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समाज

ज्यादा जोगी, मठ उजाड़ न बन जाए आकुस

राहुल मिश्र
२० सितम्बर २०२१

ऑस्ट्रेलिया, यूके और अमेरिका ने मिलकर एक सामरिक मंच बना लिया है. इस मंच के ऐलान से कुछ देश खुलेआम तो कुछ अंदर ही अंदर नाराज हैं. क्या इस मंच से कुछ सकारात्मक हासिल कर पाएंगे ये तीन देश?

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तस्वीर: Brendan Smialowski/AFP/AP/picture alliance

आखिरकार जिसका डर था वही हुआ. चीन की बढ़ती ताकत और उसके आक्रामक और यदा-कदा हिंसात्मक रवैये के नाम पर लामबंद हो रहे पश्चिमी देशों और उनके जापान और भारत समेत तमाम एशियाई सहयोगी देशों के लिए ऑस्ट्रेलिया-यूनाइटेड किंग्डम-अमेरिका (आकुस) का त्रिपक्षीय गठबंधन एक आश्चर्यजनक खबर बनकर उभरा है.

अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडेन, ऑस्ट्रेलियाई प्रधानमंत्री स्कॉट मॉरिसन और ब्रिटेन के प्रधानमंत्री बोरिस जॉनसन के बीच इसी हफ्ते हुई ऑनलाइन वार्ता के दौरान इस त्रिपक्षीय सहयोग मंच का ऐलान किया गया.

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देखा जाए तो यह तीनों ही देश एक दूसरे के साथ कई तरह के सामरिक, सैन्य और कूटनीतिक सहयोग के विभिन्न मोर्चों पर पिछली आधी सदी से भी ज्यादा से काम कर रहे हैं. ऐसे में एक नए मोर्चे का उद्घाटन कहीं गैरजरूरी तो कहीं बेवजह की चौधराहट दिखाने का जरिया ही लगता है.

कई देश खफा

हालांकि इस नए त्रिपक्षीय मंच के काफी पहलुओं पर अभी रोशनी पड़नी बाकी है लेकिन फिलहाल इतना साफ है कि प्रतिद्वंद्वी चीन के अलावा इस सहयोग ने इन तीनों पश्चिमी देशों के बड़े यूरोपीय सहयोगी, संयुक्त राष्ट्र संघ के सुरक्षा परिषद के पांच सदस्यों में से एक, और इंडो-पैसिफिक में अच्छा दखल रखने वाले देश फ्रांस को भी खफा कर दिया है. यूरोपीय संघ के बाकी देशों को भी यह बात नाराज न करे तो पसंद तो नहीं ही आएगी.

आकुस की शिखर वार्ता के तुरंत बाद आये फ्रांस के विदेश मंत्री ज्याँ-वे ले ड्रिआँ के वक्तव्य ने साफ कर दिया है कि फ्रांस अमेरिका और ब्रिटेन के इस कदम को पीठ में छुरा घोंपने जैसा मानता है. चीन ने भी इस पर काफी तीखी प्रतिक्रिया व्यक्त की है.

चीन का मानना है कि इस कदम से अमेरिका ने क्षेत्रीय राजनीति को एक जीरो-सम गेम या यूं कहें कि एक ऐसे राजनीतिक अखाड़े में बदल दिया है जिसमें एक पक्ष का हारना तय है.

चीन की चिंताओं के पीछे एक बड़ी वजह यह भी है कि उससे प्रतिस्पर्धा और तनातनी के बीच अमेरिका एक के बाद एक नया सामरिक इंद्रजाल बिछाता जा रहा है. इस दौड़ में चीन कहीं न कहीं अब कमजोर भी होता जा रहा है. हालांकि चीन भी आसानी से हार मानने वाला नहीं है.

यूरोपीय राजनीति से भी जुड़े हैं तार

आकुस के इस अप्रत्याशित ऐलान का वक्त भी खासा दिलचस्प है. सबसे बड़ी बात तो यही है कि यूरोपीय संघ की इंडो-पैसिफिक स्ट्रैटिजी के ऐलान से ठीक एक दिन पहले ब्रिटेन के इंडो-पैसिफिक क्षेत्र में इस सामरिक कदम उठाने के तार सीधे तौर पर यूरोपीय राजनीति से जुड़े हैं

ब्रेक्जिट के बाद से ही अलग-थलग महसूस कर रहे ब्रिटेन ने ग्लोबल ब्रिटेन-आसियान में डायलॉग पार्टनर के ओहदे और तमाम छोटे बड़े व्यापार समझौते कर अपनी प्रासंगिकता साबित करने की कोशिश की है.

