स्कॉटलैंड के शहर ग्लासगो में बीते दिनों संयुक्त राष्ट्र संघ का जलवायु सम्मेलन हुआ जिसका उद्देश्य था जलवायु परिवर्तन के तमाम मुद्दों पर गंभीरता के साथ बात-चीत और उसके जरिये किसी ठोस नतीजे पर पहुंचने की कवायद.
पर्यावरण संरक्षण और जलवायु परिवर्तन के अहम सवालों के इर्द गिर्द केंद्रित इस बैठक में 'कॉन्फ्रेंस ऑफ द पार्टीज' यानी कॉप-26 के महत्वपूर्ण मसौदे पर हस्ताक्षर भी हुए. 100 से अधिक देशों ने इस सम्मेलन में शिरकत की और पर्यावरण संरक्षण के वादों को अमली जामा पहनाने की बातें भी कहीं.
इंडोनेशिया भी इस सम्मेलन में मौजूद था. लेकिन इस बैठक के बाद इंडोनेशिया और वहां की सरकार ने कई चौंकाने वाले बयान दिए हैं. दुनिया के लगभग एक तिहाई वर्षा-वनों की मिल्कियत रखने वाले इंडोनेशिया ने कहा है कि वनोन्मूलन न करने के वादे विकास की राह में रोड़े नहीं अटका सकते. ब्राजील और कांगो के बाद इंडोनेशिया में वर्षा-वनों का सबसे बड़ा फैलाव है. दुनिया के 85 प्रतिशत वर्षावन इन्हीं तीन देशों में हैं.
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गौरतलब है कि कुछ ही दिनों पहले इंडोनेशिया उन 128 देशों की फेरहिस्त में था जिन्होंने कॉप-26 मसौदे को मंजूरी दी थी और इस पर बाकायदा हस्ताक्षर भी किये थे. लेकिन अब वहां के नीतिनिर्धारकों का कहना है कि कॉप-26 के निर्धारित लक्ष्यों को पूरा नहीं किया जा सकता.
क्यों पीछे खींचे पांव?
इंडोनेशिया और वियतनाम दक्षिणपूर्व एशिया के दो मात्र ऐसे देश हैं जिन्होंने इन मसौदों को मंजूरी दी है. ऐसे में इंडोनेशिया का पैर पीछे खींचना अच्छी खबर नहीं है. इस संदर्भ में आधिकारिक बयान खुद इंडोनेशिया की पर्यावरण मंत्री सिती नूरबाया बकर की तरफ से आये, जिन्होंने कहा कि कॉप-26 के नियमों के तहत इंडोनेशिया को वन-कटाई के स्तर को शून्य पर लाना अनुचित और असंगत है.
नूरबाया का बयान सीधे तौर पर राष्ट्रपति जोको विडोडो के नेतृत्व में बनी उनकी सरकार की नीतियों से जुड़ा है. विडोडो के शासनकाल में इंडोनेशिया ने विकास के क्षेत्र में काफी प्रगति की है. यह विकास खास तौर पर इंफ्रास्ट्रक्चर के क्षेत्र में हुआ है.
इंडोनेशिया की राजधानी जकार्ता से पूर्वी कालीमंतान स्थानांतरित करने के पीछे भी इंडोनेशिया की जोकोवी सरकार का बड़ा हाथ है. इस एक कदम का ही पर्यावरण पर अच्छा खासा असर पड़ेगा. एक सुदूर छोटे से शहर को राजधानी बनाने और अंतरराष्ट्रीय स्तर की सुविधाओं से लैस करने में काफी मेहनत-मशक्कत करनी होगी और इस प्रक्रिया में पर्यावरण सम्बन्धी जोखिम भी उठाने होंगे. चाहे- अनचाहे वन-कटाई भी इसका हिस्सा बनेगा.
नूरबाया बकर ने भी यह बात कही कि अपने नागरिकों का विकास उनकी सरकार की पहली प्राथमिकता है और कॉप-26 के वादों को पूरा करना उनके लिए संभव नहीं है. इस सन्दर्भ में उन्होंने बुनियादी जरूरतों जैसे सड़क बनाने और फसल उगाने के लिए नए वन्यक्षेत्रों की कटाई की ओर भी इशारा किया. इसी सिलसिले में जोकोवी सरकार के उप विदेश मंत्री ने भी बयान दिया और कहा कि वन-कटाई को पूरी तरह रोकने का वादा झूठा और गुमराह करने वाला है.
खुश नहीं पश्चिम
पश्चिमी टिप्पणीकार मानते हैं कि इंडोनेशिया जैसे देश पर्यावरण संरक्षण में पर्याप्त योगदान नहीं दे रहे हैं. इसके पीछे वह इंडोनेशिया में खेती की परम्परा - झूम कृषि और पाम आयल के बड़े पैमाने पर उत्पादन को दोषी मानते हैं. यह सच है कि आजाद इंडोनेशिया के शुरुआती दशकों के मुकाबले आज वहां वर्षावनों का क्षेत्रफल घट कर आधा रह गया है, लेकिन इन दशकों में इंडोनेशिया ने गरीबी और बेरोजगारी पर भी काबू पाया है.
