जर्मन चुनाव: भारत के लिए क्या है दांव पर
१४ सितम्बर २०२१अक्टूबर 2019 के अंत में जर्मनी की चांसलर अंगेला मैर्केल महामारी के शुरू होने से पहले अपनी आखिरी प्रमुख अंतरराष्ट्रीय यात्राओं में से एक पर निकलीं थीं. एक दर्जन सरकारी अधिकारी और व्यापार क्षेत्र की कई जानी मानी हस्तियों के एक प्रतिनिधि मंडल के साथ मैर्केल भारत पहुंची थीं.
लक्ष्य था एक ऐसे रिश्ते को "और गहरा और मजबूत करना" जिसके महत्व में 2005 में उनके चांसलर बनने के बाद निस्संदेह रूप से बढ़ोतरी ही हुई है. यह मैर्केल का पहला भारत दौरा नहीं था. सबसे पहले वो 2007 में नई दिल्ली आई थीं और उसके बाद के अपने तीनों कार्यकालों में एक एक बार फिर दिल्ली आईं.
लेकिन यह अंतिम दौरा एक अवसर था भारत की उस भूमिका पर जोर देना जो जर्मनी के मुताबिक भारत इस तनावग्रस्त क्षेत्र में निभा सकता है, विशेष रूप से चीन की बढ़ती आग्रहिता को देखते हुए.
एक नया दृष्टिकोण
इस समय तक जर्मनी और दूसरे यूरोपीय देशों को यह अहसास होना शुरू हो चुका था कि चीन के साथ बिगड़ते रिश्तों की वजह से इंडो-पैसिफिक क्षेत्र के लिए एक अलग दृष्टिकोण की जरूरत पड़ेगी. दुनिया की सबसे ज्यादा आबादी वाले देश के रूप में भारत में इन देशों को एक संभावित पुल नजर आया.
यही उन कारणों में से एक है जिनकी वजह से पिछले साल जर्मनी ने एक नई इंडो-पैसिफिक सामरिक नीति प्रस्तुत की. फ्रांस और नीदरलैंड्स जैसे देशों ने भी ऐसा किया है और अप्रैल में यूरोपीय संघ ने भी इस क्षेत्र में सहयोग के लिए अपनी ही रूपरेखा जारी की.
लेकिन विशेषज्ञों ने चेतावनी भी दी है कि भारत के साथ रिश्ते साझा मूल्यों से आगे भी जाना चाहिए और यह भी सालों तक इस रिश्ते में संभावनाएं कई दिखाई गई हैं लेकिन उपलब्धि कम ही रही है.
इसके अलावा भारत में लोकतांत्रिक स्थिति चिंता का एक विषय बन गई है. इसी साल फ्रीडम हाउस जैसे संगठनों ने जोर देकर कहा है कि 2014 में नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद भारत में राजनीतिक अधिकार और नागरिक स्वतंत्रता की स्थिति बिगड़ी है.
एफटीए की कभी न खत्म होने वाली कोशिश
इस रिश्ते में मुख्य रूप से व्यापार पर ही ध्यान दिया गया है. जर्मनी यूरोप में भारत का सबसे बड़ा व्यापारिक साझेदार और भारत में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश करने वाले सबसे बड़े देशों में से भी है.
1,700 से भी ज्यादा जर्मन कंपनियां भारत में सक्रिय है जिनमें सीधे या अप्रत्यक्ष रूप से करीब 4,00,000 लोग काम करते हैं. जर्मनी में भी सैकड़ों भारतीय कंपनियां सक्रिय हैं और वहां आईटी, ऑटो और दवाइयों के क्षेत्र में अरबों यूरो का निवेश किया हुआ है.
लेकिन यूरोपीय संघ और भारत के बीच एक मुक्त व्यापार संधि (एफटीए) का इंतजार बहुत लंबा हो गया है और अब इसे एक बड़ी निराशा के रूप में देखा रहा है. इसी साल मई में यूरोपीय आयोग और भारत सरकार ने संधि पर बातचीत फिर से शुरू करने की घोषणा की थी. यह बातचीत 2013 से रुकी हुई है.
