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सात दशकों बाद भी अलग-थलग है पूर्वोत्तर

प्रभाकर मणि तिवारी
१५ अगस्त २०२०

देश की आजादी के सात दशक बाद भी पूर्वोत्तर के ज्यादातर राज्य खुद को इसका हिस्सा नहीं मान सके हैं. खासकर मणिपुर में तो अलगाव की भावना सबसे ज्यादा है.

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Indien Manipur Natur
तस्वीर: picture-alliance/robertharding/A. Owen

मणिपुर में बहुत से लोग मानते हैं कि राज्य का भारत में जबरन विलय हुआ था. इसी वजह से राज्य के उग्रवादी संगठनों ने एक बार फिर 15 अगस्त के बायकाट और बंद की अपील की. इससे पहले पूर्वोत्तर के आधा दर्जन अन्य ऐसे संगठन भी यही अपील कर चुके थे. स्वाधीनता दिवस के बायकाट का यह सिलसिला भी देश की आजादी जितना ही पुराना है.

पुराना है विवाद

आजादी के बाद अलगाव की इस भावना ने ही इलाके के तमाम राज्यों में उग्रवाद को फलने-फूलने में मदद पहुंचाई है. वह चाहे असम का यूनाइटेड लिबरेशन फ्रंट आफ असम (उल्फा) हो, नागालैंड का नेशनल सोशलिस्ट काउंसिल ऑफ नागालैंड (एनएससीएन) हो या फिर दूसरे दर्जनों संगठन, आम लोगों की इस भावना के दोहन के जरिए ही वे अपनी दुकान चलाते रहे हैं. छोटे-से पर्वतीय राज्य मणिपुर में तो यह भावना सबसे प्रबल है. ऐसे में यह कोई हैरत की बात नहीं है कि पूर्वोत्तर के तमाम राज्यों के मुकाबले सबसे ज्यादा उग्रवादी संगठन इसी राज्य में सक्रिय हैं.

यह तमाम संगठन हर साल स्वाधीनता दिवस के बायकाट की अपील करते रहे हैं. केंद्र और राज्य सरकार के साथ समझौते या शांति प्रक्रिया शुरू होने के बाद उल्फा और बोडो संगठनों ने तो अब अपने पांव पीछे खींच लिए हैं, लेकिन बाकी तमाम संगठन अब भी इसी राह पर चल रहे हैं. यह साल भी अपवाद नहीं है. पहले तो पूर्वोत्तर के छह संगठनों ने साझा तौर पर 15 अगस्त को सुबह छह बजे से 11 घंटे बंद की अपील की. उसके बाद मणिपुर के उग्रवादी संगठनों के दो प्रमुख फोरम ने भी अलग से बंद और बायकाट की अपील कर दी. द कोऑर्डिनेशन कमिटी एंड एलायंस फॉर सोशल यूनिटी कांग्लीपाक के बैनर तले राज्य के कई उग्रवादी संगठन शामिल हैं.

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आंदोलनों के दौरान सड़क की हालततस्वीर: DW/Prabhakar

कमिटी ने राजधानी इंफाल में जारी अपने बयान में कहा, "भारत की आजादी का मणिपुर से कोई लेना-देना नहीं है. हर क्षेत्र में पिछड़े होने की वजह से मणिपुर अब तक विकास की दौड़ में शामिल नहीं हो सका है. भारत से आजादी नहीं मिलने तक राज्य का विकास संभव नहीं है.” कमिटी का दावा है कि 15 अक्तूबर, 1949 को जबरन विलय के बाद से ही मणिपुर भारत का उपनिवेश रहा है. ऐसे में राज्य के लोगों के लिए स्वाधीनता दिवस का कोई मतलब नहीं है.

इससे पहले असम, मणिपुर, मेघालय और त्रिपुरा के छह संगठनों ने भी 15 अगस्त को 11 घंटे बंद और स्वाधीनता दिवस समारोहों के बायकाट की अपील की थी. इनकी दलील है कि इलाके के राज्यों को तो देश का हिस्सा कहा जाता है. लेकिन यहां के लोगों के साथ बड़े पैमाने पर भेदभाव और जातीय हिंसा होती है.

इतिहास

देश की आजादी के करीब दो साल बाद मणिपुर के महाराजा बोधचंद्र सिंह और केंद्र सरकार के प्रतिनिधि वीपी मेनन ने विलय के समझौते पर 21 सितंबर, 1949 को हस्ताक्षर किए थे. 19वीं सदी की शुरुआत तक मणिपुर की संप्रभुता बनी रही. उसके बाद वर्ष 1819 से 1825 तक बर्मा के लोगों ने इस राज्य पर कब्जा रखा था. फिर कई राजाओं ने यहां शासन चलाया. वर्ष 1891 में अंग्रेजों ने मणिपुरी सेना को पराजित कर इस राज्य पर कब्जा कर लिया. देश की आजादी तक यहां अग्रेजों का कब्जा बना रहा. देश आजाद होने के बाद महाराजा बोधचंद्र ने यहां राजकाज संभाला. लेकिन दो साल बाद ही उनको मजबूरन भारत में विलय के समझौते पर हस्ताक्षर करना पड़ा.

