जातिगत भेदभाव को मान्यता देगा कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय
१४ फ़रवरी २०२२साल 2015 में प्रेम पेरियार नेपाल से अमेरिका जाने के लिए जब निकले तो उन्होंने सोचा कि वह जातिगत भेदभाव और जातीय हिंसा को पीछे छोड़ आए हैं.
पेरियार एक दलित सामाजिक कार्यकर्ता हैं जिन्हें दक्षिण एशिया में पहले ‘अछूत' समझा जाता था. दलित समुदाय सामाजिक पदानुक्रम में सबसे निचले पायदान पर हैं. उस समाज में उनकी दलित पहचान उनके जन्म से ही तय हो जाती है. यह व्यवस्था हजारों वर्षों से चली आ रही है और इस व्यवस्था ने हिंदुओं के धार्मिक और सामाजिक जीवन के लगभग हर पहलू को प्रभावित किया है.
कथित ऊंची जातियों के लोग, निम्न जातीय लोगों से अलग जीवन जीते थे, वे निचली जातियों का छुआ खाना-पीना स्वीकार नहीं करते थे और शादी-विवाह भी केवल अपनी जाति के ही भीतर करते थे. इनमें से कई प्रथाएं आज भी जारी हैं, खासकर ग्रामीण समुदायों में.
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नेपाल में, पेरियार के कई रिश्तेदारों पर उनकी जाति की वजह से हमला किया गया था और इसके बावजूद अधिकारी इसकी जांच करने को तैयार नहीं थे. पेरियार को यह उम्मीद नहीं थी कि दुनिया भर में उनके साथ भेदभाव होगा. अमेरिका में हालांकि शारीरिक हमले आम नहीं हैं, लेकिन जानकारों का कहना है सामाजिक भेदभाव और पूर्वाग्रह पूरे अमेरिका में फैल चुका है.
संयुक्त राज्य अमेरिका में पहली बार पेरियार को जातिगत भेदभाव का सामना तब करना पड़ा, जब उनके साथ एक ही मेज पर बैठे कुछ लोगों ने कहा कि वह मेज पर रखे भोजन को न छुएं या फिर दूसरी जगह जाकर भोजन करें.
कैल स्टेट ईस्ट बे में उन्होंने सामाजिक कार्य विभाग में स्नातक कोर्स में प्रवेश लिया था और अध्ययन के दौरान उन्हें अपने साथियों की ओर से सामाजिक भेदभाव का सामना करना पड़ा. अमेरिका में अन्य दलित छात्रों के विपरीत, पेरियार ने अपना सरनेम यानी उपनाम रखने का विकल्प चुना, जिससे उनकी जाति का पता चलता है.
वो कहते हैं, "जब मैंने कॉलेज परिसर में इस तरह के भेदभाव का अनुभव किया, तो मैंने सोचा कि मुझे इस बात को अपने प्रोफेसरों के साथ साझा करना चाहिए.” पेरियार कैलिफोर्निया स्टेट यूनिवर्सिटी (सीएसयू) प्रणाली के माध्यम से एक नई नीति को लागू करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहे हैं, जो औपचारिक रूप से जाति भेदभाव को पहचानती है और ऐसे मामलों को रिपोर्ट करने का एक तरीका प्रदान करती है.
पहचान एक नया मील का पत्थर
इस नई नीति की सराहना करने वालों का कहना है कि यह नीति सीएसयू और अमेरिका के भीतर कई दलित छात्रों के अनुभवों को मान्यता प्रदान करती है. भारत जैसे दक्षिण एशियाई देशों में जातिगत भेदभाव गैरकानूनी है, लेकिन जानकारों का कहना है कि जातिगत पूर्वाग्रह अभी भी पूरी दुनिया में मौजूद हैं.
सीएसयू के पूरे देश में 23 परिसर हैं और 1 जनवरी को यह गैर-भेदभाव नीति के तहत जाति को मान्यता देने वाली पहली पूर्ण विश्वविद्यालय प्रणाली बन गई. जाति को मान्यता देने के प्रयासों में यह नीति मील का पत्थर भी है क्योंकि सीएसयू संयुक्त राज्य अमेरिका में चार वर्षीय सबसे बड़ी सार्वजनिक विश्वविद्यालय प्रणाली है.
सीएसयू प्रणाली के अलावा, कई अन्य विश्वविद्यालयों ने अपनी नीतियों में जाति को शामिल किया है, जिसमें कैलिफोर्निया, डेविस और ब्रैंडिस विश्वविद्यालय भी शामिल हैं.
हिंदू संगठनों ने किया विरोध
नई सीएसयू नीति और अन्य संस्थानों की जातिगत भेदभाव की मान्यता के लिए व्यापक समर्थन के बावजूद, सभी फैकल्टी मेंबर्स यानी संकाय सदस्य बोर्ड में नहीं थे. 500 से ज्यादा संकाय सदस्यों ने सार्वजनिक रूप से नीति का समर्थन किया, जबकि कम से कम 80 सदस्यों ने यह कहते हुए इसका विरोध किया कि यह नीति दक्षिण एशियाई छात्रों के खिलाफ भेदभाव को कायम रख सकती है.
