लॉकडाउन में गई नौकरी, अब ड्राइविंग ट्रेनिंग महिलाओं का सहारा
३१ मार्च २०२१एक साल पहले 25 मार्च को भारत भर में लगे लॉकडाउन को एक साल पूरा हो गया. लॉकडाउन का सबसे ज्यादा असर जिस बात पर पड़ा वो था लोगों की नौकरियां. कई सर्वे इस बात की ओर इशारा करते हैं कि लॉकडाउन का जिस वर्ग पर सबसे ज्यादा असर हुआ है वो हैं महिलाएं. और ये तब जब भारत की 50 फीसदी आबादी महिलाओं की है लेकिन इसके बावजूद वर्क फोर्स में महिलाओं की भागीदारी काफी कम है. इस ट्रेनिंग का मकसद है महिलाओं को रोजगार योग्य बनाना.
ट्रेनिंग का हुआ असर, महिलाओं की लगी नौकरी
लॉकडाउन में संघर्ष करने वाली ऐसी 50 अन्य महिलाओं के पहले बैच की ट्रेनिंग इस साल जनवरी-फरवरी में इंदौर के डीटीआई में हुई और अब तक कुछ महिलाओं को ड्राइविंग से जुड़े काम में ही नौकरी मिल चुकी है. इन्हीं महिलाओं में से एक हैं आस-पड़ोस के घरों में खाना बनाकर अपना परिवार चलाने वाली राधिका. लॉकडाउन के बाद राधिका की नौकरी चली गई थी लेकिन अब एक महीने का ड्राइविंग कोर्स करने के बाद मिली नई नौकरी के बारे में वो बताती हैं, "अब मैं रोड पर कार चला सकती हूं, ये इज्जत वाली नौकरी है और यहां नौकरी मिलने से जीवन के संघर्ष में कामयाबी मिल सकती है.”
लॉकडाउन के पहले एयरकंडिशनर सुधारने का काम करने वाली ममता बताती हैं कि उन्हें कारों के शो रूम में नई नौकरी के लिए कल-पुर्जों की देखरेख की जिम्मेदारी मिली है. ममता बताती हैं कि कमजोर आर्थिक हालात के चलते वे पार्ट टाईम काम के रुप में रात में भी ड्राइविंग के काम से पीछे नहीं हटेगी. उनकी शिकायत है कि पार्सल डिलिवरी के काम में महिला होने की वजह से उन्हें मौका नहीं मिल पाता है. उनके साथ ट्रेनिंग लेने वाली भाग्यश्री बताती हैं कि लॉकडाउन के पहले वे ऑटोमोबाइल इंडस्ट्री से जुड़ी थीं लेकिन जॉब छूट गया. अब उन्हें तकनीकी काम की जिम्मेदारी ही मिली है लेकिन ड्राइविंग का काम भी करने से उन्हें गुरेज नहीं है
स्कूल की नौकरी गंवा चुकी पूजा बताती हैं, "लॉकडाउन के बाद नौकरी चली गई और घर में कोई कमाने वाला नहीं है. इसलिए इस जॉब की जरूरत थी. पहले साइकिल चलाती थी और अब कार ड्राइविंग का आत्मविश्वास आया है.” घरेलू परेशानियों की वजह से स्कूल की पढ़ाई से ब्रेक लेने पर मजबूर हुई आफरीन बताती हैं कि "एक महीने की ट्रेनिंग काफी मददगार रही. वे नौकरी मिलने के बाद पढ़ाई को भी जारी रखना चाहती हैं. साथ ही अपने परिवार को भी सपोर्ट करना चाहती हैं.” इन महिलाओं को नौकरी पर रखने वालों में से एक प्रवीण पटेल का मानना है कि महिलाएं भी कार चला सकती हैं इस धारणा को और मजबूत करने के लिए इन महिलाओं को ड्राइविंग की नौकरी पर रखा है.
नए उम्मीदवारों को भी नौकरी की आस
ट्रेनिंग कार्यक्रम के दूसरी बैच में आई महिलाओं में कुछ सिंगल मदर हैं तो कुछ अपने बच्चों का बेहतर भविष्य बनाने आई हैं, कोई अपने मां-बाप का सहारा बनना चाहती हैं तो किसी को मौजूदा स्वरोजगार में जिंदगी गुजर-बसर करने में परेशानी आ रही है और कोई घर के काम-काज के दायरे से बाहर निकलना चाहती हैं. महिला गार्ड का काम कर रही सिंगल मदर तरुणा बताती हैं, "अपनी बेटी को कुछ बनाना चाहती हूं, मैंने एक लड़की को ड्राइवर का काम करते हुए देखा तो काफी प्रेरित हुई. गार्ड की नौकरी में 12 घंटे के सात हजार रुपए मिलते हैं जबकि ड्राइविंग में 8 घंटे के 15 हजार कमा लेते हैं. गार्ड की नौकरी उम्र के हिसाब से सीमित होती है. साथ ही मैं अपनी बेटी को ये सिखाना चाहती हूं कि जिंदगी बिना सहारे के भी जी जा सकती है.”