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फ्रांस, जर्मनी और यूरोपीय संघ के इंडो-पैसिफिक में तेजी से पैठ बनाने से ब्रिटेन की कूटनीतिक और सामरिक गतिविधियां बढ़ी हैं. लेकिन इस जल्दबाजी में लिए कदम में ब्रिटेन की अलग-थलग पड़ने की बेचैनी बहुत बड़ा कारक है.

शायद ब्रिटेन को इस बात का अंदाजा जल्दी ही हो भी जाएगा. दक्षिणपूर्व एशिया के कई देश अभी भी ब्रिटेन को अमेरिका से अलग एक मजबूत और भरोसेमंद पार्टनर के तौर पर देखते थे, पर अब वैसा होना मुश्किल होगा.

कहीं न कहीं ब्रिटेन को अभी भी लगता है कि इंडो-पैसिफिक क्षेत्र खास तौर पर दक्षिण और दक्षिणपूर्व एशिया में फ्रांस की बढ़ती मौजूदगी उसके लिए अच्छी नहीं होगी. भारत और फ्रांस के बीच रक्षा और सामरिक सहयोग भी ब्रिटेन को रास नहीं आया है और अमेरिका को भी यह बात खास अच्छी नहीं लगी है. उस पर ऑस्ट्रेलिया और फ्रांस के बीच 2019 में रक्षा करार हुआ. साथ ही हाल में भारत, फ्रांस, और ऑस्ट्रेलिया के बीच त्रिपक्षीय करार हुआ, तो शायद उसे भी एक अलग नजरिये से देखा गया होगा.

फ्रांस और अन्य पश्चिमी सहयोगी

बहरहाल आकुस के जरिये ऑस्ट्रेलिया को आठ परमाणु ऊर्जा चालित पनडुब्बियां अमेरिका मुहैया कराएगा. इस निर्णय के साथ ही ऑस्ट्रेलिया ने फ्रांस के साथ हुए करार को रद्द कर दिया है और यही बात फ्रांस को नागवार गुजरी है.

फ्रांस की चिंता सिर्फ पनडुब्बी नहीं है. सवाल है कि अमेरिका ने उसे किनारे कर इस त्रिपक्षीय समझौते को मंजूरी दी. जाहिर है यह बात अब जब निकल पड़ी है तो बहुत दूर तलक जाएगी. मसलन एक सवाल तो लाजिमी है कि क्या ‘फाइव आईज' के बाकी दो साथी - कनाडा और न्यूजीलैंड - इस लायक नहीं थे कि उन्हें आकुस में शामिल किया जाता?

मान लीजिये अपनी परमाणु नीतियों की वजह से ये दोनों देश न भी शामिल होना चाहें तो भी क्या अब ‘फाइव आईज' की उतनी ही महत्ता रहेगी, जितनी पहली थी?

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और भारत, जापान, अमेरिका और ऑस्ट्रेलिया के चार देशों वाले क्वॉड्रिलैटरल सिक्यॉरिटी डायलॉग का क्या, जिसकी शिखर बैठक अगले ही हफ्ते 24 सितंबर को होनी है? आकुस-क्वाड-फाइव आईज- और फ्रांस के साथ त्रिपक्षीय सहयोग के मंचों के बीच कोई सहयोग की गुंजाइश है, या बनाई जाएगी, यह कहना फिलहाल मुश्किल है. इस मुद्दे पर इंडो-पैसिफिक क्षेत्र के कई देशों की राजधानियों में सरगर्मी से चिंतन-मनन हो रहा होगा.

आकुस का आना फिलहाल तो ज्यादा जोगी मठ उजाड़ वाली कहावत की और इशारा करता सा दिखता है. खास तौर पर अगर हाल में लिए गए तमाम मिनीलैटरल सहयोग समझौतों को किसी तर्कसंगत क्रम में जोड़ा नहीं गया तो. और फ्रांस के गुस्से के नतीजे तो खैर समय आने पर ही जाहिर होंगे.

(राहुल मिश्र मलाया विश्वविद्यालय के एशिया-यूरोप संस्थान में अंतरराष्ट्रीय राजनीति के वरिष्ठ प्राध्यापक हैं.)

 

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