सेना से सेवानिवृत्त लेफ्टिनेंट कर्नल एच भुवन ने मणिपुर के भारतीय संघ में विलय पर अपनी पुस्तक मर्जर आफ मणिपुर में लिखा है कि 18 से 21 सितंबर 1949 यानी पूरे चार दिनों तक शिलांग में चली लंबी व थकाऊ बातचीत के बाद महाराजा बोधचंद्र सिंह को जबरन समझौते पर हस्ताक्षर करना पड़ा. सुरक्षा के नाम पर सेना की जाट रेजिमेंट ने महाराज को उनके शिलांग स्थित रेडलैंड्स पैलेस में कैद कर लिया था. मणिपुर की संप्रभुता की वकालत करने वाले लोगों की दलील है कि दबाव या मजबूरी में कोई भी समझौता गैर-कानूनी और कानून की निगाह में अवैध होता है. ऐसे में कैद की स्थिति में जबरन हस्ताक्षर कराने की वजह से मणिपुर के विलय का समझौता भी गैर-कानूनी है. लेफ्टिनेंट कर्नल भुवन ने लिखा है कि महाराजा बार-बार दलील देते रहे कि इस समझौते पर हस्ताक्षर करने से पहले वह मणिपुर लौट कर अपने लोगों और संवैधानिक ढंग से चुनी गई सरकार के साथ इसके प्रावधानों पर विचार-विमर्श करना चाहते हैं. उसके बाद शीघ्र शिलांग लौट कर इस पर हस्ताक्षर करेंगे. लेकिन केंद्र सरकार बार-बार इस पर हस्ताक्षर पर जोर दे रही थी. आखिर महाराजा ने 21 सितंबर को उस पर हस्ताक्षर कर दिया. उस समझौते को 15 अक्तूबर, 1949 से लागू होना था. भारत और मणिपुर के राजा के बीच हुए समझौते के तहत यह राज्य भारतीय संघ के अंतर्गत आया और यहां भारत के प्रतिनिधि के तौर पर  मुख्य आयुक्त की नियुक्ति करते हुए प्रतिनिधि सभा खत्म कर दी गई.

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महिलाओं का बाजारतस्वीर: picture-alliance/dpa/S. Kumar

फाली एस नरीमन ने अपनी पुस्तक 'द स्टेट ऑफ नेशन' में लिखा है कि मणिपुर को पूर्ण राज्य का दर्जा देने की बजाय एक दीवानी राज्य बना दिया गया. इस वजह से राज्य में उक्त विलय के खिलाफ विरोध प्रदर्शन का सिलसिला शुरू हो गया. विरोध प्रदर्शन लंबा खिंचने के बाद वर्ष 1956 में मणिपुर को केंद्रशासित प्रदेश का दर्जा दिया गया.

राज्य के प्रमुख अखबार इम्फाल फ्री प्रेस के पूर्व संपादक और वरिष्ठ पत्रकार प्रदीप फांजोबाम कहते हैं, "केंद्रशासित प्रदेश के दर्जे से भी गतिरोध बना रहा. उसके बाद वर्ष 1963 में 30 सदस्यों वाली क्षेत्रीय परिषद की व्यवस्था की गई. लेकिन उसकी कमान मुख्य आयुक्त के हाथों में ही रही. उसी साल असम को पूर्ण राज्य का दर्जा मिल रहा था. ऐसे में मणिपुर में विरोध और तेज हुआ. आखिरकार मणिपुर को वर्ष 1972 में मेघालय और त्रिपुरा के साथ ही पूर्ण राज्य का दर्जा मिला.”

राजनीतिक पर्यवेक्षकों का कहना है कि देश में मणिपुर राज्य के विलय के बावजूद केंद्र सरकारों का रवैया सौतेला ही रहा. इसी वजह से उग्रवादी संगठनों को पनपने का मौका मिला. ये संगठन अब भी इस राज्य को स्थानीय भाषा में कांग्लीपाक ही कहते हैं. पूर्वोत्तर की राजनीति पर करीबी निगाह रखने वाले एल कुंजम सिंह कहते हैं, "तमाम उग्रवादी संगठन राज्य के लोगों की भावनाओं के दोहन के जरिए लगातार इस मुद्दे को भड़काते रहे हैं. केंद्र में आने वाली तमाम सरकारें भी इसके लिए कम दोषी नहीं हैं. असम राइफल्स औऱ केंद्रीय बलों के कथित अत्याचारों और मानवाधिकारों के हनन के आरोपों ने लोगों की नाराजगी में आग में घी डालने का काम किया है.” पर्यवेक्षकों का कहना है कि फिलहाल राज्य में भले बीजेपी की सरकार हो, विकास के नाम पर अब तक ऐसा कुछ नहीं किया गया है जिससे लोगों के मन में गहरे बसी अलगाव की भावना को दूर करने में सहायता मिल सके. ऐसे में पूर्वोत्तर के लोग फिलहाल खुद को अलग-थलग ही महसूस करते रहेंगे.

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