अपनी बेटी को शूटिंग में गोल्ड मैडल जिताने का सपना संजोने वाली रेखा बताती हैं कि वे किसी पर निर्भर नहीं रहना चाहतीं, "ड्राइविंग ट्रेनिंग से मेरे हाथ में हुनर रहेगा, साथ ही आर्थिक रुप से सक्षम भी बनेंगे.” ई-रिक्शा चलाकर अपनी आजीविका चलाने वाली मोहनबाई बताती हैं कि "इस ट्रेनिंग कार्यक्रम में हिस्सा लेने के लिए वे सुबह दो घरों में काम करने के बाद आ पाती हैं. "ई-रिक्शा चलाती हूं लेकिन इससे घर चलाना मुश्किल हो रहा है. रोज 8 घंटे काम करती हूं और दिन के 300 से 400 रुपये ही कमा पाती हूं. ई-रिक्शा की किश्त महीने की 3500 रुपये भरनी पड़ती है. यहां की ट्रेनिंग से कार चलाने की जॉब मिल जाएगी. ई-रिक्शा से भी अच्छे से कार चलाना सीखना चाहती हूं.”
ट्रांसपोर्ट में भी हाथ आजमाने के सपने
दिशा अपनी दिव्यांग मां के लिए अच्छे इलाज का सपना संजोए इस ट्रेनिंग प्रोग्राम में हिस्सा ले रही हैं. वे कहती हैं, "यहां ड्राइविंग सिखाने का तरीका काफी अच्छा है इसलिए ऐसा लगता है कि मैं भी ड्राइविंग कर सकती हूं.” जबकि अब तक घर के काम-काज की जिम्मेदारी संभाल रही रश्मि अपने बच्चों को अच्छे स्कूल में पढ़ाने के लिए ड्राइविंग सीखने आई हैं. उनका कहना है, "इस ट्रेनिंग से ड्राइवर का जॉब मिल जाएगा वर्ना ई-रिक्शा तो चला ही सकते हैं.”
इस ट्रेनिंग के बाद कुछ महिलाएं माल ढुलाई के वाहनों में भी अपने हाथ आजमाना चाहती हैं. उन्हीं में से एक लक्ष्मी बताती हैं कि "माल ढोने वाली गाड़ी चलाना चाहती हूं. ये हुनर ऐसा है कि कोई भी महिला कमा कर खा सकती है और आत्मनिर्भर बन सकती है.” वहीं अपने पति को ट्रक से एक्सिडेंट में खो चुकी ममता बताती हैं, "पहले गाड़ी चलाने में बहुत डर लगता था लेकिन अब उस डर को निकालकर अपने बच्चों के लिए ये सीख रही हूं. गाड़ी सीखने के बाद मुझे अपने प्रोडक्ट की डिलिवरी करने में किसी की मदद लेने की जरूरत नहीं पड़ेगी. खुद ही माल ढुलाई का काम भी करूंगी.”
आखिर क्या है ट्रेनिंग का मकसद
मध्यप्रदेश के परिवहन आयुक्त मुकेश जैन इस ट्रेनिंग प्रोग्राम के मकसद के बारे में बताते हैं कि इस कार्यक्रम को शुरु करने में आत्मनिर्भरता और महिला सुरक्षा के दो पहलुओं को ध्यान में रखा गया है. वे बताते हैं, "इस प्रोग्राम में जरूरतमंद महिलाओं का ही चयन किया गया है साथ ही पब्लिक को जब महिलाएं, कार या ऑटो चलाते हुए दिखेंगी तो महिलाओं को उसमें बैठने में सुरक्षा की भावना आएगी.” वहीं इस ट्रेनिंग प्रोग्राम की देख-रेख कर रही सहायक क्षेत्रीय परिवहन अधिकारी अर्चना मिश्रा का कहना है कि लोक परिवहन में महिला चालकों की कमी की को दूर करने के लिए ये ट्रेनिंग शुरू की गई. "कौशल विकास विभाग की मदद से यहां एक महीने की नि:शुल्क ट्रेनिंग करवाई जा रही है. जीप, ई-रिक्शा, कार जैसे वाहनों से ट्रेनिंग दी जा रही है.”
