बहाई लोगों का दमन ईरान की सरकारी नीति है
९ मार्च २०२१दो पन्ने के इस दस्तावेज में विस्फोटक जानकारी है. विशेषज्ञ मान रहे हैं कि यह दस्तावेज बीते साल 21 सितंबर को ईरान के शहर सारी में हुई एक बैठक की रिपोर्ट है. इस बैठक में कई प्रांतीय विभागों के वरिष्ठ अधिकारी जमा हुए थे. इस दौरान ईरान के सबसे बड़े गैर इस्लामी धार्मिक अल्पसंख्यकों के खिलाफ दमन की नीति चलाते रहने पर सहमति बनी.
बहाई समुदाय 19वीं सदी में इस्लाम से निकली एक धारा है. आज दुनिया भर में इस धर्म को मानने वाले 50 लाख से ज्यादा लोग हैं. दिल्ली का विख्यात लोटस टेंपल इसी समुदाय के लोगों का प्रार्थना स्थल है. डीडब्ल्यू के लिखित सवाल के जवाब में जर्मन सरकार के मानवाधिकार आयुक्त ने बताया कि अपने वतन में ही बहाई लोग, "मानवाधिकार और राजनीतिक अधिकार के मामले में सबसे बुरा बर्ताव झेलने वाले अल्पसंख्यक हैं. उन्हें एक विधर्मी राजनीतिक समूह के रूप में देखा जाता है और यही सोच कर उनका दमन किया जाता है."
सरकार की दया पर आश्रित
ईरान में इनका दमन ऐसा लगता है कि सरकार की आधिकारिक नीति है. डीडब्ल्यू को मिले दस्तावेजों से साफतौर पर यह नतीजा निकाला जा सकता है. इन दस्तावेजों के मुताबिक ईरान की 19 एजेंसियों के प्रतिनिधि एक बैठक में शामिल हुए. जिनमें खुफिया और पुलिस विभाग के साथ ही व्यापार, वाणिज्य और शिक्षा विभाग भी शामिल हैं. यह बैठक उत्तरी प्रांत माजांदारन में जातीय, सांप्रदायिक और धार्मिक मामलों के आयोग ने बुलाई थी. इस बैठक का लक्ष्य था, "पथभ्रष्ट बहाई समुदाय के भटके हुए आंदोलन पर नियंत्रण करना."
बहाई समुदाय के लोगों के आधिकारिक दमन के बारे में डीडब्ल्यू की ओर से पूछे गए सवाल का बर्लिन में ईरानी दूतावास ने कोई जवाब नहीं दिया. डीडब्ल्यू ने इस दस्तावेजों को लंदन में मौजूद अल्पसंख्यक अधिकार समूह (एमआरजी) से भी साझा किया. यह संगठन ईरान में भी सक्रिय है. एमआरजी के कार्यकारी निदेशक जोशुआ कास्टेलिनो का कहना है कि बैठक के दस्तावेज हैरान करने वाले हैं, "इनसे पता चलता है कि एक संगठित रणनीति चलाई जा रही है जिसमें सरकार के अधिकारी कई एजेंसियों को बहाई समुदाय के लोगों के दमन के लिए आदेश दे रहे हैं."
बर्लिन में यूरोपीय सेंटर फॉर कांस्टीट्यूशनल एंड ह्यूमन राइट्स से जुड़े वोल्फगांग कालेक का कहना है कि संयुक्त राष्ट्र की कई एजेंसियां भी बहाई समुदाय के साथ बड़े पैमाने पर हो रहे भेदभाव पर नजर रख रही हैं. इस संस्था ने भी इन दस्तावेजों को देखा है. कालेक के मुताबिक ईरान आमतौर पर इन आरोपों को टाल देता है. कालेक के मुताबिक, "ईरान इसके उलट ईरानी समाज में कई ऐसे गुटों और प्रवृत्तियों की तरफ इशारा करता है जो बहाइयों को आक्रामक मानते हैं." कालेक ने यह भी कहा, "लेकिन अब इन नए दस्तावेजों से पता चल रहा है कि कम से कम प्रांतीय स्तर पर ऐसे दूरगामी निर्देश जारी किए जा रहे हैं जिनसे बहाई समुदाय को सार्वजनिक जीवन से बाहर करने के लिए दबाव बनाया जा सके."
जमीन पर कब्जे को कोर्ट की मंजूरी
जमीनी स्तर पर इन निर्देशों का क्या मतलब है यह जानने के लिए हम माजांदारन प्रांत के इवेल गांव में पहुंचे. कई मायनों में यह गांव दूसरे गांवों जैसा ही दिखता है. फर्क बस इतना है कि यह ईरान में सबसे पुराने बहाई समुदाय के लोगों का घर है. यानी यह तब तक उन लोगों का घर था जब तक कि इवेल में उनके घरों को तोड़ कर, उनकी जमीन और खेत छीन कर उन्हें यहां से भगा नहीं दिया गया. उनको यहां से भगाने का सिलसिला 1983 में इस्लामिक क्रांति के कुछ ही सालों बाद शुरू हुआ. ट्रक और बुल्डोजर यहां आए और 50 घरों को तहस नहस कर दिया गया. अभी कुछ ही महीने पहले यहां की जमीनों के अधिग्रहण को कोर्ट ने वैध घोषित किया है. यानी कि उस बैठक के कुछ ही महीने बाद जिसके दस्तावेज डीडब्ल्यू को मिले हैं.
