भारत की विज्ञापन की दुनिया में होता राजनीतिक ध्रुवीकरण
१६ अक्टूबर २०२०भारत के अलावा अंतरराष्ट्रीय विज्ञापन संगठनों ने भी तनिष्क के विज्ञापन का समर्थन किया है. इंटरनेशनल एडवर्टाइजिंग एसोसिएशन (आईएए) की भारतीय शाखा ने कहा कि अभिव्यक्ति के मौलिक अधिकार को दबाने की कोशिश की कड़े शब्दों में भर्त्सना की जानी चाहिए. ईएए ने सरकार से कड़ी कार्रवाई की मांग भी की. अन्य दो विज्ञापन एजेंसियों- एडवर्टाइजिंग एजेंसीज एसोसिएशन ऑफ इंडिया (एएएआई) और द एडवर्टाइजिंग क्लब (टीएसी) ने भी इस बात पर चिंता जतायी कि तनिष्क और उसके कर्मचारियों को धमकियां मिलने के बाद विज्ञापन हटाना पड़ा. टीएसी के मुताबिक विज्ञापन ने आचार संहिता का पालन किया है, वो किसी व्यक्ति, संगठन या धर्म के खिलाफ अभद्र नहीं है और न ही उसने राष्ट्रीय भावना को चोट पहुंचायी है. विज्ञापन जगत की नियामक संस्था एडवर्टाइजिंग स्टैंडर्स काउंसिल ऑफ इंडिया (एएससीआई) ने भी अपनी जांच में पाया कि विज्ञापन में कुछ भी अश्लील, अशोभनीय या घृणास्पद नहीं था.
क्या तनिष्क ने अपना विज्ञापन कंटेंट जानबूझ कर ऐसा चुना था, उसे तत्काल वापस लेकर क्या उसने सही किया, या इसके भी कुछ कारोबारी और राजनीतिक निहितार्थ थे, इस बारे में कयास लग रहे हैं. वैसे पिछले कुछ वर्षों के दौरान हिंदू-मुस्लिम मिलाप और घनिष्ठता का संदेश देने वाले विज्ञापन आते रहे हैं, खूब सराहे भी गए हैं लेकिन अधिकांश कट्टरपंथियों के क्रोध का निशाना भी बने हैं. यूनीलीवर कंपनी के डिटर्जेंट ब्रांड सर्फ एक्सेल का बच्चों की होली का विज्ञापन ‘रंग लाए संग' पिछले साल आया था और सोशल मीडिया पर खूब वायरल भी हुआ था. 2014 में कौन बनेगा करोड़पति के, पड़ोसी एकता और भाईचारा दिखाने वाले विज्ञापन ने भी ध्यान खींचा था. ब्रुक बॉन्ड रेड लेबल चाय के ‘स्वाद अपनेपन का' विज्ञापन में गणेश की मूर्तियां बनाने वाले मुस्लिम कलाकार और हिंदू ग्राहक के बीच मार्मिक संवाद है. 2014 का इसी ब्रांड का एक और विज्ञापन दो पड़ोसी परिवारों को धर्म और पहनावे से पहले चाय की महक से जोड़ने की कोशिश करता है. 2012 में आइडिया कंपनी का संवाद रहित आकर्षक विज्ञापन आया था जिसमें एक मुस्लिम युवा दिवाली पर अपनी महबूबा को एक गिफ्ट भेजना चाहता है. क्या इस तरह के विज्ञापन सिर्फ ग्राहकों का और आलोचकों का ध्यान खींचने के लिए बनाए जाते हैं या सामाजिक उद्देश्य भी निहित होता है, इस बारे में भी जानकारों की राय बंटी हुई है.
विज्ञापनों में इंसानों को जोड़ने वाला कंटेंट
बेस्टमीडियाइंफो वेबसाइट की एक रिपोर्ट में प्रकाशित कैन्को एडवर्टाइजिंग और एशियन फेडरेशन ऑफ एडवर्टाइजिंग एसोसिएशंस के सदस्य रमेश नारायण का कहना है, "ओगिल्वी के बनाये भारत पाकिस्तान भाईचारे और अपनी जड़ों की तलाश पर बने गूगल ऐड को चौतरफा सराहा गया था. तनिष्क को मिली ये प्रतिक्रिया हमारे समय का एक संकेत है और ट्विटर जैसे मंचों के बढ़ते प्रताप का भी.” इसी रिपोर्ट में मीडिया मॉन्क्स इंडिया के क्रिएटिव हेड करन अमीन कहते हैं कि "स्क्रिप्ट लिखने के लिए धर्म का इस्तेमाल लोगों को मौका दे रहा है इस बारे में बात करने के लिए, ये सकारात्मक भी हो सकता है और नकारात्मक भी, खासकर भारत जैसे देश में जहां धार्मिक विभाजन है.” उनके मुताबिक, "ब्रांड और एजेंसियों को धर्म से रहित कंटेट बनाना चाहिए.” ऐसा कंटेंट जो बगैर किसी धार्मिक पहचान के, किसी भी मनुष्य को प्रभावित करने वाला हो.
