जर्मन संसद बुंडेसटाग के चुनाव आज
२४ सितम्बर २०१७जर्मनी के समय के अनुसार सुबह 8 बजे से शुरू हुआ मतदान शाम छह बजे तक चलेगा और उसके थोड़ी देर बाद ही नतीजों के रुझान आने शुरू हो जायेंगे. चुनाव की प्रक्रिया आसानी से पूरी करने के लिए सरकारी कर्मचारियों के साथ ही 6 लाख से ज्यादा स्वयंसेवी भी लगे हैं जो लोगों को बैलट पेपर देने से लेकर मतपत्रों को गिनने तक के काम में अधिकारियों की मदद करेंगे.
जर्मनी में चुनाव की सरगर्मी सड़कों पर ज्यादा नजर नहीं आती, लैंप पोस्ट जरूर नेताओं के पोस्टर से भरे पड़े हैं और जगह जगह बड़े कटआउट भी नजर आते हैं, लेकिन नारेबाजी, बड़ी बड़ी रैलियों जैसा बहुत कुछ नजर नहीं आता.
चुनाव से ठीक एक दिन पहले राजधानी बर्लिन के लोग सर्द हवाओं और हल्की बूंदाबांदी के बीच मैराथन की मस्तियों में डूबे नजर आ रहे थे. मैराथन की वजह से जगह जगह सड़कें बंद थी और ऐतिहासिक ब्रांडेनबुर्ग गेट और जर्मन संसद राइष्टाग के पास लोगों का भारी जमावड़ा लगा था, मैराथन के प्रतिभागियों का हौसला बढ़ाने के लिए. अंतिम मुकाबला रविवार को ही है और जर्मनी के बाहर के लोगों को यह भी थोड़ा अटपटा लग सकता है कि ऐन चुनाव के दिन भी राजधानी बर्लिन मैराथन में डूबा है.
जर्मन लोगों की चुनाव में दिलचस्पी बाहर से भले ही नजर ना आए लेकिन अंदर ही अंदर काफी हलचल है. तुर्की, सीरिया, उत्तर कोरिया और अमेरिका से लेकर शरणार्थी, शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार और दूसरे तमाम मुद्दे हैं जिन के आधार पर वोटरों को लुभाने की कोशिश हो रही है.
जर्मन लोगों के लिए इस बार के चुनाव में प्रमुख मुद्दा क्या है? दिल्ली में जवाहर लाल नेहरू यूनिवर्सिटी के सेंटर ऑफ यूरोपीयन स्टडीज की प्रोफेसर और जर्मन मामलों की विशेषज्ञ उम्मु सलमा बावा कहती हैं, "सबसे बड़ी बात है कि तीन कार्यकाल पूरा करने के बाद भी चांसलर अंगेला मैर्केल के सामने नेतृत्व की कोई बड़ी चुनौती नहीं दिख रही है. एसपीडी के मार्टिन शुल्त्स शुरुआत में जरूर थोड़े आक्रामक लगे थे लेकिन अब उनकी स्थिति भी बहुत मजबूत नहीं दिख रही. और चुनाव के लिए दूसरा मुद्दा है शरणार्थी. इस बार के चुनाव में आसार है मतदाता इन्हीं दो मुद्दों पर अपनी राय जाहिर करेंगे.” इन दिनों प्रोफेसर सलमा बावा जर्मनी के दौरे पर ही हैं.
जर्मनी में कई दशकों से रह रहे वरिष्ठ पत्रकार और लेखक आरिफ नकवी का कहना है, "चांसलर मैर्केल ने शरणार्थियों के लिए जर्मनी का दरवाजा खोलने के साथ ही उनके लिए बहुत से काम किये हैं लेकिन इसी बात ने पारंपरिक जर्मन लोगों को नाराज भी किया है, बहुत से जर्मन लोग शरणार्थियों को एक समस्या और अपने संसाधनों का अवांछित साझीदार भी मान रहे हैं, लोगों की नाराजगी जर्मन चुनाव में सत्ताधारी दलों की बड़ी चिंता होगी.”
