आदिवासियों को भी मुनाफा दो
१५ अप्रैल २०१३सदियों से कैथेरैंथुस रोजेउस का इस्तेमाल, जिसे मैडागास्कर पेरीविंकल के नाम से भी जाना जाता है, अफ्रीका और उसके बाहर दवा के रूप में किया जाता रहा है. फिलीपींस में आदिवासी लोग इसका इस्तेमाल भूख को दबाने के लिए करते हैं. चूंकि मैडागास्कर पेरीविंकल खून में श्वेत कोशिकाओं की संख्या में भारी कमी लाता है, इसका इस्तेमाल ल्यूकेमिया के खिलाफ भी किया जा सकता है.
आज यह बहुत सी दवाओं में शामिल है जिसे दवा कंपनियों ने पेटेंट करा लिया है और बाजार में बेच रही हैं. मैडागास्कर पेरीविंकल और दूसरी जड़ी बूंटियों का इस्तेमाल करने वाली कंपनियां दवा बेचकर भारी मुनाफा कमा रही हैं. लेकिन जो लोग प्राचीन काल से पेड़ पौधों के जैविक गुण का इस्तेमाल कर रहे हैं, उन्हें कुछ नहीं मिल रहा है. इसकी वजह से बहुत से विकास संगठन कंपनियों पर बायो-पायरेसी के आरोप लगाने लगे हैं.
चोरी के आरोपों का सामना करने वालों में सिर्फ दवा कंपनियां ही नहीं हैं. उनमें ऐसे उद्यम भी हैं जो कथित रूप से नए फल और नई सब्जियां विकसित कर रहे हैं. सन 2000 में अमेरिकी कंपनी डुपॉन्ट को यूरोपीय पेटेंट कार्यालय ने एक ऐसा पेटेंट दिया जिसमें ऐसे सभी प्रकार के मक्के के पौधे शामिल हैं जिनमें तेल और अम्लीय वसा का खास हिस्सा होता है.लेकिन मेक्सिको सरकार और ग्रीनपीस जैसे पर्यावरण संगठनों का कहना है कि इस तरह के पौधे पहले से ही थे.
परंपरागत ज्ञान की रक्षा
बायोपायरेसी को रोकने की कोशिशें लंबे समय से हो रही हैं. उसमें सफलता भी मिली है. मार्च 1995 में मिसीसिपी यूनिवर्सिटी के भारतीय मूल के दो रिसर्चरों को घाव को ठीक करने वाले साधन के रूप में हल्दी का पैटेंट मिला. हल्दी का पौधा दक्षिण एशिया में पाया जाता है और वहां के लोग इसका इस्तेमाल ताजा या सुखाकर मसाले के रूप में करते हैं. भारतीय शोध संस्थान आईसीएसआईआर ने अमेरिकी पेटेंट कार्यालय के खिलाफ मुकदमा किया क्योंकि भारत में चोट के इलाज में सदियों से हल्दी का इस्तेमाल हो रहा था. मुकदमे में उसने संस्कृत के एक श्लोक का हवाला दिया. इसके बाद अमेरिकी पेटेंट कार्यालय ने हल्दी से जुड़े कई पेटेंटों को रद्द कर दिया.
अक्टबर 2010 में नागोया में हुए संयुक्त राष्ट्र जैव विविधता सम्मेलन में नागोया समझौते पर दस्तखत हुए. यह एक बाध्यकारी अंतरराष्ट्रीय संधि है जिसका लक्ष्य जड़ी बूटियों जैसे प्राकृतिक संसाधनों से होने वाले मुनाफे को निष्पक्ष तरीके से बांटना ताकि उसका लाभ स्थानीय जनता को भी मिले जो उसका इस्तेमाल सदियों से कर रही थी. जर्मन राहत संस्था ब्रोट फुअर डी वेल्ट के स्वेन हिलविष की शिकायत है कि इस संधि को अभी तक संयुक्त राष्ट्र के सदस्य देशों में कानूनी स्वरूप नहीं दिया गया है.
कानूनी संघर्ष
यह आरोप नागोया समझौते पर हस्ताक्षर करने वालों में शामिल यूरोपीय संघ पर भी लागू होता है. अब तक सिर्फ 15 देशों ने इस समझौते को राष्ट्रीय कानून का हिस्सा बनाया है. उनमें यूरोपीय संघ के देश शामिल नहीं हैं. इस संधि को विश्व भर में लागू करने के लिए कम से कम 50 देशों में उसका अनुमोदन जरूरी है. वैसे गैर सरकारी संगठनों का कहना है कि इस समझौते के बावजूद यूरोपीय संघ के 27 सदस्य देशों में बायो-पायरेसी के स्पष्ट मामलों को रोकना संभव नहीं होगा.
उनका आरोप है कि यूरोपीय संघ के नागोया समझौते को लागू करने के लिए नियमों का जो मसौदा पेश किया है, वह चुस्त नहीं है. उसमें पेटेंट तय करने के लिए नए नियम नहीं हैं. ब्रोट फुअर डी वेल्ट के हार्टमुट मायर कहते हैं कि भविष्य में पेटेंट की अर्जी देने वालों के लिए यह साबित करना अनिवार्य होना चाहिए कि नई सामग्री कहां से आई है और यह कि उसे वैधानिक तरीकों से हासिल किया गया है. मायर का कहना है कि बायोपायरेसी के खिलाफ संघर्ष में सफलता इस बात पर भी निर्भर करेगी कि उपभोक्ता इस समस्या के प्रति कितना जागरूक है.
संभव है सफलता
थर्ड वर्ल्ड नेटवर्क की योक लिंग ची की मांग है, "हमें विकासशील देशों में ज्यादा सक्रिय होना होगा. वहां के लोगों को बायोपायरेसी के बारे में अधिक जानकारी देनी होगी. आम तौर पर उपभोक्ताओं को पता होना चाहिए कि कौन से उत्पाद बायो-पायरेसी के जरिए तैयार किए गए हैं." बायो-पायरेसी के खिलाफ सफल संघर्ष का एक उदाहरण मौजूद है. प्राकृतिक संसाधनों की सुरक्षा के नियमों के तहत पहले से दर्ज परंपरागत ज्ञान को लाइसेंस फीस के बदले इस्तेमाल के लिए दिया जा सकता है. इस तरह आदिवासी समुदाय अपने अपने ज्ञान के इस्तेमाल का लाभ उठा पाएंगे. भारत में इस तरह के प्रयास काफी विकसित अवस्था में हैं. वहां जड़ी बूटियों के लिए के एक परंपरागत ज्ञान पर डिजीटल लाइब्रेरी तैयार की गई है.
रिपोर्टः रैचेल बेग/एमजे
संपादनः निखिल रंजन