कॉमनवेल्थ खेलों का भविष्य अंधेरे में ?
१८ अप्रैल २०२४चार साल में एक बार होने वाले वाले कॉमनवेल्थ खेलों का अस्तित्व खतरे में नजर आ रहा है. इन खेलों में वो देश शामिल होते हैं जो पहले ब्रिटिश साम्राज्य का हिस्सा थे.
अप्रैल 2022 में, ऑस्ट्रेलियाई राज्य विक्टोरिया को 2026 के लिए मेजबानी का अधिकार दिया गया था, जिसमें 70 से ज्यादा देशों के भाग लेने की उम्मीद थी. घोषणा के ठीक एक साल बाद, ऑस्ट्रेलिया पीछे हट गया. आयोजकों के लिए कोई और देश खोज पाना मुश्किल हो रहा है. हालांकि कॉमनवेल्थ खेल अभी आगे भी खेले जाएंगे, लेकिन सवाल ये है कि कहीं ये खेल चंद दशकों के मेहमान तो नहीं?
1930 में इन खेलों की शुरुआत ब्रिटिश एंपायर गेम्स के नाम से हुई थी. 1970 में इन्हें कॉमनवेल्थ खेल बना दिया गया. 2022 में इनका 22वां संस्करण था जो ब्रिटेन के बर्मिंघम में आयोजित किया गया. इस आयोजन में 5,000 से अधिक एथलीटों ने 280 स्वर्ण पदकों के लिए 20 विभिन्न खेलों में हिस्सा लिया.
यह देखते हुए 2026 के खेल और भी बड़े होने चाहिए थे, और निश्चित रूप से, ऐसा लग रहा था कि इस बार ऑस्ट्रेलिया में हो रहा आयोजन बर्मिंघम के 90 करोड़ यूरो के खर्च को भी पीछे छोड़ देगा. दावे के मुताबिक बताये गए शुरुआती खर्च, 1.6 अरब यूरो से ज्यादा लागत लगने की आशंका के साथ ही विक्टोरिया के राज्य प्रमुख डैनियल एंड्रूज ने जुलाई 2023 में मेजबानी से हाथ पीछे खींच लिया.
कॉमनवेल्थ खेल की मेजबानी करना कितना उचित?
यह आकलन करना मुश्किल हो सकता है कि किसी प्रमुख खेल आयोजन की मेजबानी के वित्तीय फायदे लागत से अधिक हैं या नहीं, लेकिन आर्थिक मंदी की अनिश्चितता में, यह चौंकाने वाली बात नहीं है कि सरकारें अब फूंक-फूंक कर कदम रख रही हैं. केवल स्कॉटलैंड के शहर ग्लासगो ने ही 2014 में प्रतियोगिता को ठीक तरीके से मेजबानी करने में कोई रुचि दिखाई थी.
हो सकता है कि इन खेलों का आयोजन ओलंपिक जितना कठिन या महंगा ना हो, लेकिन उसमें और भी कई पहलू हैं. पेरिस के स्कीमा बिजनेस स्कूल में खेल और भू-राजनीतिक अर्थव्यवस्था के प्रोफेसर साइमन चैडविक ने डीडब्ल्यू को बताया, "कॉमनवेल्थ खेल काफी छोटे खेल होते हैं. एक तो ये कमर्शियल पार्टनरों को ओलंपिक खेल जितने पैसे नहीं दे पाते, ना ही ये उन्हें उस स्तर के भारी दर्शक जुटा पाते हैं.”
ऑस्ट्रेलिया के पीछे हटने के बाद, मलेशिया को 1998 के बाद पहली बार खेलों का आयोजन करने का मौका दिया गया, लेकिन उसने भी इंकार कर दिया.
मलेशिया में एक स्वतंत्र मीडिया संगठन, ट्वेंटीटू13 के संपादक हरेश देओल ने डीडब्ल्यू को बताया, "मौजूदा आर्थिक माहौल, जीवन यापन की बढ़ती लागत और कमजोर मलेशियाई मुद्रा रिंगेट को देखते हुए मलेशिया का जवाब एकदम साफ है. कॉमनवेल्थ खेल फेडरेशन से मिला 11.7 करोड़ यूरो का सहयोग भी उनके जवाब को नहीं बदल सका.”
देओल ने इसकी और भी वजहें बताईं, जैसे समय की कमी और दूसरे खेल आयोजन, "इसके अलावा, अब मुश्किल से दो साल के बाद ही, मलेशिया को एक और बहु-खेल प्रतियोगिता की मेजबानी करनी है, वो हैं 2027 एसईए (साउथईस्ट एशिया) खेल.”
देओल का मानना है कि मलेशिया में ज्यादातर लोगों ने इस फैसले का समर्थन किया है. "यह कहना ठीक होगा कि मलेशियाई जनता ज्यादा गंभीर मुद्दों को प्राथमिकता देना बेहतर समझेगी. साथ ही, मलेशिया सरकार ने आयोजन की मेजबानी के अवसरों पर भी किसी जानकारी का ज्यादा प्रचार नहीं किया.”
टेलर स्विफ्ट जैसा प्रभाव
मेजबानी करने या ना करने का फैसला लेने के लिए सिंगापुर ने एक व्यवहारिकता अध्ययन किया और फिर अपना हाथ पीछे खींच लिया. टुडे अखबार के पूर्व खेल संपादक जेरार्ड वोंग को यह बड़ी बात नहीं लगी. कॉमनवेल्थ खेलों की बजाए देश ऐसे खेलों की मेजबानी करना चाहता है जिनमें कम लागत लगे, जो आसानी से आयोजित हो जाएं और ज्यादा प्रतिष्ठित हों.