इंडोनेशिया जैसे विकासशील देशों पर लगाए यह आरोप इसलिए भी थोड़े बेतुके साबित होते हैं क्योंकि पिछले इन्ही सात-आठ दशकों में अमेरिका, फ्रांस, ब्रिटेन और तमाम विकसित देशों ने अंधाधुंध औद्योगीकरण के साथ-साथ शहरीकरण और उसके साथ रोजमर्रा के आराम के तमाम संसाधनों का बेपरवाह इस्तेमाल बढ़ाया है. एयर कंडीशन, मोटर गाड़ियां, और हवाई जहाजों का बेतकल्लुफ इस्तेमाल गैर-पश्चिमी देशों में पिछले कई दशकों से हो रहा है. इंडोनेशिया, भारत और मलयेशिया जैसे गैर पश्चिमी देशों में यह सुविधाएं ज्यादातर 21वीं सदी की ही देन हैं.
दोस्ताना दखल की जरूरत
इंडोनेशिया जैसे देशों में अरक्षणीय कृषि की मुख्य वजह यह है कि इन देशों के गरीब किसानों के पास कृषि उपज का और कोई बेहतर उपाय नहीं है. सरकारों के पास न इतना धन है, न वैज्ञानिक संसाधन, और न ही इतनी इच्छाशक्ति कि पर्यावरण के लिए इतनी मेहनत कर सकें. पाम आयल पर सवाल उठाने के साथ हमें यह भी देखना होगा कि यह फसलें खुद उपनिवेशवादी युग और पश्चिमी उपनिवेशवादी साम्राज्यों की देन थीं.
इंडोनेशिया और मलेशिया पाम आयल और रबर के इतने बड़े उत्पादक खुद नहीं बने थे, उन्हें गुलाम बना कर रबर, टिन, पाम आयल, और चीनी उत्पादन में लगाया गया था ताकि साम्राज्यों के गोदाम भर सकें. विश्व युद्ध के बाद ये देश धीरे धीरे आजाद तो हो गये लेकिन कृषि परम्पराएं वैसी की वैसी ही रहीं.
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आर्थिक तौर पर कमजोर, और व्यापार और निवेश के तौर पर पश्चिमी देशों जैसी समझ न रखने वाली इंडोनेशिया की सरकारें आर्थिक परिदृश्य में व्यापक परिवर्तन नहीं कर सकीं और नतीजा आज सामने है.
इंडोनेशिया के मंत्रियों के बयानों से साफ है कि अंतरराष्ट्रीय व्यापक सहयोग और दोस्ताना दखल के बिना इन देशों में जलवायु परिवर्तन और पर्यावरण संरक्षण के मुद्दे हमेशा विकास के सवालों के आगे धूमिल पड़ेंगे - और इसके जिम्मेदार सिर्फ इंडोनेशिया जैसे देश और वहां की जनता नहीं होंगे. पश्चिमी देशों की भी इसमें बराबर की भूमिका होगी. विकसित देशों पर यह नैतिक जिम्मेदारी है कि वह कार्बन उत्सर्जन कम करने और पर्यावरण संरक्षण में ज्यादा जिम्मेदार भूमिका निभाएं क्योंकि ऐतिहासिक रूप से ग्लोबल वॉर्मिंग के लिए वो ज्यादा जिम्मेदार हैं और उनके प्रति व्यक्ति कार्बन पदचिन्ह विकासशील देशों से कहीं ज्यादा बड़े हैं.
भविष्य का रास्ता
अभी भी सब कुछ बिगड़ा नहीं है और पर्यावरण को बचाने की कवायद भी जारी है. इस दिशा में एक बड़ा कदम तब उठाया गया जब ग्लास्गो में ही भारत, इंडोनेशिया, फिलीपींस, और दक्षिण अफ्रीका को क्लाइमेट इन्वेस्टमेंट फंड की तरफ से एक्सेलरेटिंग कोल ट्रांजीशन (एक्ट) प्रोग्राम में शामिल करने की घोषणा की गई. क्लाइमेट इन्वेस्टमेंट फंड्स (CIF) की अरबों डॉलर की यह योजना कोयले को छोड़कर नवीकरणीय ऊर्जा संसाधनों की ओर जाने को गति देने का हिस्सा है.
अरबों डॉलरों की यह परियोजना जी -7 देशों के समर्थन से चलेगी जिसका मूल उद्देश्य है कि भारत, इंडोनेशिया, फिलीपींस, और दक्षिण अफ्रीका में कोयले की खपत कम की जाय, इन देशों में कोयला - आधारित संयंत्रों के बदले स्वच्छ ऊर्जा-आधारित संयंत्र लगाए जाएं ताकि स्वच्छ ऊर्जा के उपयोग की राह प्रशस्त हो सके.
यह निस्संदेह एक अच्छी शुरुआत है. जी -7 के बड़े विकसित देशों से उम्मीद की जाती है कि वह विकाशील देशों के साथ इसी तरह की परियोजनाएं कृषि क्षेत्र में व्यापक स्तर पर शुरू करेंगे. पर्यावरण संरक्षण सभी देशों की साझा जिम्मेदारी है. लेकिन इसका निर्वहन विकसित देशों के सकारात्मक नेतृत्व और हैंडहोल्डिंग के बिना नहीं हो सकता.
(राहुल मिश्र मलाया विश्वविद्यालय के एशिया-यूरोप संस्थान में अंतरराष्ट्रीय राजनीति के वरिष्ठ प्राध्यापक हैं.)