बर्लिन से वापस अफ्रीका लाई जाएंगी खोपड़ियां?
१५ सितम्बर २०२३जर्मन उपनिवेश रह चुके पूर्व अफ्रीका से मानव खोपड़ियों के मूल की जांच परियोजना खत्म हो चुकी है. इस जांच का निष्कर्ष ये है कि करीब करीब सभी मानव अवशेष एक ही उपनिवेश क्षेत्र के हो सकते हैं. 1135 अवशेषों की जांच की गई थी, उनमें से 904 खोपड़ियां आज के रवांडा के इलाकों की है, 202 तंजानिया और 22 केन्या की. डीएनए की मदद से खोपड़ियों का विश्लेषण करने के बाद वैज्ञानिकों ने बर्लिन के शारिटे अस्पताल में मौजूद अवशेषों में से तीन के जीवित परिजन भी ढूंढ निकाले हैं.
करीब 7700 खोपड़ियों का यह संग्रह, 2011 में प्रशियन कल्चरल हेरिटेज फाउंडेशन (एसपीके) के अस्पताल से उठाया गया था. खोपड़ियों की छानबीन के लिए 2017 में शुरू हुए इस प्रोजेक्ट में बर्लिन के प्रागैतिहास और प्रारंभिक इतिहास का संग्रहालय, रवांडा के वैज्ञानिकों के साथ मिलकर काम कर रहा था. संग्रहालय की देखरेख करने वाली फाउंडेशन, एसपीके के अध्यक्ष हरमन पारसिंगर, इन निष्कर्षों को "एक छोटा सा चमत्कार" बताते हैं. वो कहते हैं कि "परिजनों की लोकेशन ढूंढ निकालना भूसे के ढेर में सूई खोज लेने जैसा है."
अफ्रीका में अभी भी हैं औपनिवेशिक कानून
आठ खोपड़ियों के लिए शोधकर्ताओं ने बहुत सारी सूचना जमा की जिसकी बदौलत जीवित वंशजो की तलाश का मुश्किल काम और आसान हो गया. इसके लिए शोधकर्ताओं ने बर्लिन पोस्टकॉलोनियल के साथ साझेदारी की. यह संगठन बर्लिन को उसके नस्लवादी औपनिवेशिक अतीत से मुक्त कर डिकॉलोनाइज कराने का आंदोलन कर रहा है. टीम ने संभावित वंशजों की सलाइवा (लार) के नमूनों का डीएनए, आनुवंशिक डाटा से मैच करवाया.
अपनी वेबसाइट पर अवशेषों के मूल का उल्लेख करते हुए बर्लिन पोस्टकॉलोनियल ने कहा कि, "मानव अवशेषों से आशय, मार डाले गए अफ्रीकियों के अवशेषों से है जिन्हें कॉलोनियल दौर में नस्लभेदी, छद्म-वैज्ञानिक उद्देश्यों के लिए जर्मनी लाया गया था."
उद्गम की तलाश की ये रिसर्च अब प्रकाशन के रूप में उपलब्ध है, "ह्युमन रिमेन्स फ्रॉम द फॉर्मर जर्मन कॉलोनी ऑफ ईस्ट अफ्रीका" ( पूर्वी अफ्रीका के पूर्व जर्मन उपनिवेश के मानव अवशेष) शीर्षक से प्रकाशित इस अध्ययन का संपादन, रवांडा यूनिवर्सिटी में इतिहासकार चार्ल्स मुलिंडा काबवेते और बर्लिन में प्रागैतिहास और प्रारंभिक इतिहास के संग्रहालय के क्युरेटर बर्नहार्ड हीब ने किया है. यह शोध अपने मूल निवास वाले देश में मानव अवशेषों को वापस भिजवाने का आधार मुहैया कराता है.
'पूर्वजों को दफन करने का मौका नहीं दिया गया'
इस सप्ताह एक बयान में हरमन पारसिंगर ने कहा कि "इस शोध का स्पष्ट उद्देश्य ये था कि मानव अवशेषों को उनके संबद्ध देशों के हवाले कर दिया जाएगा. हम लोग इस काम को तत्काल करने को तैयार हैं और बस अब मूल निवास वाले देशों से हरी झंडी का इंतजार कर रहे हैं."
उपनिवेशीकरण विरोधी अभियान से जुड़े लोगों की ये लंबे समय से मांग रही है जर्मन उपनिवेशों से बर्लिन लाई गईं तमाम चीजें चाहें वो लूट की नायाब कला वस्तुएं हों या मानव अवशेष, तमाम चीजें स्वदेश को लौटाई जानी चाहिए.