हिंदू अमेरिकन फाउंडेशन भी इस नीति का विरोध कर रही है. फाउंडेशन की ओर से जारी एक वक्तव्य में कहा गया, "हम मानते हैं कि यह जोड़ बिना किसी सबूत के अत्यधिक गुमराह करने वाला है और भेदभाव को रोकने की बजाय, यह भारतीय और दक्षिण एशियाई मूल के हिंदू संकाय को असंवैधानिक रूप से अलग करके और लक्षित करके और अधिक भेदभाव का कारण बनेगा."
वक्तव्य में यह भी कहा गया है कि भेदभाव दर्शाने वाले शब्द ‘जाति' को यहां से हटाया जाए क्योंकि इससे भारत, हिंदुओं और जाति के बारे में जो नकारात्मक छवि बनी है, वह और सुदृढ़ होगी.
जागरूकता बढ़ाने के प्रयास
पेरियार कहते हैं कि जब उन्होंने पहली बार सीएसयू प्रणाली में बदलाव की वकालत करना शुरू किया, तो कुछ लोग इस बात से सहमत थे कि विश्वविद्यालयों के भीतर शिक्षा और सामाजिक संरचनाओं में जाति अपनी अहम भूमिका निभाती है. अब, वे और कुछ अन्य लोगों के साथ शोध और कार्यशालाओं के माध्यम से इस मुद्दे के बारे में जागरूकता बढ़ाने के लिए काम कर रहे हैं.
पेरियार इक्वॉलिटी लैब्स द्वारा किए गए सर्वेक्षण ‘कास्ट इन द युनाइटेड स्टेट्स' के साथ काम करते हैं. इस सर्वेक्षण ने इस बात का पर्दाफाश किया कि चार दलित छात्रों में से एक ने शारीरिक या मौखिक हमले का अनुभव किया है, जबकि एक तिहाई ने शिक्षा के स्थान पर भेदभाव की सूचना दी है.
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नीति के समर्थकों का कहना है कि जाति संरक्षण सही दिशा में एक कदम है. कुछ लोगों को लगता है कि यह मुद्दा अभी भी बहुत गहरे फैला हुआ है और कई बार तो जातिगत भेदभाव इस रूप में दिखता है जिसे सीधे रिपोर्ट नहीं किया जा सकता है.
डीडब्ल्यू से बातचीत में कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय, सैन डिएगो में क्रिटिकल मुस्लिम स्ट्डीज विभाग में प्रोफेसर शाइस्ता पटेल कहती हैं, "यह हिंसा का 2,500 साल पुराना ढांचा है. यह श्वेत वर्चस्व से बहुत पुराना है." पटेल पाकिस्तान के एक दलित मुस्लिम परिवार से हैं और कहती हैं कि उन्होंने भेदभाव का कई तरह से अनुभव किया है जिसमें हिंसा की धमकी भी शामिल है.
सुरक्षित वातावरण को बढ़ावा देना
हालांकि कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय की स्कूल प्रणाली ने एक समान मान्यता नीति नहीं अपनाई है, फिर भी पटेल के जातीय अध्ययन विभाग ने जाति-आधारित भेदभाव की निंदा करते हुए एक औपचारिक बयान जारी किया है.
बयान के मुताबिक, "अमेरिका समेत अधिकांश देशों में जातीय उत्पीड़न के शिकार समुदायों के लिए कोई कानूनी सुरक्षा नहीं है क्योंकि जाति को धर्म, वंश, नस्ल आदि से अलग श्रेणी के रूप में मान्यता नहीं दी जाती है. कानूनी सुरक्षा की कमी की वजह से दक्षिण एशियाई प्रवासी लोगों के साथ जाति-आधारित भेदभाव आसान हो जाता है."
पटेल का कहना है कि हालांकि उनका उपनाम उनकी जाति का संकेत नहीं देता है, फिर भी बहुत से लोग इसके बारे में जानते हैं और उन्होंने यूसीएसडी में साथी संकाय सदस्यों की ओर से भेदभाव का अनुभव किया है. पटेल कहती हैं कि हाल के वर्षों में, कई दलित छात्र, जिनमें से अधिकांश भेदभाव के डर से खुले तौर पर दलित के रूप में अपनी पहचान नहीं जाहिर करते हैं, वे अपने अनुभवों को बताने के लिए उनके पास पहुंचे हैं. वो कहती हैं, "जो लोग पहुंचे, उन सभी ने कहा कि वे दलित के तौर पर नहीं आए हैं."
फिलहाल पेरियार को उम्मीद है कि सीएसयू की नई नीति बदलाव के रास्ते खोलेगी, "वे सुरक्षित रहने के लिए अपनी पहचान छिपा रहे हैं. क्या यह समाधान है? कैंपस में अन्य छात्रों को प्रशिक्षित करने, उन्हें शिक्षित करने और जागरूकता पैदा करने के बाद छात्र महसूस कर सकते हैं कि वे एक सुरक्षित वातावरण में हैं."