भारत में बाघ बढ़े, पर उसकी कीमत कितनी चुकाई?
१० अप्रैल २०२३कर्नाटक के शहर मैसूरू में जश्न का माहौल था. रविवार को वहां भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी सज-धज कर पहुंचे थे. मोदी ने ऐलान किया कि 50 साल पहले शुरू हुए बाघ संरक्षण कार्यक्रम के तहत देश में बाघों की संख्या 3,000 को पार कर गई है. एक वक्त बाघों को बचाने को लेकर जूझ रहे भारत के लिए यह बड़ी खबर है.
मोदी ने कहा, "भारत एक ऐसा देश है जहां प्रकृति की रक्षा संस्कृति का हिस्सा है. यही वजह है कि वन्य जीवन संरक्षण में हमने कई बड़ी उपलब्धियां हासिल की हैं.”
इस मौके पर भारतीय प्रधानमंत्री ने बिग कैट्स अलायंस नाम से एक नयी योजना का भी ऐलान किया जिसमें बड़ी बिल्लियों के नाम से जानी जाने वाली सात प्रजातियों के प्राणियों के संरक्षण के लिए विशेष अभियान चलाए जाएंगे. ये जानवर हैं बाघ, शेर, तेंदुआ, हिम तेंदुआ, पहाड़ी बिलाव, जैगुआर और चीता.
जब ये ऐलान हो रहे थे, उस वक्त आयोजन स्थल से करीब एक घंटे की दूरी पर कुछ लोग इन वन्य जीवन संरक्षण अभियानों की वजह से बेघर और विस्थापित हो जाने के दुख सुना रहे थे. करीब आधी सदी से जारी इन परियोजनाओं के कारण बड़ी संख्या में लोग विस्थापित हुए हैं.
बिहार में बढ़ते बाघों से बढ़ा स्थानीय लोगों का संकट
प्रोजेक्ट टाइगर की शुरुआत 1973 में हुई थी जब गणना के बाद पाया गया कि भारत में बाघों की संख्या तेजी से घट रही है. तब उनके कुदरती आवास के लगातार घटने, अनियमित शिकार, अवैध शिकार और गांव में घुसे बाघों को लोगों द्वारा मारा जाना बड़ी वजहों में से थे. माना जाता है कि तब बाघों की संख्या 1,800 के आसपास थी. लेकिन विशेषज्ञ इस आंकड़े को सही नहीं मानते. उनका कहना है कि 2006 तक गिनती का जो तरीका अपनाया जा रहा था, वह सटीक नहीं था.
बाघों की संख्या बढ़ाने के लिए कानून का सहारा लिया गया. इस कानून के तहत जो परियोजनाएं चलाई गईं, वे ऐसे संरक्षित क्षेत्र स्थापित करने के इर्द-गिर्द केंद्रित थीं, जिनसे लोगों की आबादी को दूर रखा जाए. कई आदिवासी समूह कहते हैं कि यह रणनीति अमेरिकी संरक्षण नीति से प्रेरित थी जिनके जरिए ऐसे हजारों लोगों को विस्थापित कर दिया गया जो पीढ़ियों से जंगलों में रहते आए थे.
लोगों से छीन लिए गए जंगल
कई आदिवासी समूहों ने मिलकर नागराहोल आदिवासी वन अधिकार समिति की स्थापना की, जो लोगों के वनों से विस्थापन का विरोध करने के मकसद से बनाई गई थी. यह समिति चाहती है कि ऐसे वन संरक्षण परियोजनाओं में उन लोगों की भी हिस्सेदारी हो, जिन्हें उनकी पुश्तैनी जमीनों से हटाया जा रहा है.
कॉर्बेट से भटकी बाघिन को बेहोश करने की जगह मार दिया गया
27 वर्षीय जे. ए. शिवू जेनू कुरुबा कबीले से आते हैं. वह बताते हैं, "प्रोजेक्ट टाइगर के तहत जिन वनों को संरक्षित क्षेत्र घोषित किया गया, नागराहोल उनमें से सबसे पहले वनों में से था. हमारे माता-पिता और दादा-नाना शायद उन शुरुआती लोगों में से थे जिन्हें इस प्रोजेक्ट के तहत विस्थापित किया गया.”
