कश्मीरी छात्रों से नफरत का किसे फायदा
१८ फ़रवरी २०१९पुलवामा वारदात के बाद कश्मीरी छात्र-छात्राओं को डराने धमकाने और उनके खिलाफ प्रदर्शन की खबरें मिली हैं. विभिन्न राज्यों की पुलिस का दावा है कि उन्हें पूरी सुरक्षा दी जा रही है, वहीं सीआरपीएफ ने भी मदद के लिए हेल्पलाइन नंबर जारी किए हैं.
मीडिया में आई कुछ खबरों के मुताबिक उत्तराखंड की राजधानी देहरादून, हरियाणा और राजस्थान और कुछ अन्य राज्यों के उच्च, तकनीकी और चिकित्सा शिक्षा से जुड़े निजी शिक्षण-प्रशिक्षण संस्थानों और निजी विश्वविद्यालयों में पढ़ रहे कश्मीरी छात्र पुलवामा कांड के बाद से दहशत में हैं. उनके खिलाफ प्रदर्शन और संस्थानों के घेराव की खबरें मिली हैं. सैकड़ो छात्र देहरादून में जम्मू कश्मीर के विभिन्न इलाकों से शिक्षा ग्रहण करने आते हैं. इन डिग्रियों के लिए महंगी फीस चुकाकर घर से दूर, अलग हालात में वे रहते आए हैं.
देहरादून के शिक्षण संस्थानों में प्रदर्शन और छात्रों के डर को लेकर परस्पर विरोधी खबरें भी आई हैं. पुलिस का दावा है कि जिले में कहीं कोई अप्रिय घटना नहीं हुई है और छात्रों को उचित सुरक्षा दी गई है, लेकिन कथित प्रदर्शनों और हंगामे से उनमें डर तो बैठा ही है. प्रदर्शनकारियों का आरोप है कि पुलवामा घटना पर एक छात्र के विवादास्पद सोशल मीडिया संदेश से ये मामला भड़का. हालांकि इस बारे में स्वतंत्र रूप से पुष्टि नहीं हो पाई है. पुलिस ने कहा है कि किसी को भी कानून हाथ में लेने की अनुमति नहीं दी जाएगी.
मीडिया खबरों के मुताबिक इक्का दुक्का संस्थानों से ये लिखवा लिया गया कि वे आइंदा अपने यहां कश्मीरी छात्रों को दाखिला नहीं देंगे. ये तात्कालिक दबाव में हुआ या इसका कोई दूरगामी परिणाम होगा, कहना मुश्किल है लेकिन इससे कश्मीरी छात्रों और छोटे व्यवसाइयों के लिए उधर कुआं इधर खाई जैसे हालात बने हैं. राजस्थान और हरियाणा में भी कुछ शिक्षण संस्थानों से छात्रों की शिकायतें मीडिया में आई हैं. कुछ कश्मीरी छात्राओं पर कथित भड़काऊ वॉट्सऐप या फेसबुक पोस्ट डालने के आरोप भी लगे हैं और मुकदमे भी दर्ज कर दिए गए हैं.
पुलवामा जैसी जघन्य वारदात की आड़ में अनर्गल बयानबाजी, अफवाहों और भड़काऊ टिप्पणियों का सिलसिला चल पड़ता है और पुलिस और प्रशासन को और अधिक सतर्क हो जाना पड़ता है. इसीलिए सरकार ने मीडिया एडवाइजरी भी जारी की थी. सोशल मीडिया में तो मानो अघोषित युद्ध का सा आभास दिया जा रहा है. लगता है कि शोक, उदासी, अफसोस और नाराजगी में डूबे माहौल के बीच कुछ प्रकट-प्रछन्न ताकतें राजनीतिक लाभ उठा लेना चाहती हैं. वरना सवाल सिर्फ कश्मीरी छात्रों को कथित रूप से खदेड़ने का नहीं आता- सुरक्षा चूक, जवानों के हालात, उन्हें मुहैया साजोसामान और इंटेलिजेंस और सुरक्षा बलों की कार्य, वेतन और पेंशन विसंगतियों के सवाल भी मजबूती से उठाए जाते.
दूसरी ओर, कश्मीरी छात्र-छात्राओं के दिलोदिमाग से डर निकालना, और उन्हें भरोसा जगाना सिर्फ पुलिस और सीआरपीएफ जैसे बलों का ही दायित्व नहीं है, बल्कि राजनीतिक दलों और नेताओं को भी आगे आना चाहिए, स्वयंसेवी संस्थाओं और शहरों के विशिष्ट जन को भी अपील करनी चाहिए. सोशल मीडिया पर शांति और सौहार्द को बढ़ाने वाला माहौल बनाना चाहिए और दलीय कार्यकर्ताओं और नेताओं को समझना चाहिए कि वे अपनी लड़ाई राजनीतिक तौर पर ही लड़ सकते हैं, उकसावे, उन्माद और अतिरेक से नहीं. अगर कश्मीरी छात्रों को धैर्य रखने और खुद पर काबू रखने की सलाह दी जाती है तो ये सलाह किसी न किसी ढंग से उन पर गुस्सा उतारने वालों पर भी लागू होती है.
मोहल्ला कमेटियों, हाउसिंग सोसायटी और किराए पर कमरा देने वाले मकान मालिकों को भी निर्भयता से अपनी बात रखनी चाहिए. प्रिंट, प्रसारण और नया मीडिया भी अतिरेक से परहेज करे तो ये उनकी विश्वसनीयता के लिए लाभप्रद होगा. सोशल मीडिया के अलावा अधिकांश टीवी चैनलों और अखबारों की कवरेज के तरीकों पर भी बहस के बीच प्रेस काउंसिल के दिशानिर्देशों, सीआरपीएफ की अपील और सूचना प्रसारण मंत्रालय की मीडिया एडवाइजरी की अनदेखी को लेकर भी चिंताएं और सवाल उठे हैं. किसी भी घटना की प्रामाणिकता जांचे बिना उस पर प्रतिक्रिया न करने का सब्र रखना भी आज के समय में एक कठिन इम्तहान है.
शिक्षा और रोजगार के लिए इंटरस्टेट माइग्रेशन स्वाभाविक है लेकिन एक दूसरे के प्रति बेरुखी रही तो एक राज्य से दूसरे राज्य में आना जाना और एक ही जगह पर पड़ोसी बन कर रहना भी दूभर और खतरनाक हो जाएगा. संदेह, अविश्वास, नफरत और हिंसा ऐसे ही नाजुक मौकों पर पनपते हैं लेकिन ध्यान रहे कि प्रेम, भरोसा, एकजुटता और भाईचारा भी ऐसे ही नाजुक मौकों के लिए बने होते हैं.