पिछले साल जुलाई में भोजन डिलीवर करने वाली ऑनलाइन कंपनी जोमाटो के एक ग्राहक ने ये कहते हुए अपना ऑर्डर कैंसल कर दिया था कि पैकेट डिलिवर करने वाला लड़का गैर-हिंदू था. जोमाटो का काबिलेगौर जवाब था कि खाने का कोई धर्म नहीं होता. कहा जा सकता है कि तनिष्क ने भी अपने कर्मचारियों की सुरक्षा को ध्यान में रखते हुए कदम उठाया. लेकिन तनिष्क कोई साधारण ब्रांड नहीं है और टाटा समूह जैसा दिग्गज औद्योगिक घराना उसके पीछे है. और तमाम विज्ञापन एजेंसियों और संस्थाओं ने उसका खुलकर समर्थन भी किया है. सेलेब्रिटी वर्ग और जागरूक समाज भी पीछे नहीं रहा. जानकारों का मानना है कि जाने अनजाने तनिष्क के फैसले से अराजक तत्वों को और बल मिलता है. सिने जगत पर तो ट्रॉल्स पांव जमाकर बैठे ही हैं, सुशांत रिया मामले से पहले भी हाल के वर्षों में दुनिया इसे देखती आयी है.
नफरती एजेंडा के नाम पर विज्ञापन रोका
एक तरफ तनिष्क कथित रूप से एक साफसुथरे ऐड पर पीछे हट रहा था दूसरी तरफ बजाज ऑटो और पार्ले बिस्किट जैसे समूह नफरती एजेंडा चलाने वाले टीवी चैनलों को आइंदा विज्ञापन न देने का ऐलान कर रहे थे. हो सकता है आने वाले दिनों में कुछ और नाम इस बहिष्कार में शामिल हो जाएं. लेकिन इन घटनाओं के साथ साथ कुछ और तथ्य भी देखने चाहिए जो विज्ञापन, मानहानि, अभिव्यक्ति की आजादी और मीडिया राजनीति से जुड़े हैं. सुशांत मामले पर ‘हाइपर' कवरेज कर रहे एक टीवी समाचार चैनल पर एक ओर अभिनेता सलमान खान के बारे में गरजती टिप्पणियां की जा रही थीं, तो दूसरी ओर दर्शक हैरान थे कि उसी चैनल पर फिल्मी दुनिया के ‘भाई' अपने शो बिगबॉस के विज्ञापन में चिरपरिचित आवाज में लहरा रहे हैं.
न्यूजलॉन्ड्री वेबसाइट में विस्तारपूर्वक बताया गया कि किस तरह प्रमुख टीवी समाचार चैनल जब अपनी रिपोर्टों और स्टूडियो बहसों में चीन की क्लास ले रहे थे उसी दौरान उनकी स्क्रीनों के कोने पर चीनी उत्पादों या चीनी कंपनियों से भागीदारी वाले ब्रांडों के विज्ञापन धड़ल्ले से चल रहे थे. यहां तक कि टीवी चैनलों को विज्ञापनों से पाट देने वाले पतंजलि के बाबा रामदेव भी चीनी सामान के बहिष्कार के साथ अपने उत्पादों का प्रछन्न विज्ञापन करते देखे गए. स्टैटिस्टा वेबसाइट के एक आंकड़े के मुताबिक भारत में विज्ञापन राजस्व 878 अरब रुपये का है. 2022 तक एडवर्टाइजिंग से एक खरब रुपये का कुल राजस्व जमा हो जाने का भी अनुमान है. चीनी सामान के विज्ञापन न दिखें तो शायद कुछ अंतर पड़े. लेकिन सबसे ज्यादा राजस्व कमाने वाला माध्यम टीवी ही है.
विज्ञापन से जुड़ी आचार नीति के कुछ घोषित, अघोषित, बाध्यकारी और कुछ स्वैच्छिक बिंदु हैं. मिसाल के लिए फेयर ऐंड लवली फेसक्रीम को लंबे विवाद के बाद अपना नाम बदलना पड़ा लेकिन नया विज्ञापन भी कमोबेश दिखाता वही है जिसे लेकर इसकी आलोचना होती रही है. आचार नीति पर पूरी तरह से अमल की हिचकिचाहट और अभिव्यक्ति की आजादी पर तंग नजरिये के बीच नीति-नियमों का अनुपालन सुनिश्चित कराने के लिए जिम्मेदार सरकारी, स्वयंसेवी संस्थाएं भी इस मामले में लाचार ही नजर आती हैं. ये तो हम जानते ही आए हैं कि विज्ञापन का सिर्फ उत्पाद या माध्यम से ही संबंध नहीं होता, ऑडियंस से भी होता है. लेकिन आज ऑडियंस सिर्फ विंडो शॉपर, खरीदार या उपभोक्ता नहीं, ऑडियंस उन समूहों की भी बन रही है जो खुद को समाज और नैतिकता का ठेकेदार कहते फिरते हैं. विज्ञापन की राजनीति, सफलता या नैतिकता के आकार पर उठते सवालों के बीच ये भी देखना होगा कि उस पर नजर रखने वाली स्वयंभू नैतिक पुलिस का आकार कैसे बढ़ रहा है!
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