.
सामरिक महत्व का फैसला
इसी सिलसिले में नई कड़ी है जापान का अंडमान–निकोबार द्वीप समूह में अनुदान का निर्णय. जापान ने इन द्वीपों में बिजली व्यवस्था को सुदृढ़ बनाने के लिए 265 करोड़ रुपये के अनुदान का निर्णय लिया है. इन अनुदानों के तहत दक्षिण अंडमान में सौर ऊर्जा के बेहतर इस्तेमाल और बिजली सिस्टम को स्टेबिलाइज करने की योजना है जिसके तहत 15 मेगावाट की बैटरियों की खरीद भी होगी. जापान का यह फैसला इसलिए भी दिलचस्प है कि उसने द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान इस द्वीप पर कब्जा कर लिया था. इस कब्जे की कहानी उसके सैनिकों की बर्बरता के साथ जुड़ी हुई है. फिर भी जापान की मौजूदा मदद तीन मोर्चों पर विशेष रूप से महत्वपूर्ण है.
पहला तो यह कि जापान के लिए यह पहला मौका है जब वह अंडमान–निकोबार में किसी प्रोजेक्ट को ऋण देगा. 2004 सुनामी के दौरान आपातकालीन मानवीय सहायता के अलावा जापान ने ऐसी कोई सहायता या अनुदान पहले नहीं दिया है. जापान के नजरिए से देखें तो अंडमान-निकोबार द्वीप समूह इंडो-पैसिफिक क्षेत्र का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है, जिसके अच्छी तरह विकास से सिर्फ भारत ही नहीं बल्कि उसके सभी मित्र देशों, खास तौर पर क्वाड के साथियों अमेरिका, जापान, आस्ट्रेलिया और पड़ोसी मित्रों को अच्छी मदद हासिल हो सकती है. चाहे जहाजों की डॉकिंग हो या हिंद महासागर में अचानक किसी मदद की जरूरत, अंडमान-निकोबार बहुत काम आ सकता है. जापान को इस बात का अच्छी तरह अंदाजा है कि मलक्का स्ट्रेट से निकला हर वो जहाज जो हिंद महासागर की ओर जाएगा, उसे अंडमान-निकोबार के नजदीक से होकर गुजरना ही पड़ेगा. यहां से गुजरने वाले चीन के हर जहाज पर नजर रखी जा सकेगी.
दूसरा महत्वपूर्ण पहलू इसी बात से जुड़ा है. दिलचस्प और शायद हैरानी की बात है कि यह भी पहली बार ही हुआ है कि भारत ने किसी विदेशी निवेश की इजाजत इन द्वीपसमूहों के लिए दी हो. ऐसा नहीं है कि भारतीय नीतिनिर्धारकों को इस बात का अंदाजा नहीं था. बात यह है कि भारत ने इस अवसर का पूरी तरह फायदा उठाना अभी शुरू ही किया है. इस कड़ी में पिछला बड़ा कदम प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 9 अगस्त 2020 को लिया था जब उन्होंने देश की पहली सबमरीन ऑप्टिकल फाइबर केबल का ऑनलाइन उद्घाटन किया. भारतीय वायुसेना का हवाई सर्वेलांस सिस्टम जिसे बाज के नाम से जाना जाता है, पहले ही स्थापित किया जा चुका है. सैन्य तैयारी के स्तर पर भी भारतीय सेना यहां मौजूद है. 21 से 25 जनवरी 2021 के बीच सम्पन्न हुआ ट्राई-सर्विस एंफीबियस युद्धाभ्यास एमफेक्स-21 इसी का एक प्रमाण था. जापान भारत सहयोग से यह बात और स्पष्ट हो चली है कि अंडमान-निकोबार भारत की कमजोर नब्ज नहीं उसका बहुत मजबूत फ़्रंटियर है और उसे और मजबूत बनाने पर काम हो रहा है.