फरवरी के आखिरी महीने में बहाई समुदाय ने सोशल मीडिया पर इस मुद्दे को उठाया और #ItstheirLand के जरिए लोगों का ध्यान इस ओर खींचा कि जब्त की गई जमीनें और संपत्ति उनकी है. इस विरोध की गूंज पूरी दुनिया में सुनाई पड़ी. मानवाधिकार आयुक्त कोफलर मानते हैं कि कोविड-19 की महामारी ने "बहाई समुदाय के साथ राजनीतिक, आर्थिक और सामाजिक भेदभाव को और ज्यादा बढ़ाने में" भूमिका निभाई है. जर्मन सरकार की अंतरराष्ट्रीय धार्मिक स्वतंत्रता के बारे में दूसरी रिपोर्ट बीते अक्टूबर में आई थी. इसमें कहा गया है कि ईरान के बहाई समुदाय के तकरीबन 3 लाख लोगों को सामूहिक रूप से विधर्मी बता कर उन्हें देश के लिए खतरा कहा जा रहा है.
मौत के बाद भी भेदभाव
दर्शनशास्त्र के प्रोफेसर हाइनर बिलेफेल्ट ने डीडब्ल्यू को बताया कि बहाई समुदाय के लोगों को फांसी भी दी गई है. खासतौर से इस्लामिक रिपब्लिक के शुरुआती सालों में. बिलेफेल्ट 2010 से 2016 तक संयुक्त राष्ट्र के फ्रीडम ऑफ रिलीजन ऑर बिलीफ के स्पेशल रिपोर्टर थे और उनका फोकस बहाई समुदाय पर ही था. उन्होंने अपनी रिपोर्ट में बताया कि बहाई समुदाय को हर क्षेत्र में दमन का सामना करना पड़ रहा है, "यहां तक कि यह उनकी मौत के बाद भी जारी रहता है, इसमें उनकी कब्रों को रोलर का इस्तेमाल कर तहस नहस करना भी शामिल है. यह सिर्फ कब्र पर लगे पत्थरों को हटाने की बात नहीं है बल्कि जमीन पर से पूरी की पूरी कब्र को हटाने की बात है." बिलेफेल्ट बताते हैं, "यह व्यवस्थित तरीके से जीवन के हर क्षेत्र में सरकार समर्थित दमन है. इसका मकसद बहाई धर्म को जड़ से उखाड़ना और खत्म करना है."
हालांकि उन्होंने इस ओर भी ध्यान दिलाया कि ऐसे भी लोग हैं जो ईरानी समाज में तो रह रहे हैं लेकिन आधिकारिक रुख के साथ नहीं हैं. बिलेफेल्ट ने कहा, "हम जो देख रहे हैं वो सरकारी अधिकारियों के जरिए बहुत कठोर दमन देख रहे हैं जो जरूरी नहीं है कि सामाजिक दमन के साथ साथ चलता हो." यह बात शिया मौलवी हसन यूसेफी एशकेवारी के संदर्भ में कही गई जो फिलहाल जर्मनी में निर्वासित जीवन बिता रहे हैं. उन्होंने इवेल में जमीन के अधिग्रहण के खिलाफ विरोध को अपना समर्थन दिया है.
ईरान में धार्मिक स्वतंत्रता नहीं
इसके साथ ही बिलेफेल्ट ने यह भी कहा कि बहाई लोग इतने दबाव में जीने के बावजूद ना सिर्फ अपने लिए बल्कि दूसरों के अधिकार के लिए भी संघर्ष कर रहे हैं. संयुक्त राष्ट्र की मानवाधिकार परिषद के एक सत्र में साफ तौर पर कहा गया, "बहाई समुदाय के प्रतिनिधि ने जेनेवा में सऊदी अरब और दक्षिण एशिया के कुछ हिस्सों में अल्पसंख्यक शिया समुदाय के साथ होने वाले दमन के बारे में बात की."
शिया बहुल आबादी वाला ईरान खुश नहीं है. कोफलर का कहना है, "ईरान धार्मिक स्वतंत्रता के अधिकारों का अनादर करता है, जिसकी संयुक्त राष्ट्र के नागरिक और राजनीतिक अधिकारों के अनुबंध पर दस्तखत करके उसने रक्षा करने की शपथ ली है." यह 1975 की बात है यानी इस्लामिक क्रांति के चार साल बाद की. हालांकि ईरान का आज का संविधान धार्मिक स्वतंत्रता के अधिकार को नहीं मानता. शिया इस्लाम के साथ उसने कुछ अल्पसंख्यकों को सहन करने वाले धर्म की सूची में शामिल किया है लेकिन उसमें ईसाई और यहूदी तो हैं बहाई नहीं.
__________________________
हमसे जुड़ें: Facebook | Twitter | YouTube | GooglePlay | AppStore