विनाश की बारिश के 70 घंटे
२४ जून २०१३किसे अंदाजा था कि इस बार वो प्रलय के साथ हिमालय की बर्फ से ढकी पहाड़ियों पर गिरने वाला है. 14 जून की दोपहर से शुरू हुई छिटपुट बारिश 16 जून को रौद्र रूप ले चुकी थी. मूसलाधार पानी बरसने लगा था और रातों रात उत्तराखंड के चार धामों की यात्रा एक बड़े दुःस्वप्न में बदल जाने वाली थी.
16 जून की रात पानी का एक भीषण बवंडर चुपचाप पत्थरों और पहाड़ियों के नीचे थरथरा रहा है और सैलाब फूट पड़ने के इंतजार में है, इस बात का अंदाजा भला किसे होता. केदार धाम पहुंच जाने के रोमांच में थके हारे यात्री सो गए, कुछ जगते रहे. केदारनाथ धाम को काटने वाले दो नालों के ऊपर होटल और लॉज आदि बने हैं, ज्यादातर लोग वहीं थे, कुछ मंदिर परिसर में थे. कुछ लोग रामबाड़ा में थे, कुछ गौरीकुंड में, कुछ गुप्तकाशी में. आधी रात के बाद धरती कांपने लगी, जोर की गड़गड़ाहट हुई और देखते ही देखते पानी का एक बहुत बड़ा गोला केदारनाथ के पीछे की पहाड़ी से लपकता हुआ मंदिर परिसर की ओर बढ़ा. केदारनाथ के ठीक ऊपर है बासुकी ताल इस बार वही ताल मृत्यु का उद्गम स्थल बन गया.
फिर तो बाढ़ ही आ गई और लोग संभल पाते इससे पहले केदारनाथ धाम शमशान जैसा बन चुका था. हर ओर मलबा, मिट्टी, पत्थर, टूटेफूटे मकान, टीन शेड, सामान, और लाशें. मिनटों में सब कुछ बरबाद हो चुका था. ये सब अविश्वसनीय था. जो लोग जीवित बचकर आए हैं उनका कहना है कि कोई खराब सपना भी इतना बुरा नहीं होता जैसी वो रात थी. लोग बहे जा रहे थे कुछ किसी खंभे या किसी पेड़ की डाल या यहां वहां अटके पाइपों से लटक कर, उनमें फंसकर बच गए लेकिन कई लोगों को सैलाब अपने साथ बहा ले गया. मंदिर का ढांचा जस का तस था और उसके आसपास तबाही का मंजर था.
17 जून की सुबह केदारनाथ और उसके नीचे पूरी केदार घाटी पानी और मौत की चीखों से भर गई थी. उधर उत्तरकाशी के गंगोत्री में भागीरथी नदी और यमुनोत्री में यमुना नदी रौद्र रूप धारण कर चुकी थी. और यही हाल बद्रीनाथ में अलकनंदा नदी का था. प्राकृतिक विपदा के पहले दो दिन तो भौंचक्की राज्य सरकार को हालात समझने में लग गए. आपदा प्रबंधन जैसे नींद से जागा और एक और बेसुध नींद में जा गिरा. प्रभावित इलाकों में हाहाकार मचा था. उत्तरकाशी के इलाकों में सड़कें ऐसे टूट गईं थी जैसे उन्हें किसी ने काट डाला हो. मकान की जगह मलबा था. नदी अपने किनारे तोड़ती हुई मकानों की नींवों से टकराने लगी और मकान ढहने लगे. इतना कल्पनातीत नजारा था जैसा फिल्मों में कोई कम्प्यूटर जनित दृश्य हों. नदी का तेज बहाव यात्रा के लिए जा रहे वाहनों को बहाता ले गया. जो लोग जा रहे थे और जो लोग लौट रहे थे वे कहीं नहीं पहुंचे कहीं नहीं लौटे. उत्तरकाशी के जोशियाड़ा में स्थानीय कारोबारियों और होटल मालिकों की कमर ही टूट गई है. इमारत की इमारत गिर कर पानी में समा गईं हैं और अब ऐसा लग रहा है कि यहां कभी रिहाइश ही न रही होगी. आप सिर्फ अंदाजा लगा सकते हैं. केदार घाटी में केदारनाथ परिसर, रामबाड़ा, गौरीकुंड, गुप्तकाशी, अगस्त्यमुनि और फाटा और इन इलाकों के बीच पड़नेवाली कई नामालूम जगहें पानी में समा गईं. हालत इतने दहलाने वाले थे कि आफत के एक सप्ताह बाद भी उफनती नदी के साथ साबुत लाशों के अलावा किसी के हाथ किसी के पांव बहते हुए आ रहे थे. केदारनाथ में पूजा अर्चना कर गुजर बसर करने वाले नजदीकी लम्गोड़ी, बामणी और रवि गांव के कई पुरुषों की जानें चली गईं. उनके परिवारों में मातम और कोहराम और स्त्रियां बची रही गई हैं.
ऊपर केदारनाथ में मंदिर का मुख्य हिस्सा ही सुरक्षित बचा है. बड़े बड़े बोल्डर जो विकराल बहाव में बहते हुए आए हैं, वे एक तरह से मंदिर के लिए ढाल बन गए लेकिन केदारनाथ के दोनों तरफ बहते नालों को मौत और बरबादी की नहर में तब्दील कर गए. उधर बद्रीनाथ से चंद किलोमीटर पहले लामबगड़ के पास सड़क तबाह हो चुकी है. गोविंदघाट का सपाट पार्किग स्थल वाहनों और दुकानों से अटा पड़ा था. अब ये वाकई बदकिस्मती का घाट बन गया है. अलकनंदा ने लोगों को, मकानों को, पुलों और सड़कों को, दुकानों को, वाहनों को और अपने किनारों को देखते ही देखते निगल लिया. गोविंदघाट से हेमकुंड की ओर निकलने वाली पहाड़ी का रास्ता टूट गया है. घांघरिया में पुल बह गए हैं और लोगों को रस्सियों के सहारे सेना के जवानों ने निकाला है. हालात की गंभीरता का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि केंद्रीय गृह मंत्री सुशील कुमार शिंदे को देहरादून में 24 घंटों के लिए कैंप करना पड़ा. हालांकि शिंदे को देहरादून पहुंचकर स्थिति को भांपने में करीब एक सप्ताह का वक्त लग ही गया. विभीषिका इतनी बड़ी है कि सेना के अब तक के सबसे बड़े रेस्क्यू ऑपरेशन के बावजूद यात्री परेशान बेहाल और नाराज हैं, खासकर वे परिजन जो देहरादून, ऋषिकेश, हरिद्वार, रुद्रप्रयाग, जोशीमठ और उत्तरकाशी में कैंप कर अपनों की तलाश के लिए आए हैं. उनमें से कई व्यवस्था की कमी की शिकायत कर रहे हैं और उनका आरोप है कि उन्हें सही जानकारी देने के लिए कोई सिस्टम मुस्तैदी से काम नहीं कर रहा है.
हजार के करीब मौत का अब तक का आंकड़ा बताया जा रहा है. जो आंकड़ें आ रहे हैं वे आधे अधूरे हैं और हमें शायद कभी नहीं पता चल पाएगा कि आखिर कितने लोगों की जानें गईं. उत्तराखंड की आपदा में जान-माल की क्षति का आंकड़ा विकराल रूप से बढ़ता जा रहा है. अब एक ही सवाल उठ रहा है कि आख़िर ये गिनती कब खत्म होगी.
ब्लॉगः शिवप्रसाद जोशी
संपादनः आभा मोंढे