जहां उगते हैं हीरे
२९ जुलाई २०१३कार्बन के साथ मिलाकर हीरे के टुकड़े को एक ग्रोथ चैंबर में डाला जाता है. फिर इन्हें एक रिएक्टर में लाया जाता है. इस रिएक्टर का तापमान और दबाव बिलकुल पृथ्वी के गर्भ जैसा होता है. 3,000 डिग्री सेल्सियस और 50,000 एट्मोस्फियर के दबाव में ग्रेफाइट हीरा बनने लगता है.
सिंथेटिक या आम भाषा में अमेरिकन डायमंड बनाने में 82 घंटे लगते हैं. इतने समय में हीरे का छोटा टुकड़ा कच्चा हीरा बन जाता है. इसे एसिड के घोल में डालकर अलग किया जाता है.
अमेरिकी सेना में जनरल रहे कार्टर क्लार्क ने यह तकनीक रूसी वैज्ञानिकों से खरीदी और हीरा बाजार में क्रांति ले आए. एक कैरट का दाम सात से 10 लाख रुपये तक होता है. लेकिन कृत्रिम डायमंड दो लाख रुपयों का भी मिल जाता है. इस कीमती पत्थर के दीवाने इसके कृत्रिम रूप से भी खुश हैं.
और इस खुशी की खास वजह यह है कि प्राकृतिक हीरों और फैक्ट्री में बनाए गए हीरों के बीच फर्क बताना बहुत ही मुश्किल है. केवल एक खास उपकरण से असली हीरे की पहचान होती है.
असली हीरे के अंदर की बनावट ऊबड़ खाबड़ होती है लेकिन कृत्रिम हीरा अंदर से सामान्य दिखता है. कीमती पत्थरों के जानकार इसे भले ही कृत्रिम हीरे की कमी मानें, लेकिन उद्योग जगत सिंथेटिक डायमंड से काफी उत्साहित है.
जर्मनी के उल्म विश्वविद्यालय में एक प्रक्रिया का विकास किया गया है जिससे हर चीज पर हीरे की पतली परत चढ़ाई जा सकती है. मिसाल के तौर पर आंखों के ऑपरेशन के लिए इस्तेमाल किया जाने वाला नैनो स्कैलपल. यह इतना छोटा चाकू है कि इसे गिनीज बुक ऑफ रिकॉर्ड्स में शामिल किया गया है.
अरबों का हीरा बाजार. उद्योग में हीरे की चमक और धार तो काम आती ही है, लेकिन कम पैसे में हीरों के हार का सपना भी सिंथेटिक डायमंड पूरा करता है.
रिपोर्टः महेश झा
संपादनः आभा मोंढे