66 साल का कोलाज
१५ अगस्त २०१३भारत की आजादी की 66वीं सालगिरह से कुछ दिन पहले के ये कुछ अहम वाकये थे. जाहिर है ये घटनाएं अलग हैं लेकिन जुड़ती इस रूप में हैं कि इसमें कथित तरक्की के उस आख्यान के सूत्र छिपे हैं जिसे इन बरसों में निर्मित किया गया है. पांच अरब डॉलर की लागत से बन रहा विक्रांत, बताते हैं भारत को दुनिया के उन चुनिंदा देशों में ले आया है जिनके पास अपना ऐसा युद्धपोत है. दक्षिण एशिया तो छोड़िए समूचे एशिया महाद्वीप में भारत की सैन्य सामर्थ्य ने ऊंची छलांग लगा ली है और कुछ ही दिन पहले जिस तरह परमाणु पनडुब्बी के रिएक्टर चालू किए गए उसने तो कुछ ऐसा नजारा बना दिया है कि हैरानी होती है कि क्या यह वही भारत है जो 66 साल बाद भी डांवाडोल मुद्रा और भीषण गरीबी से जूझता आ रहा है. और जहां जश्नोगुबार, ललकार और हुंकार के समांतर उतना ही गहरा अवसाद और सन्नाटा फैला हुआ है. ये इतने सारे बरस तरक्की और उधेड़बुन, जश्न और उदासी का बड़ा कोलाज बनाते है.
आप पाते हैं कि महादेश की आजादी के ये साल विकास के साथ भुखमरी, बेकारी, गरीबी, सांप्रदायिकता, हिंसा और कुपोषण के 66 साल भी हैं. कहा जा रहा है कि विक्रांत के पांच अरब रुपए काश 66 साल के मौके पर देश के अत्यन्त पिछड़े और गरीब तबकों में चले जाते तो उनका जीवन स्तर सुधर जाता. लेकिन आज जिस तरह के राष्ट्रवाद और उससे जुड़े उन्माद की हवा चली है उसमें ऐसी बातें जोखिम भरी हो सकती हैं. उन्हें इस रूखी हवा में कागज की कतरनों की तरह उड़ा दिया जा सकता है या उलटे जवाब तलब किया जा सकता है कि क्यों भाई आपको क्या कष्ट है अगर देश तरक्की कर रहा है, अगर देश के पास विक्रांत है, अगर पड़ोसी उससे डर जाएं, अगर हमारी तूती बोले, अगर हम सैन्य ताकत बन जाएं, क्या दिक्कत है आपकी, अगर हमारे नंबर बन रहे हैं.
सही है. एक नागरिक की हैसियत से इतना तो कहा बनता है कि सही है, सब कुछ होना चाहिए लेकिन किस कीमत पर. ये भी बता दीजिए. किस कीमत पर एक देश ऐसा करने पर आमादा है, क्यों एक देश को युद्धरत और भुजाओं को फड़कते दिखाया जा रहा है, क्यों निवेश की धाराएं जल जगंल जमीन से होते हुए पनडुब्बियों, समुद्रों, जहाजों और युद्धपोतों तक जोर मार रही हैं. समाज में निवेश के लिए आते हुए ये धाराएं क्यों सूख जाती हैं. 66 साल के चमकदार आंकड़े बेशक बेशुमार हैं, एक से बढ़कर एक हैं फिर उतने ही बल्कि उनसे ज्यादा फीके और भयावह आंकड़ें भी तो हैं. वे क्यों हैं.
क्या सामाजिक सुरक्षा सीमाई सुरक्षा से कमतर है. साढ़े छह दशकों की आजादी के बाद इतना तो पूछना बनता ही है कि 1984, 1992 और 2002 क्या सीधे सादे सामान्य सहज वर्षों की तरह नहीं बिताए जा सकते थे. उन्हें हिफाजत और सौहार्द्ध और विश्वास की विभाजक रेखाएं किसने बनाया. हमारे पास बेशक गर्व करने के सैकड़ों हजारों मौके हैं इस दरम्यान लेकिन शर्म में सिर झुका लेने की नौबतें भी तो कम नहीं होंगी. फिर ये ढोल किस बात का पीटा जा रहा है. सुख की और उन्माद की इस बेला से निकल कर भी तो देखा जाए. हिंदी कवि रघुबीर सहाय ने अपनी एक कविता में पूछा थाः
राष्ट्रगीत में भला कौन वह
भारत भाग्य विधाता है
फटा सुथन्ना पहने जिसका
गुन हरचरना गाता है
एक बनते हुए देश और बन चुके देश में फर्क भी तो होता होगा. हमारे पास चौतरफा भव्यताएं आ गई हैं, करामाती बोलबाला है निवेश का, अमीरों की संख्याएं बढ़ रही हैं, लोगों का रहनसहन अभूतपूर्व तरीके से बदल चुका है, मध्य वर्ग के पास खरीदने और बेचने के और साधन आ गए हैं, इच्छा तो उसके पास जन्मजात थी. तकनीकी कौशल, इंजीनियर, वैज्ञानिक, आलिम फाजिल, संस्थाएं, कंपनियां, निर्माण सब कुछ तो है. फिर भी मायूसी के कोने क्यों घिरते जा रहे हैं. अब तो हमारी भूमंडलीय बिरादरी हो गई है महाराज.
फिर ये आपाधापी, आशंका, असमंजस, बेचैनी और बेसब्री क्यों. क्या कहीं कुछ गड़बड़ है. लगता है हमने जहाज को चमका तो दिया, ढेरो रत्नों से लाद भी दिया लेकिन उसके कलपुर्जे नहीं कसे. एहतियात के लिए भी हम तल में नहीं गए एक बार देखने, अपने भीतर तो क्या जाते. जबकि 'इस दुख को रोज समझना पड़ता है,' रघुबीर सहाय ने अपनी एक कविता में कहा था.
मानवीय मूल्य. नैतिकता, इंसानियत, न्याय, अहसास, हमदर्दी, दोस्ती, प्रेम, शांति, अहिंसा, ये सब क्या हैं- कोरी भावुकताएं, झटक कर हटा दी जाने वाली मामूली और अटपटी चीजें. जरा देखिए क्या उस जहाज में ये मामूली सी चीजें अंट रही हैं जो बुलंदी और शौर्यता और शक्ति का जहाज है. आप जरा और ध्यान से देखिए उस जहाज में आप जिन्हें रख देने से इंकार किए बैठे हैं वे तो असल में वहीं रखी हैं. रखी क्या हैं खुदी हुई हैं उस जहाज के जन्म के साथ ही.
कुछ इस तरह कि एक जहाज को बनाने के लिए कई कीलें काम आती हैं. ये सवाल भी ऐसे हैं. आप लाख इनसे पीछा छुड़ा लेना चाहें लेकिन इनके बिना न मनुष्य बना है न देश न कोई जहाज. नाम कुछ भी रख लीजिए.
ब्लॉगः शिवप्रसाद जोशी
संपादनः एन रंजन