कॉप29 सम्मेलन में अमीर देशों पर होगा दबाव
९ अक्टूबर २०२४इस बात पर पर गहरी असहमति है कि जलवायु वित्तीय सहायता या 'क्लाइमेट फाइनैंस' के लिए आखिर कितनी राशि चाहिए, यह रकम कौन देगा और इसमें क्या-क्या खर्च शामिल है.
इस वजह से यह तय है कि 11 से 22 नवंबर तक होने वाले कॉप29 सम्मेलन के एजेंडा में सबसे ऊपर 'क्लाइमेट फाइनैंस' ही होगा. चर्चा तो सबसे ज्यादा इसी को लेकर हो रही है, लेकिन विडंबना यह है कि अभी तक इसकी परिभाषा पर भी सहमति नहीं बन पाई है.
'क्लाइमेट फाइनैंसिंग' से क्या अभिप्राय है?
पेरिस समझौते में जो शब्दावली इस्तेमाल की गई थी, उसके मुताबिक 'क्लाइमेट फाइनैंस' का संक्षिप्त मतलब होता है वह रकम, जिसे इस तरीके से खर्च किया गया हो कि वह "ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन और जलवायु परिवर्तन के प्रति मजबूत विकास की तरफ बढ़ने के अनुकूल हो."
इसमें सौर ऊर्जा और पवन ऊर्जा जैसी स्वच्छ ऊर्जा, इलेक्ट्रिक गाड़ियों जैसी अपेक्षाकृत हरित तकनीक और समुद्र के बढ़ते जलस्तर को रोकने के लिए तटबंध लगाने जैसे मद में लगने वाला सरकारी या निजी पैसा शामिल है. लेकिन, उदाहरण के तौर पर, क्या पानी बचाने वाले होटल को दी जाने वाली सब्सिडी को इसमें शामिल किया जाएगा?
इस तरह के सवालों को कॉप सम्मेलनों ने सीधे संबोधित नहीं किया है. वहां 'क्लाइमेट फाइनैंस' का मतलब उन मुश्किलों से हो गया है, जो विकासशील देशों के सामने ग्लोबल वॉर्मिंग के लिए तैयार होने के लिए पैसे जुटाने को लेकर आती हैं. 1992 में हुई संयुक्त राष्ट्र की एक संधि के तहत, ग्लोबल वॉर्मिंग के लिए सबसे ज्यादा जिम्मेदार मुट्ठीभर अमीर देश यह पैसा देने के लिए बाध्य थे.
साल 2009 में अमेरिका, यूरोपीय संघ, जापान, ब्रिटेन, कनाडा, स्विट्जरलैंड, नॉर्वे, आइसलैंड, न्यूजीलैंड और ऑस्ट्रेलिया 2020 तक सालाना 100 अरब डॉलर देने को राजी हो गए थे, लेकिन यह पहली बार सिर्फ 2022 में हो पाया. इस देरी ने भरोसे को कमजोर किया और इन आरोपों को जन्म दिया कि अमीर देश अपनी जिम्मेदारी से मुंह मोड़ रहे हैं. उम्मीद की जा रही है कि कॉप29 में करीब 200 देश साल 2025 के आगे के वर्षों के लिए एक नए वित्तीय लक्ष्य पर सहमत हो जाएंगे.
जलवायु लक्ष्य हासिल करने के लिए वैश्विक सहयोग चाहिए
भारत ने हर साल 1,000 अरब डॉलर की मांग की है. कुछ और प्रस्तावों ने इससे भी ज्यादा धनराशि की बात की है, लेकिन जिन देशों से धनराशि देने की उम्मीद की जा रही है वो चाह रहे हैं कि दूसरी बड़ी अर्थव्यवस्थाएं भी पैसे दें.
उनका कहना है कि समय बदल गया है और 1990 के दशक के शुरुआती सालों के बड़े औद्योगिक देश आज के ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन के सिर्फ 30 प्रतिशत हिस्से के जिम्मेदार हैं. विशेष रूप से मौजूदा दौर के सबसे बड़े प्रदूषक चीन और खाड़ी के तेल उत्पादक देशों से भुगतान करने के लिए कहा जा रहा है. ये देश इस प्रस्ताव को मान नहीं रहे हैं.
संयुक्त राष्ट्र के विशेषज्ञों का अनुमान है कि चीन को छोड़कर विकासशील देशों को 2030 तक हर साल 2,400 अरब डॉलर की जरूरत होगी. हालांकि, क्लाइमेट फाइनैंस, विदेशी मदद (फॉरेन ऐड) और निजी फंडिंग के बीच की लकीर अक्सर काफी महीन हो जाती है. कई देश चाह रहे हैं कि शर्तें ज्यादा स्पष्ट हों, जिनमें यह साफ बताया जाए कि पैसा कहां से और किस रूप में आएगा.
दर्जनों ऐक्टिविस्टों, पर्यावरण और विज्ञान संगठनों ने मिलकर इसी महीने दुनियाभर की सरकारों को एक चिट्ठी लिखी. इसमें मांग की गई कि अमीर देश, विकासशील देशों को हर साल तीन स्पष्ट श्रेणियों में 1,000 अरब डॉलर दें.
इसमें से करीब 300 अरब डॉलर उत्सर्जन को कम करने के मद में सरकारी पैसा हो. 300 अरब डॉलर का फंड जलवायु परिवर्तन के मुताबिक नीतियां बनाने के लिए हो और करीब 400 अरब डॉलर आपदा राहत के लिए हो. आखिरी श्रेणी को 'घाटा और नुकसान' (लॉस एंड डैमेज) भी कहा जाता है.
मांग की गई है कि यह सारी राशि अनुदान की शक्ल में हो, ना कि कर्ज के रूप में. विकसित देश नहीं चाहते हैं कि कॉप29 में जो भी संधि हो, उसमें 'घाटा और नुकसान' के लिए कुछ भी शामिल किया जाए. इस बीच कॉप29 के मेजबान अजरबैजान ने जीवाश्म ईंधन के उत्पादकों से कहा है कि वो एक नए कोष में योगदान दें, जिसमें से विकासशील देशों के लिए पैसा जाएगा.
सीके/एसएम (एएफपी)