यह संधि यूरोपीय संघ और भारत के रिश्ते की अधूरी संभावनाओं का प्रतीक बन गई है और अब जब अंगेला मैर्केल पद छोड़ रही हैं, इस चुनौती का सामना उनके बाद चांसलर बनने वाले को ही करना पड़ेगा.
सामरिक महत्व
यूरोपियन काउंसिल ऑन फॉरेन रिलेशन्स में एशिया प्रोग्रैम कोऑर्डिनेटर मनीषा राउटर मानती हैं कि यह रिश्ता आर्थिक क्षेत्र के परे भी बढ़ा है. उन्होंने डीडब्ल्यू को बताया, "पिछले कुछ महीनों में या यूं कहें पिछले एक साल में यह रिश्ता एक सामरिक रिश्ता बन गया है.
जर्मन कॉउंसिल ऑन फॉरेन अफेयर्स (डीजीएपी) के लिए हाल ही में लिखी गई एक टिप्पणी में जॉन-जोसफ विल्किंस और रॉडरिक पार्केस ने लिखा कि यूरोपीय नेता "मानते हैं कि संघ को अपने पुराने भू-आर्थिक तरीकों को नए भू-राजनीतिक तरीकों से मिला कर देखने की, यानी व्यापार और सुरक्षा के कदमों को पहली बार मिला देने की जरूरत है."
जर्मनी ने अपनी इंडो-पैसिफिक सामरिक नीति का सितंबर 2020 से पालन शुरू कर दिया था, एक ऐसे समय पर जर्मनी यूरोपीय आयोग का अध्यक्ष था. लक्ष्य था "इस क्षेत्र के देशों के प्रति भविष्य की नीतियों की तरफ कदम बढ़ाना."
नई नीति उन विषयों पर ध्यान केंद्रित करती है जिन पर जर्मनी इस क्षेत्र में सहयोग विस्तार करना चाहता है. इनमें अंतरराष्ट्रीय सुरक्षा, जलवायु परिवर्तन, बहुपक्षवाद को मजबूत करना और कानून और मानवाधिकार के शासन को बढ़ावा देना.
लेकिन मनीषा राउटर जैसे विशेषज्ञों का कहना है कि स्पष्ट रूप से इसका संबंध चीन पर निर्भरता को घटाना भी है. उन्होंने बताया, "यह व्यापारिक रिश्तों में विविधता उत्पन्न करने और चीन से परे देखने के बारे में है."
वो कहती हैं कि चीन को उम्मीद के एक गंतव्य के रूप में देखा जा रहा था और पिछले एक दशक में जर्मनी और यूरोपीय संघ ने चीन पर बहुत ज्यादा ध्यान केंद्रित कर दिया था.
राउटर एशिया में जर्मनी की विदेश नीति के विविधीकरण के संदर्भ में भारत पर नए सिरे से ध्यान केंद्रित होता हुआ देख रही हैं. लेकिन इसे लेकर और भी दृष्टिकोण हैं.
जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के सेंटर फॉर यूरोपियन स्टडीज के अध्यक्ष गुलशन सचदेवा इसे अलग तरह से देखते हैं. उन्होंने बताया, "भारत एशिया में जर्मन या यूरोपीय रिश्तों के लिए सही तरह का संतुलन देगा."
मैर्केल के बाद के युग की चुनौतियां
लेकिन नई सामरिक नीति को ठोस कदमों में बदलना जर्मनी की अगली सरकार के लिए एक चुनौती होगी, चाहे यह भारत के बारे में हो या इस क्षेत्र के बारे में. जर्मनी को दूसरे यूरोपीय देशों के साथ कदम से कदम मिला कर काम करना होगा. इनमें फ्रांस का विशेष स्थान है और उसकी एक अपनी इंडो-पैसिफिक सामरिक नीति भी है.
