आपके कपड़ों में जहर है!
५ जून २०१३ये रसायन न सिर्फ त्वचा को नुक्सान पहुंचाते हैं, बल्कि कैंसर का खतरा भी पैदा करते हैं. जितना बड़ा नाम, खतरा भी उतना ही ज्यादा. न केवल बड़े ब्रैंड कपड़ों में जहर घोल रहे हैं, बल्कि इनसे नदियों को भी प्रदूषित कर रहे हैं. पर्यावरण के लिए काम कर रही संस्था ग्रीन पीस अब इस पर लगाम लगाने की मांग कर रही है. पश्चिमी देशों में बेचे जाने वाले अधिकतर कपड़े एशियाई देशों की फैक्ट्रियों में तैयार किए जाते हैं और फैक्ट्रियों से निकलने वाला रसायन भरा पानी वहां की नदियों को दूषित कर रहा है. साथ ही जब ये कपड़े पश्चिमी देशों में बिकते हैं, तब वहां घरों में जब इन्हें धोया जाता है, तब भी ये रसायन निकलते हैं. इस तरह से नुकसान गरीब और अमीर दोनों ही देशों के पर्यावरण को भुगतना पड़ रहा है.
वेरो मोडा से जारा तक
ग्रीन पीस के मानफ्रेड सानटेन ने डॉयचे वेले से बातचीत में बताया कि इस तरह से पीने का पानी दूषित हो रहा है, नदियों में मछलियां मर रही हैं और खाद्य श्रृंखला का संतुलन बिगड़ रहा है. ग्रीन पीस ने 2012 में एक शोध किया. शोध के लिए 29 देशों से कपड़े के 141 पीस जमा किए गए और उन पर टेस्ट किए गए. इनमें टीशर्ट, जींस, पतलून, स्कर्ट और अंडरगार्मेंट शामिल हैं. ये सब कपड़े अरमानी, बेनेटन, सीएंडए, कैलविन क्लाइन, डीजल, एस्प्री, गैप, एचएंडएम, जैकएनजोन्स, लिवाइस, मैंगो, ओनली, टॉमी हिलफिगर, वेरो मोडा, जारा और विक्टोरियास सीक्रेट जैसी जानी मानी कंपनियों के थे.
टेस्ट के नतीजे हैरान कर देने वाले थे. सानटेन बताते हैं कि पाकिस्तान में बनी जारा की जींस में कैंसर को बढ़ावा देने वाले रसायन मिले. इसी तरह बच्चों की एक जैकेट में हारमोन पर असर डालने वाला एपीईओ पाया गया. कंपनियां एपीईओ को कपड़े साफ करने के लिए इस्तेमाल करती है और ऐसा पिछले 30 साल से होता आया है. इस बीच यूरोपीय संघ ने तो नियम बना कर इसके इस्तेमाल पर रोक लगा दी है, लेकिन यूरोपीय कंपनियों के यूरोप से बाहर इसके इस्तेमाल पर किसी का ध्यान नहीं जा रहा है.
और महंगे होंगे कपड़े
इस पर लगाम लगाने के लिए ग्रीन पीस 2011 से 'डिटॉक्स' नाम की एक मुहिम चला रहा है जिसके तहत हर कंपनी से पूछा जा रहा है कि वह इन रसायनों का इस्तेमाल कब तक खत्म कर सकते हैं. एडिडास, नाइकी और एचएंडएम समेत कुल 17 कंपनियां 2020 तक इनके इस्तेमाल को बंद करने का वादा कर चुकी हैं. जारा ने तो कहा है कि वह मई 2013 से एपीईओ का इस्तेमाल बंद कर चुका है.
सानटेन बताते हैं कि कंपनियों के लिए ऐसा करना आसान नहीं. आम तौर पर वे कई देशों में कपड़े बनवाते हैं. उन देशों में जमीनी स्तर पर काम कैसे हो रहा है इस पर वे पूरी तरह काबू नहीं रख सकते. लेकिन एक सच्चाई यह भी है कि ये कंपनियां विकासशील देशों में इसलिए कपड़ा बनवाती हैं ताकि उत्पादन की लागत कम की जा सके. सानटेन कहते हैं कि फैक्टरियों को यह बात समझनी होगी कि अगर वे इन हानिकारक रसायनों को छोड़ बेहतर रसायनों का इस्तेमाल करते हैं तो भी खर्च बहुत ज्यादा नहीं बढ़ेगा.
शायद आने वाले समय में बड़े और महंगे ब्रैंड पर्यावरण की रक्षा के नाम पर और महंगे हो जाएं, लेकिन इस से कम से भारत, पाकिस्तान, बांग्लादेश और विएतनाम जैसे देशों की नदियां बच सकेंगी.
रिपोर्ट: राल्फ हाइनरिष आहरेंस /ईशा भाटिया
संपादन: महेश झा