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बाल दिवस वाले देश में तीन लाख मौतें अकाल

Priya Esselborn७ मई २०१३

भारत में हर साल तीन लाख से ज्यादा शिशु एक दिन की जिंदगी भी नहीं देख पाते. वो जन्म के 24 घंटों के भीतर ही दम तोड़ देते हैं. इन मौतों के लिए राजनीतिक इच्छाशक्ति की कमी और लापरवाही से होने वाले इंफेक्शन जिम्मेदार हैं.

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तस्वीर: picture-alliance/dpa

सेव द चिल्ड्रेन संस्था की वर्ल्ड्स मदर्स रिपोर्ट के मुताबिक भारत में 3,00,000 से ज्यादा शिशुओं की मौत ऐसे संक्रमण की वजह से होती है, जिससे बचाव किया जा सकता है. दुनिया भर में जन्म के पहले ही दिन जितने शिशु दम तोड़ते हैं, उनमें से 29 फीसदी मौतें भारत में होती है. पाकिस्तान और बांग्लादेश आर्थिक रूप से काफी पिछड़े हैं, लेकिन वहां भी भारत जितने शिशु नहीं मरते. बांग्लादेश में जन्म के 24 घंटों के भीतर 28,000 और पाकिस्तान में 60,000 मासूम मौत का निवाला बनते हैं. नवजातों की मौत के लिहाज से भारत की हालत अफ्रीका के अति पिछड़े देशों जितनी खराब है.

चैरिटी संस्था सेव द चिल्ड्रेन के दक्षिण एशिया के निदेशक माइक नोवेल कहते हैं, "प्रगति हुई है लेकिन अब भी भारत, पाकिस्तान और बांग्लादेश में हर दिन 1,000 से ज्यादा बच्चे जिंदगी के पहले ही दिन मौत के मुंह में चले जाते हैं, वो भी ऐसे कारणों की वजह से जिन्हें रोका जा सकता है."

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अस्पताल में लंबा इंतजारतस्वीर: NAZO

रिपोर्ट में इन मौतों के लिए तीन मुख्य कारण बताए गए हैं. इनमें, प्रसव के दौरान आने वाली दिक्कतें, समय से पहले जन्म व इंफेक्शन और जीवन रक्षा के लिए सस्ती सेवाओं तक पहुंच न होना शामिल हैं. संस्था के मुताबिक अगर इन तीन कमियों को दूर किया जाए तो कम से कम 75 फीसदी शिशुओं को बचाया जा सकता है.

लेकिन इन दिक्कतों को दूर करने के लिए सरकार को कमर कसनी होगी. रिपोर्ट कहती है, "जिस चीज की कमी है वो है राजनीतिक इच्छाशक्ति और सभी मांओं और बच्चों के लिए जरूरी धन की कमी." रिपोर्ट के मुताबिक बीते दो दशकों में शिशुओं की जान बचाने में नेपाल, इंडोनेशिया, बांग्लादेश, चीन, ब्राजील, उत्तर कोरिया, वियतनाम, इरीट्रिया, मेक्सिको, कंबोडिया, उज्बेकिस्तान और अंगोला जैसे देशों ने अच्छी प्रगति की है.

बीते एक दशक के तेज आर्थिक विकास ने भारत को गरीबों के कल्याण पर ज्यादा पैसा खर्च करने के काबिल बनाया है, लेकिन इसके बावजूद जरूरतमंदों को इसका फायदा नहीं मिल रहा है. सेव द चिंल्ड्रेन संस्था के मुताबिक सरकार के कई कार्यक्रम असल में उन लोगों को फायदा पहुंचा ही नहीं पाते जिन्हें इनकी सबसे ज्यादा जरूरत है.

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सुविधाएं सबके लिए नहींतस्वीर: Manjunath Kiran/AFP/Getty Images

आधे से ज्यादा भारतीय महिलाएं कुशल और प्रशिक्षित स्वास्थ्य कर्मचारियों की मदद के बिना ही शिशु को जन्म देती हैं. इस वजह से प्रसव में दिक्कतें आती हैं और संक्रमण का खतरा काफी बढ़ जाता है. दूर दराज के ग्रामीण इलाकों में न तो अस्पताल हैं और न ही डॉक्टर. ऐसे में गांव के लोग कम प्रशिक्षित या स्थानीय महिलाओं (दायी) पर निर्भर रहते हैं.

चकाचौंध से भरे दिल्ली जैसे महानगरों में हालत बहुत अच्छी नहीं है. महानगरों को चमक धमक वाले बड़े निजी अस्पताल तो हैं लेकिन गरीबों को वहां कम ही जगह मिलती है. सरकारी अस्पतालों में भारी भीड़ रहती है. वहां नंबर लगाना और नंबर आना ही बड़ी बात है. दिल्ली में काम करने वाली गायनोकोलोजिस्ट डॉक्टर शर्मिला लाल कहती हैं, "अगर अस्पताल पास में भी हो तो भी महिलाएं घर में ही, अति असुरक्षित माहौल में बच्चे को जन्म देती हैं, जागरुकता की कमी की वजह से."

यही है वह 'सवाल का निशान' जिसे आप तलाश रहे हैं. इसकी तारीख 07/05 और कोड 655 हमें भेज दीजिए ईमेल के ज़रिए hindi@dw.de पर या फिर एसएमएस करें +91 9967354007 पर.
यही है वह 'सवाल का निशान' जिसे आप तलाश रहे हैं. इसकी तारीख 07/05 और कोड 655 हमें भेज दीजिए ईमेल के ज़रिए [email protected] पर या फिर एसएमएस करें +91 9967354007 पर.तस्वीर: Fotolia/Yuri Arcurs

डॉक्टर लाल की मांग है कि सुरक्षित प्रसव के लिए सरकार को प्रशिक्षित पैरामेडिकल स्टाफ का बड़ा जत्था तैयार करना चाहिए. अच्छे ढंग से प्रशिक्षित स्टाफ की वजह से डॉक्टर पर भी काम का बोझ कम पड़ेगा.

आर्थिक विकास के साथ भारत में आय का वितरण भी बिगड़ा है. सेव द चिल्ड्रेन के मुताबिक अगर भारत जैसे विकास कर रहे देशों में अमीरी व गरीबी का अंतर कम किया जाए और आर्थिक विकास के फायदों को समान रूप से बांटा जाए तो हालात बेहद सुधर सकते हैं. रिपोर्ट कहती है, "अगर सभी नवजात को अमीर भारतीय परिवारों के शिशुओं जैसा माहौल मिले तो भारत में हर साल 3,60,000 शिशु जी पाएंगे."

रिपोर्ट: ओंकार सिंह जनौटी (एएफपी)

संपादन: महेश झा

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