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ममता और माओवादियों की ‘आंख मिचौली’

३० अक्टूबर २०११

पहले माओवादी हथियार डालें या फिर पहले माओवादी असर वाले इलाकों में साझा सुरक्षा बलों का अभियान बंद किया जाए. पश्चिम बंगाल में शांति प्रक्रिया इस सवाल पर अटक गई है.

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तस्वीर: Prabhakar Mani Tewari

ममता बनर्जी की अगुआई वाली राज्य सरकार और जंगलमहल के नाम से कुख्यात राज्य के तीन जिलों-पश्चिम मेदिनीपुर, बांकुड़ा और पुरुलिया में सक्रिय माओवादियों के बीच ‘आंख मिचौली' का एक दिलचस्प खेल चल रहा है. ‘पहले आप, पहले आप' की तर्ज पर सरकार चाहती है कि माओवादी पहले हथियार डाल कर हिंसा बंद करें. माओवादियों का कहना है कि पहले सुरक्षा बलों का अभियान रोका जाए. इस मुद्दे पर बयानबाजियों और धमकियों का दौर तेज हो गया है.

तीन महीने के भीतर माओवाद की समस्या हल करने का वादा कर इस साल मई में सत्ता में आने वाली मुख्यमंत्री ममता बनर्जी के लिए यह समस्या गले की फांस बनती जा रही है. माओवादी न तो उनके बातचीत के न्योते पर कोई प्रतिक्रिया दे रहे हैं और न ही ममता उनके खिलाफ साझा अभियान दोबारा शुरू करने पर कोई फैसला ले पा रही हैं.

माओवादी कभी सशर्त बातचीत और युद्धविराम का प्रस्ताव देते हैं तो कभी तृणमूल कांग्रेस के नेताओं को धमकाने लगते हैं. सत्ता संभालने के पांच महीनों के भीतर हाल में दूसरी बार माओवादी इलाकों का दौरा करने वाली मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने माओवादियों को हिंसा या शांति प्रक्रिया में से किसी एक को चुनने के लिए एक सप्ताह का अल्टीमेटम दिया था. इसकी समयसीमा खत्म होने के बावजूद शांति प्रक्रिया पर गतिरोध जस का तस है. ममता साफ कहती हैं, ‘खूनखराबा और शांति प्रक्रिया एक साथ नहीं चल सकती.'

Paramilitärische Sicherheitskräfte marschieren vor der ersten Phase der Landtagswahlen im indischen Bundesstaat Jharkand
तस्वीर: UNI

ममता का चुनावी वादा

बीती मई में विधानसभा चुनावों में भारी जीत के बाद राज्य की सत्ता संभालने वाली ममता बनर्जी ने तीन महीने के भीतर दार्जिलिंग और माओवाद की समस्या को सुलझाने का दावा किया था. दार्जिलिंग की समस्या तो गोरखालैंड टेरीटोरियल एडमिनिस्ट्रेशन (जीटीए) नामक एक स्वायत्त परिषद के गठन पर हुए तीन तरफा करार के बाद लगभग हल हो गई है. लेकिन पांच महीने से ज्यादा समय बीतने के बावजूद जंगलमहल की समस्या सुलझने के बजाय उलझती ही जा रही है. ममता बार-बार कह चुकी हैं कि माओवादियों को अपनी समस्याओं और मांगों पर बातचीत के लिए हथियार डाल कर आगे आना चाहिए. लेकिन माओवादियों ने उनकी इस अपील पर कभी कोई ठोस जवाब नहीं दिया है. उन लोगों ने इलाके में कई तृणमूल कांग्रेस कार्यकर्ताओं की भी हत्या कर दी है. ममता ने विधानसभा चुनावों से पहले कहा था कि वह सत्ता में आने पर सुरक्षा बलों का साझा अभियान रोक देंगी. अब माओवादी ममता से पहले अपना चुनावी वादा पूरा करने की मांग कर रहे हैं.

आरोप-प्रत्यारोप का दौर

माओवादियों से बातचीत का माहौल तैयार करने के लिए सरकार ने तीन महीने पहले ही एक मध्यस्थ समिति का भी गठन किया था. लेकिन इस समिति के सदस्य असमंजस में हैं. ममता के अल्टीमेटम के बाद यहां उनसे मुलाकात करने वाले समिति के सदस्यों ने बैठक के बाद पत्रकारों से कोई बातचीत करने से साफ इनकार कर दिया. सरकारी सूत्रों का कहना है कि ममता इन मध्यस्थों की भूमिका से भी नाराज हैं. अक्तूबर के पहले सप्ताह में इस समिति के सदस्य और माओवादी एक महीने के सशर्त युद्धविराम पर सहमत हो गए थे. लेकिन उसके बाद आरोप-प्रत्यारोप का दौर शुरू हो गया है. सरकार को यह नहीं सूझ रहा है कि आखिर माओवादियों की मंशा क्या है. वह इस सवाल का जवाब तलाशने में नाकाम रही है कि युद्धविराम के बहाने माओवादी कहीं फिर से संगठित होने का प्रयास तो नहीं कर रहे. सरकार के इस असमंजस की ठोस वजह है. ममता के अल्टीमेटम के बाद माओवादियों ने जंगलमहल इलाके में तृणमूल कांग्रेस नेताओं को धमकी देते हुए पोस्टर चिपकाए हैं. माओवादियों ने कहा है कि ममता पहले अपना चुनावी वादा पूरा करें. जानी-मानी लेखिका और सामाजिक कार्यकर्ता महाश्वेता देवी कहती हैं, "सरकार को उस इलाके में सुरक्षा बलों का अभियान रोकने के बाद ही बातचीत की दिशा में कदम बढ़ाना चाहिए." वह कहती हैं कि शांति प्रक्रिया शुरू करने के लिए कोई समयसीमा तय करना उचित नहीं है.