चुनाव में भले ही 40 से ज्यादा पार्टियां हिस्सा ले रही हैं लेकिन मुख्य मुकाबले में सात पार्टियों का ही दबदबा है. सत्ताधारी सीडीयू और उसकी बवेरियाई सहयोगी पार्टी सीएसयू, समाजवादी एसपीडी, उदारवादी एफडीपी, धुर दक्षिणपंथी एएफडी, लेफ्ट पार्टी डी लिंके और पर्यावरणवादियों की ग्रीन पार्टी.
चुनावी सर्वेक्षणों में सत्ताधारी सीडीयू और सीएसयू 34 फीसदी वोटों के साथ सबसे आगे बतायी जा रही है जबकि मौजूदा सत्तादारी गठबंधन में शामिल एसपीडी के 21 फीसदी मतों के साथ दूसरे नंबर पर रहने की उम्मीद जतायी गयी है.
इस वक्त सबकी निगाहें तीसरे नंबर पर आने वाली पार्टी पर टिकी हैं. 2013 से अस्तित्व में आयी अल्टरनेटिव फॉर डॉयचलैंड को 13 फीसदी मतों के साथ तीसरे नंबर पर रहने की बात सर्वेक्षणों में कही जा रही है. अगर सर्वेक्षण सच साबित हुए तो यह पार्टी राष्ट्रीय संसद में प्रवेश कर जाएगी और दूसरे विश्वयुद्ध के बाद यह पहला मौका होगा जब कोई धुर दक्षिणपंथी पार्टी संसद में पहुंचेगी.
जर्मनी में मुख्यधारा की पार्टियों की चिंता सिर्फ इतनी ही नहीं है, हाल में हुए प्रांतीय चुनावों में एएफडी ने चुनावी सर्वेक्षणों को पीछे छोड़ कई राज्य असेंबलियों में अपनी जगह बनायी है और वहां उलट फेर किया है. इनमें चांसलर मैर्केल का गृहराज्य भी शामिल है.
एएफडी ने सीडीयू के साथ ही एसपीडी के वोटों में भी सेंध लगायी है और इस वजह से चिंता दोनों खेमों में है. शनिवार को चांसलर अंगेला मैर्केल अपने गृह प्रांत मैक्लेनबुर्ग में रहीं तो उनके प्रतिद्वंद्वी मार्टिन शुल्त्स अपने घर वुरसेलेन के पास आखेन में थे. दोनों ने लोगों से एएफडी को वोट नहीं देने की अपील की है.
पिछली बार के चुनाव में करीब 29 फीसदी लोगों ने वोट नहीं दिया था. इस बार यह आंकड़ा 34 फीसदी रहने की आशंका जतायी जा रही है और विश्लेषकों का मानना है कि अगर ऐसा हुआ तो चांसलर मैर्केल की पार्टी सीडीयू को सीधा नुकसान हो सकता है.
विश्लेषकों का मानना है कि एएफडी के समर्थक गुस्से और जोश में हैं और वे वोट देने जरूर आयेंगे. दूसरी तरफ सीडीयू और एसपीडी के पारंपरिक वोटर तो उनके साथ हैं लेकिन जो वोटर अभी तक अपना मन नहीं बना पाये हैं वे वोट नहीं देने का फैसला भी कर सकते हैं.
उदारवादी एफडीपी को इस बार के चुनाव में पांच फीसदी से ज्यादा वोट मिलने के आसार हैं हालांकि पार्टी एएफडी से पीछे ही रहेगी, ऐसा चुनावी सर्वे बता रहे हैं. पिछली बार के चुनाव में पार्टी पांच फीसदी वोटों की सीमा को नहीं लांघ पायी थी. इस वजह से इसे संसद में जगह नहीं मिल सकी.