फ्रांस लौटाएगा लूटी हुई कलाकृतियां
शहर के नस्लभेदी औपनिवेशिक विरासत के दाग पोंछने को समर्पित, डिकॉलोनाइजिंग बर्लिन नाम के एक अन्य संगठन के, ब्लैक पीपल इन जर्मनी अभियान की सह-संस्थापक जेनीन कंटारा ने औपनिवेशिक दौर के मानव अवशेषों पर तैयार एक रिपोर्ट में कहा, "जर्मनी के उपनिवेश काल में जिन लोगों की हत्या हुई थी या जिनका अपहरण किया गया था, उनके अवशेषों को वापस लाने भर से वे अपराध कम नहीं हो जाते." इस रिपोर्ट का शीर्षक है "हम उन्हें वापस चाहते हैं."
कंटारा कहती हैं, "लेकिन आज के जर्मनी की ओर से ऐतिहासिक पुनर्मूल्याकंन, जिम्मेदारी स्वीकार करना और अफसोस जताने की दिशा में यह एक महत्वपूर्ण कदम है."
बर्लिन पोस्टकॉलोनियल की सह-संस्थापक और तंजानिया में पैदा हुई एक्टिविस्ट नियाका सुरुरु एम्बोरो ने 2018 में डीडब्ल्यू को बताया कि "जिन बहुत से लोगों को मैं जानती हूं उनके लिए ये एक भयानक अहसास है कि उन्हें अपने पूर्वजों को गरिमापूर्वक दफन करने का मौका भी नहीं मिला."
2011 से 2104 के बीच बर्लिन के शारिटे अस्पताल ने नामीबिया को बहुत सारी हेरेरो खोपड़ियां वापस की थीं, उसके बावजूद जर्मन संग्रहालय अपने काले औपनिवेशिक अतीत के अवशेषों को अनदेखा करत रहे जो उन्होंने दशकों से अपने आर्काइव्स में जमा किए हुए थे.
स्याह औपनिवेशिक अतीत
एसपीके एक बयान के मुताबिक ज्यादातर अवशेष कब्रों से मिले थे जैसे कि कब्रगाह या फिर वो गुफाएं जिनमें लोगों को दफनाया जाता था लेकिन इनमें से कुछ उन जगहों के भी हैं जहां लोगों को मौत की सजा दी जाती थी.
कुछ चुनिंदा मामलों में जर्मन औपनिवेशिकों के हाथों मौत की सजा देने के भी सबूत हैं अब वो या तो तथाकथित उग्रवादी हों या फिर खेतिहर मजदूर.
इंसान के अवशेषों पर वैज्ञानिक शोध करने की सच्चाई को 2023 में आई फिल्म, "डेयर फरमेशेने मेंश" ने दोबारा से जिंदा कर दिया. यह इस मुद्दे पर बनी पहली जर्मन फिल्म है.
इस फिल्म में एक काल्पनिक युवा जर्मन मानवजातिविज्ञानी रिसर्च ट्रिप पर दक्षिण पश्चिमी अफ्रीका के जर्मन उपनिवेश यानी नामीबिया में जाता है और फिर कथित "नस्लभेदी शोध" के लिए इंसानी खोपड़ियां जमा करना शुरू करता है. उधर बर्लिन की फ्रीडरीष विल्हेम यूनिवर्सिटी यानी वर्तमान के हुम्बोल्ट युनिवर्सिटी के एक लेक्चर हॉल में वैज्ञानिक जर्मन और अफ्रीकी कंकालों की खोपड़ियों की नाप ले रहे हैं. एक छद्म-वैज्ञानिक, विकासवादी नस्लभेदी सिद्धांत पढ़ाई जा रही है जो इस आधार पर टिकी है कि एक जर्मन यानी "बर्लिन वर्कर" की खोपड़ी अफ्रीकी "बंजारे" से ज्यादा बड़ी है. इन तुलनाओं का मकसद यह बताना है कि जर्मन ज्यादा बुद्धिमान हैं. यह सिद्धांत औपनिवेशिक युग में प्रचलित था और काफी लंबे समय तक बना रहा.
2007 से बर्लिन पोस्टकॉलोनियल के बोर्ड सदस्य रहे क्रिश्टियान कॉप का कहना है कि जर्मनी के औपनिवेशिक अन्यायों की भरपाई चुराए गए मानव अवशेषों की वापसी पर निर्भर करेगी. कॉप ने कहा, "मेरे लिए, औपनिवेशिक दौर में जिन पूर्वजों का आपहरण किया गया वह इस शहर के औपनिवेशिक नस्लभेदी विरासत का सबसे असहनीय हिस्सा है. हम उन्हें वापस चाहते हैं. पूर्वजों को संभालना सचमुच बर्लिन की अपने औपनिवेशिक अतीत से निपटने की सच्ची इच्छा का