ट्रेनिंग संस्थान के प्रभारी अनिल शर्मा को भरोसा है कि "यहां ट्रेनिंग करने के बाद महिलाएं हर तरह की कार चलाने योग्य हो जाएंगी. पंचर होने के हालात में टायर बदलने के साथ साथ कार से जुड़ी तमाम तकनीकी जानकारी भी ट्रेनिंग में दी जाती है. संस्थान में ट्रेनिंग ले रही महिलाओं के लिए लर्निंग लाइसेंस बनवाए गए हैं और एक महीने बाद उनके लिए पक्का ड्राईविंग लाइसेंस भी बनाया जाएगा.” इस सरकारी ड्राइविंग ट्रेनिंग इंस्टीट्यूट में थ्योरी और प्रेक्टिकल ट्रेनिंग के लिए चार ट्रेनर हैं. उन्हीं में से एक कृपाशंकर सक्सेना बताते हैं, "यहां सिम्यूलेटर पर भी ट्रेनिंग दी जाती है. एबीसी यानी एक्सीलरेटर, ब्रेक और क्लच के बारे में जानकारी देते हैं और फिर रोड पर भी ट्रेनिंग दी जाती है. यहां महिलाएं काफी रुचि लेकर ट्रेनिंग ले रही हैं और स्वयं गाड़ी चला लेती हैं.”
वर्कफोर्स में महिलाओं की भागीदारी अब भी कम
भारत में आधुनिक आर्थिक क्षेत्रों में महिलाओं की भागीदारी बहुत ही कम है. पांच-छह सेक्टरों में ही महिलाओं की भागीदारी लेबर मार्केट में ज्यादा है, जिनमें कृषि से जुड़े काम, घरेलू काम-काज, टेक्सटाइल में घर पर करने वाले काम, बीड़ी उद्योग और भवन निर्माण शामिल हैं. इसके मुख्य कारण हैं रोजगार का घर के पास होना, काम करने का लचीला समय और सुरक्षा का एहसास. लेकिन ऐसे ट्रेनिंग कार्यक्रमों के जरिए ज्यादा से ज्यादा महिलाओं को वर्कफोर्स में लाया जा सकता है, खास कर ऐसे पेशों में जहां अभी भी पुरुषों का वर्चस्व कायम है. दिल्ली के अंबेडकर विश्वविद्यालय की प्रोफेसर दीपा सिन्हा कहती हैं कि "महिलाओं को एंड टू एंड सपोर्ट देना जरूरी है. सिर्फ स्किल ट्रेनिंग अच्छी बात है लेकिन उसके साथ ही कई सर्विसेज दिए जाने की जरूरत है, जैसे ई-रिक्शा दिलवाने का प्रबंध करना भी जरूरी है. पूरा सपोर्ट मिलने पर ही लेबर मार्केट में महिलाओं की भागीदारी में इजाफा होता है.”
वहीं अर्थशास्त्र की प्रोफेसर रेखा आचार्य बताती हैं, "महिलाएं अब पुरुष प्रधान पेशों में भी आ रही हैं और परंपरागत धारणाओं को तोड़ रही हैं. रिपोर्ट्स के मुताबिक देश में महिलाओं की वर्कफोर्स में भागीदारी 23.9 फीसदी है अगर ये बढ़कर 50 फीसदी हो जाए तो देश की जीडीपी में भी इजाफा होगा.” जानकार मानते हैं कि इस पूरी प्रक्रिया में महिला पेशेवर ड्राइवरों के प्रति ट्रैफिक पुलिस का सहयोग भी काफी जरूरी है. इंदौर शहर में ट्रैफिक को अपने अनोखे अंदाज में संभालने के लिए मशहूर हुए पुलिस आरक्षक रणजीत सिंह कहते हैं, "महिलाओं को ड्राइविंग सीट पर बैठने के बाद दिमाग में उन विचारों को नहीं आने देना चाहिए जिसमें घर में या समाज में उन्हें किसी बात पर कुछ बोला गया हो, क्योंकि ड्राईवर के हाथों में सवारियों की जिम्मेदारी होती है. साथ ही बिना डर के आत्मविश्वास के साथ ड्राइविंग करना भी जरूरी है.”