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अंधी आस्था और नदियों का बचाव

१४ मई २०१३

दुनिया की ज्यादातर बस्तियां नदियों के किनारे बसी हैं. नदियों ने लोगों को जिंदगी दी है लेकिन लोग बदले में उन्हें कूड़ा कचरा और गंदगी दे रहे हैं. अगर थोड़ा सा प्रयास किया जाए, तो नदियों को बचाया जा सकता है.

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तस्वीर: Getty Images/AFP

दो साल पहले रिलायंस कंपनी में ऊंचे ओहदे पर काम कर रही अनीता कल्सी अपने साथी मनोज पाठक के साथ दिल्ली में यमुना पुल से गुजर रहे थे. तभी किसी मंदिर में चढ़ाए गए फूलों के कचरे से लदा ट्रक उनके पास से गुजरा और दोनों पर थोड़ा सा कचरा गिराता हुआ आगे बढ़ गया. इनकी आंखों के सामने आस्था के उस कचरे को नदी में उंडेल दिया गया. इस घटना ने दोनों को झकझोर कर रख दिया.

इन्हें नदी के दर्द का अहसास भी हुआ और इसके लिए कुछ कर गुजरने के लिए प्रेरणा भी मिली. उसी दिन दोनों ने तय किया कि न सिर्फ यमुना बल्कि पूरे शहर को साफ करने का अभियान ही अब इनका मकसद होगा. दोनों ने नौकरी छोड़ दी और नो कूड़ा नाम की संस्था बना डाली. 2011 से इन दोनों ने दिल्ली के सभी धार्मिक स्थलों, विवाह घरों, होटलों और रेस्तरां से निकलने वाले फूल और दूसरे कचरे के आंकड़े जुटाए. साल भर की मेहनत से जो चौंकाने वाले नतीजे निकले, उसमें पता चला कि पूरे शहर से हर दिन 20,000 किलोग्राम फूल धार्मिक स्थलों से निकलते हैं और इनका 80 फीसदी हिस्सा यमुना के आगोश में समा जाता है.

Indien Ganges Kumbh Mela
तस्वीर: Reuters

जर्मनी का साथ

संयोगवश उसी समय यमुना और यूरोप की एल्बे नदी को प्रदूषण मुक्त करने के लिए भारत और जर्मनी के दो कलाप्रेमी समाजसेवियों ने साझा पहल शुरू की. एल्बे का बड़ा हिस्सा जर्मनी से होकर गुजरता है. कला के जरिए शुरू हुई इस अनूठी पहल को दिल्ली में यमुना और जर्मनी के हैम्बर्ग शहर में एल्बे नदी के तट पर एक साथ शुरू किया गया.

इससे प्रेरित होकर कल्सी और पाठक ने अपने अध्ययन के दायरे को बढ़ाते हुए पार्कों से निकलने वाले कचरे का भी सर्वे किया. पता चला कि दिल्ली के 15,000 से अधिक छोटे बड़े पार्कों, आवासीय स्थलों और शहर के अन्य भागों से हर दिन 35 से 40 हजार किलो तक पत्ते और दूसरे तरह का ऑर्गेनिक कचरा निकलता है. इसे या तो जला दिया जाता है या नदी के हवाले कर दिया जाता है. अध्ययन से साफ हो गया कि यमुना की गंदगी के लिए सरकार को कोसने वाले लोग गलत हैं. हकीकत यह है कि नदी को गंदा करने में आम लोगों का ज्यादा योगदान है.

समस्या की गंभीरता को भांपते हुए इंजीनियर मनोज पाठक ने एक साल की मेहनत के बाद फूल और पत्ती को शोधित कर अगरबत्ती और हवन सामग्री जैसे उत्पाद बनाने वाली मशीन का ईजाद कर दिया. वहीं दूसरी ओर जनसंपर्क में माहिर कल्सी ने मंदिर मस्जिद और गुरुद्वारों में जाकर इस नायाब मशीन के लिए जगह मांगी. आस्था में जकड़े मठाधीशों ने इस कचरे को देने से मना कर दिया.

थक हार कर ये लोग इंडिया गेट पहुंचे. इसके विशाल लॉन में जमा होने वाले पत्तों को ठिकाने लगाने के लिए सीपीडब्ल्यूडी प्रति ट्रक ढुलाई के 1200 रुपये दे रहा था. ये लोग सीपीडब्लूडी को समझाने में कामयाब हो गए कि इनकी मशीन को अगर इंडिया गेट पर लगा दिया जाए, तो काफी पैसा बचेगा और पत्ती के शोधन से जो सॉफ्ट वुड बनेगी उससे ईंधन भी बन सकेगा.

Indien Fluss Yamuna
तस्वीर: dapd

कैसे शुरू हुआ काम

आखिरकार दिसंबर 2012 में इंडिया गेट पर ओआरएम मशीन ने प्रतिदिन 10 टन पत्तों का शोधन शुरू कर दिया. असर दिखता, इससे इससे पहले ही गणतंत्र दिवस परेड की तैयारी की वजह से इसे हटा कर दिल्ली के बुद्धा जयंती उद्यान में रख दिया गया. इससे निराश हुए बिना कल्सी और पाठक ने आस्था के सर्वाधिक फूल चढ़ाए जाने वाले लोदी रोड साईं मंदिर के प्रशासन को मना लिया कि मंदिर से रोजाना 250 से 500 किलोग्राम तक निकलने वाले फूल को यमुना में बहाने के बजाय उन्हें शोधन के लिए दे दिया जाए.

आखिरकार इनकी मेहनत रंग लाई और पिछले हफ्ते मुख्यमंत्री शीला दीक्षित ने हर घंटे 250 किलो फूल और पूजा की दूसरी सामग्री का शोधन करने वाली मशीन का उद्घाटन किया. पर्यावरण विभाग को कहा गया कि दिल्ली से तमाम बड़े और अहम धार्मिक स्थलों की पहचान कर उनमें मशीन लगाई जाए. साथ ही सरकार ने पाठक के पेटेंट वाली मशीन को बेहतर बनाने के लिए हर संभव मदद देने की बात कही है. पाठक अब बुद्धा पार्क में बंद पड़ी मशीन को शुरू करना चाहते हैं.

मजे की बात है कि इसी बीच बैंगलोर के भारतीय विज्ञान संस्थान ने ऐसा चूल्हा बनाया है जो पत्ती का शोधन करने से निकलने वाले सॉफ्ट वुड से जलता है. इसे संयोग ही कहा जाएगा कि हाल ही में दिल्ली सरकार ने राजधानी को केरोसिन मुक्त बनाने की योजना शुरू की है. ऐसे में पाठक की मशीन दिल्ली सरकार के लिए बड़ी मददगार साबित हो सकती है.

सिर्फ दो लोगों के प्रयास से बहुत कुछ बदलता दिख रहा है. साथ ही इंसान पर नदी के सदियों पुराने कर्ज को अदा करने का मौन संदेश भी मिला है.

ब्लॉगः निर्मल यादव

संपादनः अनवर जे अशरफ