मध्यस्थों पर सवाल

सरकार की ओर से तय मध्यस्थों की भूमिका पर भी सवाल उठने लगे हैं. खुद मुख्यमंत्री ममता ने उनके कामकाज और मीडिया के सामने बयानबाजी पर नाराजगी जताई है. दूसरी ओर सीपीएम नेता भी शांति प्रक्रिया के तरीके पर सवाल उठा रहे हैं. विधानसभा में विपक्ष के नेता सूर्यकांत मिश्र कहते हैं, "हम सरकार के अगले कदम का इंतजार कर रहे हैं. लेकिन अब तो इस बात पर संदेह होने लगा है कि मध्यस्थ समिति के सदस्य सरकार के प्रवक्ता हैं या माओवादियों के." सीपीएम के प्रदेश सचिव बिमान बसु कहते हैं, "अब ममता ने कम से कम यह तो माना कि माओवादी सचमुच राज्य में सक्रिय हैं. पहले तो वह कहती थीं कि बंगाल में कोई माओवादी नहीं है. सीपीएम ही असली माओवादी है."

माओवादियों के एक बड़े नेता किशनजी ने भी ममता के अल्टीमेटम के लिए उनकी आलोचना की है. एक बयान में उन्होंने कहा है कि सात दिनों का अल्टीमेटम देकर ममता ने शांति प्रक्रिया का रास्ता बंद कर दिया है. पहले सरकार सुरक्षा बलों का अभियान बंद करे. उसके बाद ही इस मामले में कोई पहल हो सकती है.

यहां सरकारी अधिकारियों का एक गुट मानता है कि माओवादी युद्धविराम की पेशकश के जरिए सरकार का ध्यान बंटा कर अपने संगठन को मजबूत करना चाहते हैं. उनका मानना है कि सरकार को इस मामले में फूंक-फूंक कर कदम बढ़ाना चाहिए. माओवादी पहले भी ऐसा कर चुके हैं. मुख्यमंत्री ममता बनर्जी सत्ता संभालने के बाद पहले भी एक बार जंगलमहल इलाके का दौरा कर कई विकासमूलक परियोजनाओं का एलान कर चुकी हैं. उनकी योजना विकास के जरिए आम लोगों से माओवादियों को काटने की है. लेकिन फिलहाल इसमें भी कोई खास कामयाबी नहीं मिली है.

कैसी बढ़ी माओवादी सक्रियता

चार-पांच साल पहले तक बंगाल में माओवादी उतने सक्रिय नहीं थे. लेकिन नंदीग्राम में जमीन अधिग्रहण के आंदोलन के सहारे उन्होंने पड़ोसी राज्य झारखंड से यहां आकर लोगों में अपनी पैठ बनाई. उसके बाद नवंबर 2008 में पश्चिम मेदिनीपुर जिले के सालबनी के पास तत्कालीन मुख्यमंत्री बुद्धदेव भट्टाचार्य के काफिले पर हमला कर उन्होंने इलाके में अपनी मौजूदगी का ठोस सबूत दिया. पुलिस ने वहां स्थानीय लोगों पर जो अत्याचार किए उससे नाराज होकर लोगों ने माओवादियों के समर्थन से पुलिस अत्याचार विरोधी समिति (पीसीपीए) का गठन किया. जून 2009 में राज्य पुलिस ने केंद्रीय सुरक्षा बलों के साथ मिल कर राज्य में माओवादियों के खिलाफ साझा अभियान शुरू किया. उसमें शुरुआती दौर में तो कुछ कामयाबी मिली. लेकिन उसके बाद माओवादी लगातार मजबूत होते गए. उन्होंने बदले की कार्रवाई करते हुए कहीं थानों पर हमले किए तो कहीं घात लगा कर सुरक्षा बलों पर. उस दौरान इलाके में खासकर सीपीएम के भी सैकड़ों लोग मारे गए.

Indien Bürgerkrieg Paramilitärs Naxalites
तस्वीर: AP

उलझती समस्या

राजनीतिक पर्यवेक्षकों का कहना है कि सत्ता संभालने के बाद ज्यादातर मोर्चे पर कामयाबी हासिल करने वाली ममता बनर्जी के लिए माओवाद की समस्या इस कदर उलझती जा रही है कि उनको इससे बाहर निकलने की कोई राह नहीं सूझ रही है. अब सबकी निगाहें इस पर लगी हैं कि अल्टटीमेटम की समयसीमा खत्म होने के बाद सरकार क्या रुख अपनाती है. वैसे, एहतियात के तौर पर राज्य सरकार ने केंद्र से अर्धसैनिक बलों के 20 हजार अतिरिक्त जवानों को भेजने का अनुरोध किया है. पर्यवेक्षक कहते हैं कि कोई भी गुट शांति प्रक्रिया की दिशा में पहल करने को तैयार नहीं है. ऐसे में ‘पहले आप पहले आप' की जिद छोड़ कर कोई भी एक पक्ष आगे कदम नहीं बढ़ाता है तब तक इस गतिरोध से बाहर निकलने की कोई राह नहीं सूझेगी.

रिपोर्टः प्रभाकर,कोलकाता

संपादनः वी कुमार

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