कैसे काम करता है नेवीगेशन
२४ दिसम्बर २०१५आम जिंदगी में यह बहुत उपयोगी और आसान सा लगने वाला सिस्टम लगता है. लेकिन इसके पीछे धरती का चक्कर काट रही 25 अमेरिकी सैटेलाइटों का तंत्र है, जो बीते 15 साल से हमारी मदद कर रहा है..
डिजिटल सेटेलाइट सिस्टम जीपीएस हमें किसी जगह का पता करने में मदद करता है और मंजिल तक पहुंचने का सही रास्ता बताता है. लेकिन हमें ग्लोबल पोजीशनिंग सिस्टन का सिर्फ रिसीवर टर्मिनल ही दिखता है.
इसके पीछे का विज्ञान नहीं दिखता. असल में पृथ्वी का चक्कर काटते और अपनी स्थिति और समय की सूचना देते 25 उपग्रह इस सिस्टम का आधार हैं. इस डाटा की मदद से नेविगेशन उपकरण अपनी स्थिति का आकलन करते हैं और कहीं पहुंचने के लिए रास्ते की खोज करते हैं. इन उपग्रहों को अमेरिका ने पृथ्वी की कक्षा में भेजा है. वे 1978 से 20,000 किलोमीटर की ऊंचाई पर स्थित हैं. लेकिन सेटेलाइट तकनीकी उससे भी पुरानी है.
अंतरिक्ष युग
अंतरिक्ष युग की शुरुआत 4 अक्टूबर 1957 को हुई, जब सोवियत संघ के स्पुतनिक 1 अंतरिक्ष में भेजा. सेर्गेई कोरोलियोव के दिमाग की उपज यह उपग्रह 58 सेंटीमीटर व्यास का था. इसने अंतरित्र से पृथ्वी को संकेत भेजा जिसे उपयुक्त उपकरण की मदद से धरती पर कहीं भी कैच किया जा सकता था.
सोवियत तकनीकी के इस प्रदर्शन के बाद अमेरिका को महसूस हुआ कि उसका शीत युद्ध का प्रतिद्वंद्वी तकनीकी के मामले में एक कदम आगे चला गया है. स्पुतनिक शॉक के बाद अमेरिका ने व्यापक अंतरिक्ष कार्यक्रम की शुरुआत की. अंतरिक्ष एजेंसी नासा की स्थापना हुई. 1969 में पहले इंसान पर चांद पर भेजकर अमेरिका ने दिखा दिया कि उसने तकनीकी के मामले में सोवियत संघ को पकड़ लिया है.
हाई पब्लिसिटी वाले अपोलो कार्यक्रम के अलावा अमेरिका ने सेटेलाइट तकनीकी का विकास जारी रखा. शुरुआत में उपग्रहों को सैनिक जासूसी के लिए इस्तेमाल किया गया. पहली जीपीएस सेटेलाइट को 1978 में कक्षा में भेजा गया. इसका मुख्य मकसद दूसरे उपग्रहों के साथ मिलकर अमेरिकी सैन्य ऑपरेशन में मदद करना था.
2000 में अमेरिका ने जीपीएस सिस्टम को आम लोगों के इस्तेमाल के लिए खोल दिया. उसके बाद अब कोई भी पृथ्वी के किसी भी हिस्से का पता ठीक ठीक कर सकता है. यह हर नेविगेशन सिस्टम का आधार है.
ओएसजे/आईबी