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समाज

फांसी की सजा से कौन बलात्कारी डरता है

२४ अप्रैल २०१८

भारत में 12 साल से कम उम्र के बच्चों के बलात्कार की सजा फांसी कर दी गई है. सवाल उठ रहे हैं कि क्या फांसी, बलात्कार जैसे अपराधों का स्थायी समाधान है. या सरकारें इन गंभीरताओं की अनदेखी कर रही हैं.

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Gruppenvergewaltigung Proteste in Mumbai 23.08.2013
तस्वीर: picture alliance/AP Photo

फांसी की सजा का एलान, अब निर्णय या कानून कम, ऐसे भयावह मामलों पर आंदोलित जनता को शांत करने के लिए तैयार किया नारा, ज्यादा लगता है. जैसे ही चारों तरफ विरोध और आक्रोश फूटने लगता है, सरकार फांसी की बात कहकर नैतिक क्षतिपूर्ति कर लेती हैं. फांसी की ही बात है तो ये शक्ति तो अदालतों के पास पहले से है. अपराध की ‘दुर्लभ में भी दुर्लभतम' (रेअरस्ट ऑफ रेयर) श्रेणी के तहत वो इस शक्ति का इस्तेमाल करती है. निर्भया मामले में इसी आधार पर ही तो फांसी की सजा सुनाई गई थी. तो फिर नये फरमान में नया क्या है. नया शायद नाबालिगों की उम्र का उल्लेख है. नाबालिगों को ‘12 साल से कम' और ‘12 साल से अधिक' की उम्र मे बांटा गया है. बलात्कार जैसी जघन्यता के लिए ये बंटवारा क्यों करा है, ये समझना कठिन है.

राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो की एक रिपोर्ट के मुताबिक 2016 में पोक्सो कानून के तहत अभियोग की दर 29.6 प्रतिशत थी. बलात्कार के 38,947 में से 94.6 प्रतिशत मामलों में अभियुक्त, पीड़िता का परिचित था. 630 मामलों में बलात्कारी पिता, भाई या दादा या बेटा था, 1087 मामलों में निकट पारिवारिक सदस्य और 2174 मामलों में कोई रिश्तेदार था. 10520 मामलों में बलात्कारी, पड़ोसी था. कई मामलों में पीड़िता अदालत में अपने बयानों से मुकर जाती हैं क्योंकि अभियुक्त उनका निकट रिश्तेदार या परिचित ही होता है. परिवार की इज्जत, लोकलाज, मर्यादा, प्रतिष्ठा जैसे समाज केंद्रित अवरोधों के अलावा वित्तीय तंगहाली भी पीड़ितों को इंसाफ की लड़ाई में अंजाम तक पहुंचने नहीं देती.

Indien Kaschmir Vergewaltigung und Tod einer Achtjährigen
तस्वीर: Reuters/

इन चौतरफा दुश्वारियों में, मौत की सजा का नया फरमान क्या उन्हें यातना और रोज की तकलीफ से मुक्ति दिला पाएगा? क्या ये सजा उनके घाव भर पाएगी? इन सवालों का जवाब ये अध्यादेश नहीं देता. ये एक डर दिखाता है और आक्रोशित लोगों को एक खोखली राहत देता है. यह दरअसल बलात्कार जैसी बर्बरताओं के साथ-साथ समाज में पसरीं अशिक्षा, बीमारी, बेरोजगारी, गरीबी, लाचारी, सांप्रदायिकता जैसी बुराइयों की ओर अग्रसर लड़ाइयों का रुख मोड़ देता है, उन्हें लचीला बना देता है या उन्हे परिदृश्य से पूरी तरह हटा देता है.

आप सोचिए कि क्या बकरवाल समुदाय की एक बच्ची के साथ ऐसी बर्बरता करने की हिम्मत वे कथित सभ्य समाज के मध्यवर्गीय प्रतिनिधि कर पाते, अगर उस घुमन्तु समुदाय को सामाजिक, आर्थिक या सामुदायिक तौर पर कोई दबाव या खौफ न रहता. उन्हें अपनी जगह से और मूल निवासों से उजाड़ने के लिए सुनियोजित और घोषित अघोषित कोशिशें चलती रहती हैं तो वे वलनरेबल होते जाते हैं, उन पर घात लगाना आसान हो जाता है. इसका अर्थ ये नहीं है कि घरों की सुरक्षा में, पढ़ेलिखे नौकरीपेशा समृद्ध वर्गों में या खातेपीते परिवारों में ये अपराध कम हैं. नाबालिग हों या बालिग- महिलाओं पर वर्चस्व और वासना का घिनौनापन, पुरुषों मे हर जगह कायम है. दुनिया में कहीं भी हो, बलात्कार वासना का ही नहीं ताकत की आजमाइश का मर्दवादी हथियार रहा है.