अपने अधिकारों के लिए संघर्ष कर रहे शिवू कहते हैं कि उनके परिवार से सारे अधिकार छीन लिए गए. वह बताते हैं, "हम अपनी जमीन, मंदिरों और वनों से शहद जमा करने तक जैसे तमाम अधिकार खो चुके हैं. ऐसा कैसे चल सकता है?”
कन्नड़ भाषा में जेनू का अर्थ होता है, शहद. जेनू कुरुबा कबीले के लिए शहद जमा करना और बेचना आजीविका का प्रमुख साधन रहा है. वे जंगलों में घूम-घूमकर मधमुक्खी के छत्ते खोजते हैं, उनसे शहद जमा करते हैं और उसे बेचकर गुजारा करते हैं. यह कबीला तेजी से खत्म हो रहे उन 75 आदिवासी समूहों में से एक है, जिनकी सरकार ने ‘खतरे में पड़े आदिवासी समूहों' के रूप में पहचान की है. करीब 40 हजार लोगों का यह कबीला देश के सबसे गरीब आदिवासियों में से है.
कुछ विशेषज्ञ मानते हैं कि वन्य जीव संरक्षण की नीतियां स्थानीय समुदायों के खिलाफ पूर्वाग्रहों से ग्रसित रही हैं. भारत सरकार के आदिवासी मामलों के मंत्रालय ने बार-बार कहा है कि वनवासियों के अधिकारों की सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए कदम उठाए जा रहे हैं. लेकिन विशेषज्ञों का दावा है कि 2006 में पास किए गए वन्य जीवन अधिनियम के तहत देश के 10 करोड़ आदिवासियों में से सिर्फ एक फीसदी को ही अधिकार दिए गए हैं.
किस कीमत पर मिली सफलता?
इस बीच भारत में बाघों की संख्या लगातार बढ़ रही है. ताजा गणना के अनुसार अब भारत में 3,167 बाघ हैं, जो दुनिया के कुल बाघों का 75 फीसदी से ज्यादा है. कई अन्य देशों में बाघ लगातार घट रहे हैं. बाली और जावा में वे लगभग विलुप्त हो चुके हैं. चीन में भी बाघ खत्म हो रहे हैं. सुंडा द्वीप प्रजाति के बाघ अब बस सुमात्रा में बचे हैं. ऐसे में भारत में संरक्षण की कामयाबी की दुनियाभर में तारीफ हो रही है.
प्रोजेक्ट टाइगर के प्रमुख एस पी यादव कहते हैं, "प्रोजेक्ट टाइगर का दुनिया में कोई सानी नहीं है. इस आकार और विस्तार की कोई परियोजना शायद ही कहीं और सफल हुई हो.”
लेकिन आलोचक सवाल उठाते हैं कि यह सफलता किस कीमत पर हासिल की गई है. वे कहते हैं कि वन विभाग वाले वनवासियों को ही जंगलों में जाने से रोकते हैं. बेंगलुरु स्थित अशोका ट्रस्ट फॉर रिसर्च इन इकोलॉजी एंड इनवायर्नमेंट के शारचंद्र लेले कहते हैं कि संरक्षण का यह मॉडल पुराना पड़ चुका है. उन्होंने कहा, "ऐसे कई उदाहरण मौजूद हैं जबकि वनवासी सक्रिय रूप से जंगलों का इस्तेमाल करते हैं और फिर भी बाघों की संख्या में वृद्धि हुई है. साथ ही स्थानीय लोगों को भी वनों का लाभ मिलता रहा.”
वाइल्डलाइफ कंजरवेशन सोसाइटी की भारतीय निदेशक विद्या आत्रेया करीब दो दशकों से बाघ और इंसानों के बीच रिश्तों का अध्ययन कर रही हैं. वह कहती हैं, "पारंपरिक रूप से हम हमेशा वन्य जीवन को लोगों से ज्यादा अहमियत देते हैं.” वह कहती हैं कि स्थानीय निवासियों की हिस्सेदारी ही वन्य जीवन के संरक्षण की राह हो सकती है.
जेनू कुरुबा कबीले के शिवू भी अपने लोगों के लिए वही पुराना जीवन चाहते हैं जिसमें बाघ और आदिवासी साथ-साथ रहते थे. वह कहते हैं, "हम उन्हें अपना देवता मानते हैं और खुद को जंगल का रक्षक.”
वीके/सीके (एपी)