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कपड़ों के रेशों में पिरोया शोषण

१० जनवरी २०१३

तमिलनाडु का कपड़ा उद्योग युवा महिला कारीगरों के लिए बहुत बुरा साबित हो रहा है. यहां जर्मन कंपनियों के लिए कपड़े बनते हैं लेकिन खरीदार कारखानों में काम करने वाली लड़कियों के शोषण की कहानी से अनजान हैं.

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तस्वीर: picture-alliance/Godong

तमिलनाडु के सुमंगलि कारखाने में लड़कियों के मां बाप उन्हें ट्रेनिंग और पैसे कमाने भेजते हैं ताकि उनकी शादी के लिए पैसे इकट्ठा हों. सुमंगलि शब्द का अर्थ ही है लक्ष्मी लाने वाली. सुमंगलि सरकीम के तहत यह ट्रेनिंग तीन से चार साल चलती है. इसका मकसद तो महिलाओं को रोजगार देना है लेकिन हर रोज 12 घंटे काम करने के बदले उन्हें मुश्किल से 40-45 रुपये मिलते हैं.

एक स्वेटर जिसकी कीमत 1,400 रुपये या एक जींस जो 2100 रुपये में बिकती है. उसके बदले ये महिलाएं अपने दिन रात लगाकर कौड़ियों के दाम पाती हैं. इन पैसों को ये लड़कियां शादी और दहेज के लिए जोड़ती हैं. जबकि पहनने वाले को पता भी नहीं चलता कि इन रेशों में कितना दर्द पिरोया है.

हालांकि इन लड़कियों को कई बार 500 यूरो का लालच भी दिया जाता है लेकिन यह बोनस तभी मिलता है, जब वे अपना करार पूरा करें. बोनस खुद लड़कियों को नहीं बल्कि उनके माता पिता या फिर होने वाले पति के परिवार को मिलता है. यहां लड़कियां बंधुआ मजदूर की तरह काम करती हैं, जिन्हें बिना अनुमति कहीं जाने की छूट तक नहीं.

कई बार वे हिंसा और शारीरिक शोषण की भी शिकार होती हैं. बाल अधिकार संगठन टेर डे जोम्म के अनुसार करीब सवा लाख लड़कियां इस प्रताड़ना का शिकार हैं. कई बार उनके भाग जाने के मामले भी सामने आते हैं.

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तस्वीर: Getty Images

पारदर्शिता की कमी

तमिलनाडु दुनिया भर में कपड़ा उद्योग के सबसे बड़े गढ़ों में से एक है. जर्मनी की कई फैशन कंपनियां भी अपना माल वहीं से बनवाती हैं. यह बात स्पष्ट नहीं है कि सुमंगलि में इनके लिए भी कपड़ा बनता है या नहीं. कानूनी तौर पर कंपनियों पर यह बताने का दबाव नहीं डाला जा सकता कि वे अपना सामान कहां से बनवाती हैं.

जर्मनी की ग्रीन पार्टी के मानव अधिकार मामलों के वक्ता वोल्कर बेक ने डॉयचे वेले से कहा, "हमारे लिए चिंता की बात है कि हमें पता नहीं होता कि कारीगर कहीं बंधुआ मजदूर तो नहीं." ग्रीन पार्टी ने जर्मन संसद में इस मुद्दे को उठाया है. उनकी मांग है कि एक ऐसा तंत्र लाया जाए जिसके तहत जर्मन कंपनियों के लिए बताना जरूरी हो कि वे अपना सामान कहां से बनवा रहे हैं.

गैरसरकारी संस्था सुडविंड के साथ काम करने वाली आन्या श्नेवाइस भी मानती हैं कि पारदर्शिता की सख्त जरूरत है, "जरूरी है कि ग्राहक भी जिम्मेदारी का सबूत दें और निवेशक भी देख भाल कर वहीं पैसे लगाएं जहां कर्मचारियों का शोषण न हो रहा हो."

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तस्वीर: Getty Images

बिखरी हुई कड़ियां

श्नेवाइस ने बताया कि कई कंपनियां सप्लायर के नाम प्रोडक्ट पर लिखती हैं. लेकिन इसमें कई कड़ियां और जुड़ी हैं. सप्लायर अकसर अपना काम दूसरे लोगों से करवाते हैं जिनके बारे में निवेशक को भी पता नहीं होता.

बेक का कहना है कि इस मामले में सरकार को कोई ऐसा कदम उठाना चाहिए जिससे अमानवीय स्थितियों में तैयार सामान के आयात पर प्रतिबंध हो. हालांकि जर्मन सरकार ने इन प्रस्तावों को दरकिनार करते हुए कहा कि इस तरह के आयात पर यूरोपीय संघ को बैन लगाना चाहिए.

रिपोर्टः क्रिस्टीना रूथा/एसएफ

संपादनः ए जमाल

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