Indien Kochi Protest gegen Vergewaltigung
तस्वीर: Reuters/Sivaram V

स्त्रियों पर अपराधों के खिलाफ व्यापक, बहुआयामी और लंबी कार्रवाई की जरूरत है. कानूनी सक्रियता तो चाहिए ही, कानून व्यवस्था की प्रक्रिया में भी और सुधार करने होंगे. निर्भया कांड के बाद करोड़ों का फंड बना था. लेकिन अपराध तो बढ़ते ही रहे. अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो के मुताबिक 2015 में बलात्कार के 10,854 मामले दर्ज हुए और 2016 में यह संख्या 19,765 पर पहुंच गयी. यानी बलात्कार में 82 प्रतिशत की बढ़ोतरी. पोक्सो के 89 प्रतिशत मामले अदालतों में लंबित हैं. देर से ही सही जस्टिस जेएस वर्मा की अगुवाई में दिसंबर 2012 में एक कमेटी तत्कालीन यूपीए सरकार ने बनाई थी.

जनवरी 2013 में सौंपी अपनी रिपोर्ट में कमेटी ने ‘गर्वनेंस की नाकामी' को बलात्कार की जड़ माना. सरकार और पुलिस के अलावा जनता को भी निष्क्रियता के लिए लताड़ा गया था. जस्टिस वर्मा समिति ने पुलिस संख्या, पुलिस सुधारों, चुनाव और शैक्षिक सुधारों और आपराधिक मामलों पर दंड व्यवस्था, सामाजिक जागरूकता और कानूनी उलझनों को लेकर एक विशद् कार्ययोजना बनाई थी. लेकिन इस पर अमल करने के बजाय हो क्या रहा है. राजनीति न करने की दुहाई और फांसी की सजा का फरमानः किसी बॉलीवुडीय जुमले की तरह, मानो किसी तीन घंटे की फिल्म का रोमांचक हिस्सा!

कठुआ की पीड़िता के मामले को सांप्रदायिक रंग देने की कोशिश की गई, बलात्कारियों के पक्ष में जुलूस निकले और अभियोजन पक्ष की वकील पर हमले हुए और तोहमतें लगीं, और जिस तरह उन्नाव कांड में अभियुक्त एमएलए पुलिस गिरफ्त में कभी लाया ही नहीं जा सका, पीड़िता की बेटी का पिता भी शिकार बन गया और लोग दुबके रह गये- ये सारी घटनाएं बताती हैं कि नागरिक जवाबदेही के तौर पर और प्रशासनिक जवाबदेही वाली लोकतांत्रिक मशीनरी के तौर पर देश को कहां धकेला जा रहा है.

हताश माहौल के बीच हमारे पास फिर क्या बचता है? हम खुद पर और इस देश पर लगे कलंक को कैसे मिटाएं? कैसे हम सही अर्थों में आधुनिक और सभ्य बनें? ये सवाल हर घिनौने कांड के बाद मुंह बाये आकर खड़े हो जाते हैं और हम लोग हमेशा की तरह बुत बने रह जाते हैं या अपनी अपनी कुंठाओं और सीमाओं में विचलित होते रहते हैं या सड़कों पर आंदोलन की धधक में कूद पड़ते हैं.

ये भी सही है कि नया रास्ता इन्हीं स्वीकारों, ग्लानियों, हताशाओं और इन्हीं छोटी छोटी कठिन लड़ाइयों से ही निकलेगा. सरकारें कानून बनाकर फर्जअदायगी की चादर ओढ़ लेंगी लेकिन नागरिक अपनी पुकारों में और समवेत लड़ाइयों और जागरूकताओं में हालात को बुनियादी रूप से बदलने का काम करते रह सकते हैं. वहीं से फिर आगे चलकर कोई ऐसी नीति या ऐसा संदेश निकल सकता है जो बर्बरताओं पर निर्णायक कार्रवाई कर सके. समाज के मोर्चे पर ही व्यापक अभियान छेड़ने होंगे. वर्चस्व की गांठ सबसे पहले तोड़नी होगी, पुरुष को श्रेष्ठतर मानने के छद्म को उजागर करना होगा, परिवार के भीतर, जन्म से ही लड़की के खिलाफ जो ‘अदरिंग' की प्रक्रिया धीरे धीरे और अदृश्य रूप से शुरू हो जाती है- उसे चिंहित कर खत्म करना होगा.

स्त्रियां सेकंड सेक्स नहीं हैं. समाज और परिवार के माहौल को कामांधों के कब्जे से छुड़ाना होगा. सेक्स एक स्वाभाविकता बन कर रहे- उस पर आंखे तरेरने या मुंह फेरने से बचिये, वर्जना तोड़िए. उस पर चटखारे लेना बंद कीजिए. औरतों का कमोडिफिकेशन बंद कीजिए. ‘होममेकर' और ‘वर्किंग वुमन' की आड़ में खुद को बहलाना मत कीजिए. पितृसत्तात्मक बनावट को तोड़कर ही हम एक स्वस्थ समाज बना पाएंगे, वरना तो अपनी ही स्त्रियों और बच्चियों पर जहांतहां झपटते रहेंगे.

ब्लॉगः शिवप्रसाद जोशी