पर्यावरण संरक्षण पर भी नजर
तीसरा बड़ा पहलू है जलवायु परिवर्तन और पर्यावरण संरक्षण को लेकर भारत की प्रतिबद्धता. अमेरिकी सरकार के जलवायु मामलों के प्रतिनिधि जॉन केरी की हाल की भारत यात्रा के दौरान भी प्रधानमंत्री ने भारत सरकार की वचनबद्धता दोहराई. भारत के जलवायु परिवर्तन और पर्यावरण संरक्षण के संदर्भ में किए गए वादों के यह अनुकूल है क्योंकि इस परियोजना के बाद अंडमान-निकोबार द्वीप समूह डीजल पर निर्भरता से निकल कर सौर ऊर्जा की ओर अग्रसर होगा. इससे एक तो डीजल पर होने वाला खर्च घटेगा और दूसरे उससे होने वाला कार्बन उत्सर्जन भी कम होगा. रिपोर्टों के अनुसार इस प्रोजेक्ट की बदौलत नई बैटरियों की मदद से 2026 तक 30 मेगावाट बिजली उत्पादन होगा. माना जाता है कि इस प्रोजेक्ट की मदद से कार्बन डाई-आक्साइड उत्सर्जन में प्रति वर्ष 2600 टन की कमी आएगी. यहां यह भी ध्यान रखने योग्य है कि इस तरह के जलवायु परिवर्तन से निपटने में भारत जैसे देश के लिए आंकड़ों के मामले में यह कोई बहुत बड़ा कदम नहीं है लेकिन जलवायु परिवर्तन और प्रदूषण से निपटने में एक एक कदम महत्वपूर्ण है.
अंडमान-निकोबार द्वीपसमूह भारत की दक्षिणतम सीमा पर स्थित है. यह भारत को न सिर्फ हिंद महासागर और इंडो-पैसिफिक से जोड़ता है बल्कि दक्षिणपूर्व एशिया से भी भारत का सीधा संपर्क भी है. रणनीतिक तौर पर अंडमान-निकोबार भारत को इंडोनेशिया से जोड़ता हैं. यदि अंडमान-निकोबार के नजरिए से भारत के पड़ोसियों को देखा जाय तो श्रीलंका और बांग्लादेश के अलावा इंडोनेशिया, थाईलैंड और म्यांमार भारत के सबसे नजदीक के पड़ोसियों में आते हैं. यह तीनों ही देश भारत की एक्ट ईस्ट नीति के अंतर्गत भी आते हैं. और इस लिहाज से अंडमान-निकोबार द्वीपसमूह भारत की एक्ट ईस्ट नीति के लिए दक्षिणपूर्व एशिया के द्वार के तौर पर काम कर सकता है, खास तौर पर नौसैनिक और समुद्री संपर्क के मामले में.
सामरिक तौर पर भी अंडमान-निकोबार महत्वपूर्ण स्थान रखता है और इसी कारण भारतीय सेना की पहली और अकेली ट्राई-सर्विस कमांड थिएटर भी पोर्ट ब्लेयर में स्थित है. 2001 में बनी इस कमांड का मूल उद्देश्य दक्षिणपूर्व एशिया और हिंद महासागर में भारतीय आर्थिक और सामरिक हितों की रक्षा करना था. इतने महत्वपूर्ण समुद्री चोक पाइंट पर स्थित होने के कारण इस द्वीप समूह की महत्ता बहुत बढ़ जाती है. आज जब भारत इंडो-पैसिफिक क्षेत्र की बड़ी समुद्री ताकतों के साथ सैन्य सहयोग बढ़ा रहा है तब इसकी उपयोगिता पहले से कहीं ज्यादा उभर कर सामने आ रही है. चीन के साथ बढ़ते विवादों और अमेरिका और जापान जैसी समुद्री शक्तियों के साथ बढ़ते दोस्ताना संबंधों के बीच अंडमान-निकोबार की सामरिक महत्ता को अभी और बढ़ना है. लेकिन इस सबसे पहले भारत को अंडमान-निकोबार को नए अवसरों के लिए तैयार करना होगा. जापान के साथ सहयोग इस दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम है.
(राहुल मिश्र मलाया विश्वविद्यालय के एशिया-यूरोप संस्थान में अंतरराष्ट्रीय राजनीति के वरिष्ठ प्राध्यापक हैं)