क्या गांधी ने दलितों की राजनीतिक अभिव्यक्ति को कुचल दिया?
२३ फ़रवरी २०१८मोहनदास यानी महात्मा गांधी को दुनिया दूसरे स्मारकों के साथ ही दलितों का भी मसीहा मानती है. यह सच है कि दक्षिण अफ्रीका से वापस लौटने के बाद जब वे मैला उठाने वालों की बस्ती में रहे और उनकी समस्याओं को जाना तो एक साल के भीतर ही 1916 में कांग्रेस के भीतर उन्होंने छुआछूत का मुद्दा उठाया. छुआछूत की भावना को खत्म करने के लिए वह अपना शौचालय खुद साफ करते और दूसरों को भी ऐसा करने के लिए कहते. ऐसी बहुत सी घटनाएं हैं जिनसे दलितों के लिए महात्मा गांधी के लाठी उठाने के दावे का समर्थन किया जा सकता है.
हालांकि बहुत ध्यान से अगर इनकी पड़ताल की जाए तो यह उभर कर आता है कि यह रणनीतिक कदम मौजूदा वर्ण व्यवस्था को बनाए रखने के लिए था, इसमें उसे खत्म करने की प्रतिबद्धता नहीं थी.
बहुत सावधानी से गढ़ी गई नंगे फकीर से लेकर स्वघोषित 'भंगी' तक के उनके व्यक्तित्व में एक चतुर रणनीतिकार था जो मुख्य रूप से अमीर वर्गों के हितों का प्रतिनिधित्व करता था, खासतौर से उभरते बुर्जुआ वर्ग का. उनका यह स्पष्ट तौर से मानना था कि केवल उद्यमी वर्ग के जरिए ही समाज प्रगति कर सकता है. जन्मजात शोषणवादी व्यवस्था को उनका जवाब 'ट्रस्टीशिप' था, एक नैतिक छलावा कि अमीर लोग समाज की भलाई के लिए ट्रस्टी के रूप में काम करेंगे.
उनकी नायाब प्रतिभा बुनियादी अंतर्विरोधों को नजरअंदाज करने वाले उपचार में दिखती है, जो वास्तव में हाथ की सफाई दिखाने जैसा है: "जरूरत जमींदारों और पूंजीपतियों को खत्म करने की नहीं बल्कि उनके और आम लोगों के बीच मौजूदा संबंधों को स्वस्थ और शुद्ध बनाने की है." (एन के बोस "सेलेक्शंस फ्रॉम गांधी", नवजीवन प्रेस, अहमदाबाद,1957, पृष्ठ 93). एक बेजोड़ रणनीतिकार के रूप में वह जानते थे कि जब तक समाज में सद्भाव नहीं होगा, प्रगति संभव नहीं है. दूसरे वर्ग के लोगों के लिए उनकी सारी चिंताएं इसी मकसद के इर्द गिर्द ही घूमती थीं.
गांधी वर्णाश्रम धर्म और उससे निकली जाति व्यवस्था में सिर्फ इसलिए नहीं यकीन रखते थे क्योंकि वे सनातनी हिंदू थे जैसा कि उन्होंने बिना किसी शर्म के स्वीकार किया है, बल्कि इसलिए भी क्योंकि इन व्यवस्थाओं ने मानव इतिहास के सबसे लंबे समय तक, समाज में सद्भाव बनाए रखने में खुद को सफल साबित किया है. अहिंसा और सत्याग्रह पर जोर के साथ उनके पूरे वैचारिक पुलिंदे का लक्ष्य सतही सुधारों के साथ इस व्यवस्था की रक्षा करना भी था. यही वजह थी कि उन्होंने अधिकारों की तुलना में कर्तव्यों को ज्यादा महत्वपूर्ण बनाया.
