"हमसे न पूछिए आपदा प्रबंधन"
२६ जून २०१३भारतीय भूगर्भीय सर्वेक्षण, जीएसआई ने 233 गांवों में से 101 गांव ऐसे बताए थे जो भूस्खलन के लिहाज से संवेदनशील थे. कैग ने इस शिनाख्त के आधार पर अपनी रिपोर्ट में हालात से आगाह किया. लेकिन कैग की रिपोर्ट की सुध नहीं ली गई.
भारत के राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन प्राधिकरण, एनडीएमए के वाइस चेयरमैन एम शशिधर रेड्डी ने माना है कि प्रबंधन में चूक हुई. उन्होंने भारतीय मौसम विभाग के पास उपलब्ध संसाधनों की कमी का भी जिक्र किया कि अगर उपयुक्त और अत्याधुनिक पर्यवेक्षण तकनीक या उपकरण होते तो भविष्यवाणी बेहतर की जा सकती है. मिसाल के लिए, किन इलाकों में सबसे ज्यादा बारिश होने वाली है, इसकी जानकारी मिल सकती है. मौसम विभाग देहरादून के निदेशक और उत्तराखंड में मॉनसून के जल्द और आक्रामक प्रवेश के बारे में सबसे पहले नोट कर अधिकारियों को बताने वाले वैज्ञानिक आनंद शर्मा ने भी माना कि "बेहतर उपकरण से बेहतर पूर्वानुमान" होते.
आधुनिक उपकरण की जरूरत
शर्मा के मुताबिक हिमालय के ऊंचाई वाले इलाकों मे रडार लगाने की मांग लंबे समय से की जा रही है, "पहाड़ी इलाकों में संचार प्रणाली को भी मजबूत किए जाने की जरूरत है. इसके लिए ऑल वेदर कम्यूनिकेशन सिस्टम की जरूरत है." यानी सस्ते और सुलभ रेडियो पर जोर. शर्मा के मुताबिक अब तो हैंड वाइंडिंग रेडियो भी आ गए हैं. जिन्हें हाथ से घुमाकर चालू किया जा सकता है. ऐसी रेडियो प्रणालियां आपदा के मौकों पर बचाव को आसान बना सकती हैं.
प्रधानमंत्री की अगुवाई वाले राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन प्राधिकरण के पास नजरिया होता तो देश में कुदरती आपदाओं का मुकाबला बेहतर ढंग से किया जा सकता था. कैग ने प्राधिकरण की कमियों के बारे में भी बताया और कहा कि "आपदाओं को रोका नहीं जा सकता लेकिन उनसे होने वाले जानमाल के नुकसान को कम किया जा सकता है".
आपदा प्रबंधन को लेकर यूं तो सवाल खड़े करना आसान है लेकिन उत्तराखंड के इन दिनों को देखकर सहज अंदाजा लगा सकता है कि ये हो क्या रहा है. सेना और उसके युद्ध सरीखे बचाव अभियान को छोड़ दिया जाए तो राज्य सरकार की मशीनरी के हाथ पांव फूले हुए हैं. सूचनाओं तक में विभागीय तालमेल नहीं है.
हर तरफ प्रदूषण
हिमालय की ऊंचाइयों वाले संवेदनशील इलाकों में लगातार गाड़ियां दौड़ रही हैं, जिससे प्रदूषण हो रहा है. इसकी जांच की व्यवस्था नहीं है. चार धाम यात्रा के दौरान आने वाले हर वाहन और हर यात्री के पंजीकरण का सिस्टम पिछले 12 साल में बन ही नहीं पाया है. ऐसे में आज हालात हैं कि लोग अपनों की तलाश में दर दर भटक रहे हैं. कितने लापता हैं और कितने मारे गए इसकी ठोस संख्या किसी के पास नहीं है.
नुकसान से जुड़ा दूसरा पहलू है पहाड़ में हर किस्म के निर्माण कार्यों में नियम कायदों की अनदेखी. संवेदनशील इलाकों में निर्माण को लेकर खुलेआम नियमों की धज्जियां उड़ाई जा रही हैं और कोई टोकने वाला नहीं है. यहां तक कि मुख्यमंत्री विजय बहुगुणा दलील दे रहे हैं कि "वे निर्माण अस्थायी होटल, लॉज, छोटी दुकानें आदि हैं, उनकी जीविका इसी यात्रा और यात्रियों से चलती है". हालांकि इस दलील के बावजूद रिवर वेज में निर्माण को सही नहीं ठहराया जा सकता. रिवर वेज यानी पहले आई बाढ़ों में बने नदियों के रास्ते.
विकास के नाम पर
नदियों की जमा की गई सालों की गाद पर भी ढांचे खड़े किए जा रहे हैं. पहाड़ों में रही सही कसर सड़क निर्माण के लिए डायनामाइट से किए जाने वाले विस्फोटों और बांध परियोजनाओं के लिए सुरंग निर्माण के विस्फोटों ने कर दी है. इस मामले में बद्रीनाथ वाली बेल्ट और उत्तरकाशी के इलाके पर सबसे ज्यादा चोट पहुंची हैं.
अब सवाल यह है कि आखिर विकास कैसे हो. जवाब ढूंढने की बजाय सरकारें इसे नैतिक दबाव की तरह वापस जनता की ओर उछाल देती हैं. अगर निर्माण नहीं होगा तो रोजगार कैसे होगा, कैसे स्कूल बनेंगे कैसे बिजली आएगी. कैसे उद्योग आएंगें. लेकिन आंकड़ें और यथार्थ बताते हैं कि इन परियोजनाओं से और निर्माण सेक्टर में भारी आपाधापी के बावजूद उत्तराखंड जैसे 12-13 साल पुराने राज्य का कोई बड़ा भला नहीं हुआ. उसने कोई भारी छलांग तरक्की की नहीं लगा ली है.
सकल घरेलू उत्पाद और प्रति व्यक्ति आय के सुनहरे आंकड़े बेशक उसके पास हैं लेकिन फाइलों से आगे वास्तविक दुनिया में उनका वजूद नहीं. आंकड़ो की गणना से आम पहाड़ी गायब है.
रिपोर्टः शिवप्रसाद जोशी, देहरादून
संपादनः अनवर जे अशरफ