इंसानी छेड़छाड़ से लहुलूहान होती धरती
१३ मई २०१०कहीं बात हो रही है ग्लोबल वार्मिंग की तो कहीं आइस एज की. कभी सूनामी लहरों की तो कभी कैटरीना तूफ़ान की, और कभी तो भीषण ज्वालामुखी उद्गार की. चारों ओर प्रलय जैसा माहौल है.
इंसानी गतिविधियों के कारण पिछली एक सदी में वातावरण में कई बदलाव आए हैं. यदि ऐसा ही चलता रहा तो इस सदी के आखिर तक औसत तापमान में करीब चार डिग्री की बढ़ोतरी देखी जाएगी. और फिर आएंगे और भी भीषण तूफ़ान.
प्राकृतिक आपदाओं के कारण क्लिमिग्रेशन
एक नए शब्द का जन्म हो रहा है जिसे कहते हैं क्लिमिग्रेशन. क्लिमिग्रेशन यानी क्लाइमेट के कारण होने वाला माइग्रेशन. अब तक कितने लोगों को प्राकृतिक आपदाओं के कारण अपने घरों को छोड़ कर जाना पड़ा है इसका सही अनुमान तो फिलहाल कोई नहीं लगा पा रहा है, लेकिन विशषज्ञों की मानें तो 2050 तक करीब 50 करोड़ लोग इस से प्रभावित होंगे.
जंग के माहौल में तो लोगों को अपना बसेरा छोड़ कर किसी सुरक्षित स्थान पर जाना ही पड़ता है और इसमें सरकार भी उनकी मदद करती है लेकिन प्राकृतिक आपदाओं के कारण जब लोगों को ऐसा करने पर मजबूर होना पड़ता है तब तो दुनिया का कोई कानून उनका साथ नहीं देता. इसीलिए अब कोशिश की जा रही है ऐसे कानून बनाने की जो इन लोगों के लिए मददगार साबित होंगे. जलवायु से सबसे ज़्यादा प्रभावित होते हैं वो लोग जो खेती बाड़ी से जुड़े होते हैं.
डॉक्टर तामेर अफीफी बॉन की संयुक्त राष्ट्र विश्वविद्यालय के पर्यावरण और मानवीय सुरक्षा संस्थान में काम करते हैं. उन्होंने बताया कि उन्होंने प्राकृतिक आपदाओं से प्रभावित लोगों से बात की. उनमें से ज़्यादातर लोग किसान हैं. वो खुद तो यह कहते ही नहीं हैं कि वे एक से दूसरे गांव इसलिए जा रहे हैं क्योंकि उन्हें जलवायु परिवर्तन के कारण दिक्कतों का सामना करना पड़ रहा है. वो तो यही कहते रहते हैं कि वे गरीब हैं और वो आर्थिक समस्याओं के कारण ऐसा कर रहे हैं. लेकिन अगर गहराई में जाएं और उनसे पूछें तो पता चलता है कि मुसीबत की जड़ तो जलवायु परिवर्तन से जुड़ी आपदाएं हैं. "जब सूखा पड़ जाएगा तो वो खेती कहां करेंगे? इसीलिए तो वो कहीं और जाना चाहते हैं."
लुप्त होते पशु पक्षी
सिर्फ इंसान ही नहीं हैं जो इस सब से प्रभावित हैं. प्रकृति संरक्षण के लिए अंतरराष्ट्रीय संघ आईयूसीएन की एक रिपोर्ट के अनुसार 20 प्रतिशत स्तनपायी, 30 प्रतिशत जलथलचारी (एम्फ़ीबियन) और 12 प्रतिशत पक्षी लुप्त होने की कगार पर खड़े हैं. साथ ही तटीय इलाकों में पाए जाने वाले मूंगे भी लुप्त हो सकते हैं. करीब 50 करोड़ लोग उन पर निर्भर करते हैं.
इस साल अक्तूबर में जापान में दुनिया भर की सरकारें इस पर चर्चा करने के लिए मिलेंगीं. आईयूसीएन की प्रमुख जेन स्मार्ट ने सभी से अपील की है कि यदि हम इस बार कोई बड़ा उपाय नहीं ढूंढ पाए तो हम धरती को नहीं बचा पाएंगे.
धरती को बचाने के लिए हम और आप कम से कम कुछ छोटी छोटी चीज़ों का ध्यान तो रख ही सकते हैं. ज़्यादा से ज़्यादा पेड़ लगाएं और कम से कम प्रदूषण फैलाएं.
रिपोर्टः ईशा भाटिया
संपादनः ए जमाल