जब ब्रिटिश लेखक एचजी वेल्स ने "मनुष्य के अधिकार" पर उनकी राय पूछी तो उन्होंने "कर्तव्यों के घोषणापत्र" पर जोर दिया. यह प्रभावी रूप से जाति व्यवस्था की ही अभिलाषा थी जिसमें लोगों के दायित्वों पर जोर था, अधिकार वर्गों के आधार पर अपने आप ही मिल जाते थे. यह रवैया निचले तबकों की तकलीफ पर उनके दृष्टिकोण को दिखाता है, वो चाहे दलित हों, महिला, मजदूर या फिर दक्षिण अफ्रीका के काले लोग. उनका एक ही जवाब है कि शोषकों को अपनी "प्रजा" के लिए अपने कर्तव्यों को आत्मसात कर लेना चाहिए, शोषण अपने आप खत्म हो जाएगा. गांधी ने यह नहीं कहा कि अछूतों के अधिकार हैं बल्कि यह कहा कि ऊंची जातियों के उनके प्रति कर्तव्य हैं.
1937 में गांधी ने कहा, "मैला ढोने वाले के रूप में पैदा होने वालों को अपनी आजीविका मेहतर के रूप में ही अर्जित करनी चाहिए, और इसके बाद उन्हें जो पसंद हो वह करें. एक मेहतर भी उतना ही अनमोल है जितना कि एक वकील या फिर आपका राष्ट्रपति, मेरे हिसाब से यही हिंदुत्व है." उन्होंने मैला ढोने वालों को हरिजन कहा लेकिन जातियों को खत्म करने की बात नहीं की.
उनके सबसे तकलीफदेह पल वे थे जिसमें उन्होंने बाबासाहेब अंबेडकर से विवाद किया. 18 जुलाई 1936 के हरिजन में अंबेडकर के "एनिहिलेशन ऑफ कास्ट" की समीक्षा में, उन्होंने जोर दिया कि हर किसी को पैतृक पेशे को जरूर मानना चाहिए: "वर्ण का नियम हमें सिखाता है कि हममें से प्रत्येक को अपनी रोटी पैतृक पेशे से अर्जित करनी चाहिए. यह हमारे अधिकार नहीं बल्कि कर्तव्यों को परिभाषित करता है...वास्तव में इस नियम के स्वस्थ कार्यान्वयन की हल्की रेखाओं के निशान आज भी गांवों में देखे जा सकते हैं." [मोहन दास के गांधी, "डॉ अंबेडकर्स इंडिक्टमेंट"[1936]. डॉ बाबा साहेब अंबेडकर्स राइटिंग्स एंड स्पीचेज, 1:83.]
अंबेडकर ने जब गोलमेज सम्मेलन में अलग निर्वाचन क्षेत्र की मांग की तो गांधी ने उसका विरोध करने में एड़ी चोटी का जोर लगा दिया. उनकी दलील थी कि इससे हिंदू समाज बिखर जाएगा. जब अंबेडकर जीत गए तो गांधी ने पूना पैक्ट पर दस्तखत के लिए उन्हें ब्लैकमेल किया और आमरण अनशन पर चले गए. इस तरह से उन्होंने दलितों की स्वतंत्र राजनीतिक अभिव्यक्ति की संभावनाओं को कुचल दिया.
गांधी के लेखन से वक्तव्यों को निकाल कर अंबेडकर ने यह दिखाया कि वे वर्ण व्यवस्था, पूंजीपतियों, मिल मालिकों और बड़े जमींदारों का समर्थन करते हैं और घोषणा कर दी कि गांधी लोकतंत्र में यकीन नहीं करते. [बाबा साहब अंबेडकर, व्हाट कांग्रेस एंड गांधी हैव डन टू द अनटचेबल्स, 236] सच्चाई यह है कि आज जो लोकतंत्र हमें दिखाई देता है वह उन्होंने बनाया, जो सभी अच्छी चीजों की मृग मरीचिका रचता है और पीड़ित उसके पीछे भागते रहते हैं.
सशक्तिकरण का गांधीवादी विचार हिंदू सामाजिक व्यवस्था की गुलामी का समर्थन है जिससे भाग कर दलित औपनिवेशिक सत्ता की बनाई सौहार्दपूर्ण स्थिति में जाने की कोशिश कर रहे थे. गांधी ने अपनी सारी ताकत इसे रोकने में लगाई. गांधी की प्रतिभा ने लोगों को गुमराह करने के लिए जान बूझ कर पवित्र विवेकहीनता के साथ धार्मिक नैतिक कवच तैयार किया. निश्चित रूप दलित इसके सबसे बड़े पीड़ित रहे हैं.
आनंद तेलतुंबड़े, राजनीतिक विश्लेषक