सचदेवा ने डीडब्ल्यू को बताया कि "दो कारणों की वजह से फ्रांस के पास निस्संदेह रूप से नेतृत्व की भूमिका अदा करना का अवसर होगा. एक जर्मनी से मैर्केल की टक्कर का एक और नेता निकलने में अभी समय लगेगा. दूसरा, भू-राजनीतिक मामलों में और ज्यादा सक्रिय होने का यूरोपीय संघ का जो विचार है वो एक तरह से संघ के स्वरूप के बारे में फ्रांस के विचारों से मेल खाता है."
डीजीएपी के समीक्षक विल्किंस और पार्केस इस बारे में थोड़े कम आशावान हैं. उन्होंने यूरोपीय संघ और भारत के बीच मई में हुई शिखर वार्ता के बाद लिखा था, "ब्रसल्स नई दिल्ली के लिए एक प्राकृतिक साझेदार नहीं है", क्योंकि नई दिल्ली की "मुख्य रूप से अपने निकटतम पड़ोस में ही दिलचस्पी है."
भारत को इस क्षेत्र में कई चुनौतियों का सामना करना पड़ा है. इनमें पाकिस्तान के साथ उसकी उथल-पुथल भरे ताल्लुकात, चीन के साथ उसकी विवादित सीमा और हाल में अफगानिस्तान का संकट शामिल हैं. इन सभी मोर्चों पर पिछले 20 सालों में भारत ने काफी निवेश किया है.
भारत में मानवाधिकारों पर सवाल
इसके अलावा भारत में मानवाधिकारों को लेकर चिंताऐं मैर्केल के बाद के युग में भारत के जर्मनी और यूरोपीय संघ के साथ रिश्तों पर असर डाल सकती हैं. यह चीन के मुकाबले में एक संतुलन देने के सवाल के संदर्भ में भी जरूरी है.
अपनी 2021 की फ्रीडम ऑफ द वर्ल्ड रिपोर्ट में अमेरिकी एनजीओ फ्रीडम हाउस ने कहा कि "लोकतंत्र के उत्साही पक्ष-समर्थक की भूमिका निभाने और चीन जैसे देशों के तानाशाही असर के खिलाफ खड़े होने की जगह मोदी और उनकी पार्टी दुखद रूप से भारत को ही तानाशाही की तरफ ले जा रहे हैं."
यूरोपीय संघ और भारत ने हाल ही में मानवाधिकारों पर बातचीत फिर से शुरू की, जो पिछले सात सालों से रुकी हुई थी. लेकिन मई में कुछ अंतरराष्ट्रीय संगठनों ने यूरोपीय नेताओं से कहा कि वो और आगे बढ़ें और "भारत सरकार द्वारा किए गए मानवाधिकारों के उल्लंघन को लेकर उसकी जवाबदेही स्थापित करें."
एक और मुद्दा जिस पर विवाद हो सकता है यह है कि जर्मनी ने इंडो-पैसिफिक में अपनी सैन्य उपस्थिति का और विस्तार करने का निर्णय ले लिया है. जर्मनी ने लगभग दो दशकों में पहली बार इस क्षेत्र में अपना युद्धपोत उतारा है.
'द बवेरिया' नाम के इस जहाज ने अगस्त में अपनी यात्रा शुरू की थी. उस समय जर्मनी ने इस क्षेत्र में और सक्रिय होने के अपने लक्ष्य पर और "नियम आधारित अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था बनाए रखने की जिम्मेदारी उठाने पर" जोर दिया था.
यह जहाज अगले साल फरवरी में जर्मनी वापस लौटेगा और तब तक संभव है कि मैर्केल के बाद के युग की शुरुआत हो चुकी होगी. (चारु कार्तिकेय, थॉमस स्पैरो)