हीरों की काली कहानी
२६ जुलाई २०१३पन्ना में 6,000 साल पहले कच्चे हीरे मिले थे. आज भी यहां कीमती पत्थर निकाले जाते हैं. लेकिन यहां काम करने वाले मजदूरों की हालत खराब है. और अगर ये अवैध तरीके से काम कर रहे हों तो पूछना ही क्या. यूसुफ बेग खदानों में काम करने वाले मजदूरों के हक के लिए लड़़ते हैं. ये दिल्ली के संगठन एनवाइरोनिक ट्रस्ट के लिये काम करते हैं. वे यूसुफ अकसर हीरे के खदानों का दौरा करते हैं. पन्ना से यह 20 किलोमीटर दूर है. यहां पत्थर गैर कानूनी तरीके से निकाले जाते हैं.
खदानों में अकसर किसान और दिहाड़ी मजदूर काम करते हैं. इस काम से उनकी थोड़ी और कमाई हो जाती है.
कैसे होता है काम
गर्मी के मौसम में काम कम ही होता है क्योंकि नदियां भी सूख जाती हैं और नदी की रेत में हीरे ढूंढने के लिए काफी पानी की जरूरत होती है. यूसुफ बेग बताते हैं, "पहले खदान से खोद कर इसे निकाल लेते हैं. इसके बाद इसे यहां खड्डे में डाला जाता है. फिर इसे पानी से भर दिया जाता है. फिर दो लोग इसे पांव से कुचलते हैं ताकि मिट्टी कंकड़ से अलग हो जाए. कंकड़ और हीरे भारी होने के कारण नीचे बैठ जाते हैं. फिर मिट्टी को पानी के साथ बाहर फेंक दिया जाता है. कंकर और हीरे को बाहर निकाल लिया जाता है. अगर पत्थरों में हीरा है तो उसे ज्यादा ढूंढने की जरूरत नहीं पड़ती, वो सूरज की रोशनी में चमकने लगते हैं."
आज भी खोज
भरी गर्मी में हीरे खोजना आसान नहीं. 40 डिग्री में पत्थर तोड़ना बहुत मुश्किल है. यहां के मजदूरों में बच्चे भी हैं. एक की उम्र 13, एक की 16 और तीसरा भाई 21 का है. बेग बताते हैं, "जो मजदूर धूल में यहां काम करते हैं उन्हें सिलिकोसिस की बीमारी होती है. यानी पत्थर की धूल उनके फेंफड़ों में बैठ जाती है क्योंकि मजदूर यहां असुरक्षित तरीके से काम करते हैं, कोई मास्क नहीं लगाते. यहां सुरक्षा के कोई प्रबंध नहीं हैं. एक स्टोन माइन में काम करने वाला एक आदिवासी मारा भी गया.
लाख कोशिशों के बावजूद काम का माहौल बेहतर बनाने की मुहिम में कोई सफलता नहीं मिली है. अब भारत के मानवाधिकार आयोग ने भी खान मजदूरों के स्वास्थ्य के लिए बेहतर सुरक्षा की मांग की है. यूसुफ बेग के लिए यह काफी नहीं है. उनका कहना है कि पन्ना में 70 फीसदी हीरों का गैरकानूनी खनन होता है और यह भी बच्चों से करवाया जाता है. "सरकार ने योजनाएं तो बहुत अच्छी अच्छी बनाई हैं. लेकिन उनका पूरा लाभ इन मजदूरों को नहीं मिल रहा है. इसके लिए सरकार को बड़ा प्लान बनाने की जरूरत है जिससे इनके बच्चे पढ़ लिख सकें. आगे निकल सकें. इन खदानों से बाहर जाएं. वो भी किसी लायक बन सकें. उन्हें नौकरियां मिलें और बड़े उद्योग धंधों में वो लग सकें."
इलाके में कोई स्कूल या किंडरगार्टन नहीं है. यूसुफ का कहना है कि बच्चों को खदान में भेजने के अलावा परिवारों के पास कोई और चारा नहीं है. कम से कम इससे उनका पेट तो भरता है.
एमजी/एएम (डीडब्ल्यू)