वोंग ने डीडब्ल्यू को बताया, "जब बड़े कार्यक्रमों के आयोजन की बात आती है, तो सिंगापुर का प्रशासन यह सुनिश्चित करता है कि उनकी लागत के हिसाब से ही बड़े पैमाने पैर जनता आए ताकि पैसे वसूल हों.”
उन्होंने आगे बताया, "टेलर स्विफ्ट को विशेष रूप से मार्च में छह रातों के लिए यहां अपना कंसर्ट करने के लिए बुलाया गया था ताकि सिंगापुर को इससे बड़ा फायदा मिले.”
कोई औपचारिक आंकड़े तो नहीं हैं, लेकिन ऐसा माना जा रहा था कि स्विफ्ट को अपने छह दिन के कंसर्ट के लिए कुल मिलाकर 1.4 से 2 करोड़ डॉलर मिले हैं, वो भी दक्षिणपूर्व एशिया में उनके पहले शो के लिए. वोंग ने कहा, "कंसर्ट में 55,000 टिकट बिके, लोग कंसर्ट देखने के लिए अलग-अलग जगहों से सिंगापुर आ रहे थे और होटल के दाम मानो आसमान छू रहे थे.”
कई रिपोर्टों के अनुसार, मार्च में हुए इस कंसर्ट की बदौलत सिंगापुर में लगभग 26 से 37.5 करोड़ डॉलर आया. वोंग ने कहा, "अब टेलर स्विफ्ट के कंसर्ट की तरह कॉमनवेल्थ खेल भी सिंगापुर में इतना पैसा ला पाएंगे, ये कहना मुश्किल होगा.”
उन्होंने आगे कहा, "जरूरी बात यह है कि हम खुद को और ज्यादा सकारात्मक तरीकों से खबरों में ला पाए.”
अन्य खेलों को दे रहे प्राथमिकता
भले ही यूनाइटेड किंगडम, ऑस्ट्रेलिया, न्यूजीलैंड और कनाडा जैसे देश अभी भी इस आयोजन को तवज्जो दे रहे हैं, लेकिन क्या सभी कॉमनवेल्थ सदस्य भी ऐसा मानते हैं, ये कहना मुश्किल है.
वोंग ने कहा, "एक समय था जब कॉमनवेल्थ खेलों में हिस्सा लेना सिंगापुर के लिए बहुत बड़ी बात थी, लेकिन मुझे लगता है कि हमारे लक्ष्य अब बदल गए हैं.” उन्होंने आगे कहा, "हम इस समय एशियाई खेलों और ओलंपिक पर ज्यादा ध्यान केंद्रित कर रहे हैं. बड़े पैमाने पर देखा जाए तो ये दोनों ही कॉमनवेल्थ खेलों की तुलना में अधिक महत्वाकांक्षी हो गए हैं.”
देओल के मुताबिक मलेशिया में भी ऐसा ही देखा जा रहा है. "आज भी लोग 1998 में कुआलालंपुर में हुए कॉमनवेल्थ खेलों की मेजबानी को याद करते हैं, लेकिन यह उन्हें गुलामी की भी याद दिलाता है. इसलिए अभी एशियाई खेलों और ओलंपिक में लोगों की ज्यादा रुचि देखी जा रही है.”
देयोल कहते हैं, "सबसे बड़ा मुद्दा यह है कि ये खेल एक ऐसे ब्रिटिश साम्राज्य का प्रतीक हैं जिसका अस्तित्व दशकों पहले खत्म हो चुका है."
इतिहास से भविष्य की ओर
चैडविक ने कहा, "कॉमनवेल्थ खेलों की सबसे बड़ी समस्याओं में से एक इस बात पर जोर देना है कि इसका अस्तित्व आज क्यों है और इसकी भूमिका आज क्या है?"
उन्होंने आगे कहा, "गुलामी के बाद की इस दुनिया में जो वैश्विक उत्तर से वैश्विक दक्षिण की ओर जा रही है, उस संदर्भ में ये खेल बहुत ही पुराने खयालातों को दर्शाते हैं. साथ ही ये खेल उस राष्ट्रीय आत्म-पहचान और गौरव की भावना से परे हैं जो अब कई कॉमनवेल्थ देशों में उजागर हुई है.”
भले ही कॉमनवेल्थ के कई देशों के अभी भी यूनाइटेड किंगडम के साथ मजबूत संबंध हैं, चैडविक को लगता है कि बदलाव भी जरूरी है. उन्होंने कहा, ''ये खेल अपने साथ उपनिवेशवाद, उत्पीड़न और गुलामी की टीस लिए चलते हैं''. उन्होंने कहा कि अगर इन खेलों को जिंदा रखना है तो इन्हें एक नई ब्रांडिंग और पैकेजिंग की जरूरत पड़ेगी.
और हो सकता है कि यह भी पर्याप्त ना हो. वोंग ने यह भी कहा,"मैं इन खेलों को भविष्य में नहीं देखता हूं," वोंग के मुताबिक, "ये खेल ब्रिटिश उपनिवेशवाद के जश्न और उसकी याद दिलाने के अलावा और हैं ही क्या? यह खेल अंग्रेजों की गुलामी का एक हिस्सा बन कर रह गया है और मुकाबले के लिहाज से भी काफी व्यर्थ हो गया है, और मुझे आश्चर्य नहीं होगा अगर 2040 तक कॉमनवेल्थ खेलों का अस्तित्व ही मिट जाए."