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एक बदलाव से लौटेगी हजारों आंखों में रोशनी

आदर्श शर्मा
३० अक्टूबर २०२४

भारत में करीब 12 लाख लोग कॉर्नियल अंधेपन के शिकार हैं. कॉर्निया ट्रांसप्लांट करके इनका इलाज किया जा सकता है. लेकिन देश में पर्याप्त मात्रा में कॉर्निया डोनेट नहीं किए जा रहे हैं. केंद्र सरकार इसमें सुधार लाना चाहती है.

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भारत में नेत्र दान करते लोग
भारत में नेत्र दान के लिए अभियान तस्वीर: Manjunath Kiran/AFP/Getty Images

आंख हमारे शरीर के सबसे संवेदनशील अंगों में से एक है. इसी की बदौलत हम दुनिया देख पाते हैं. आंख में सबसे बाहर की ओर एक पारदर्शी परत होती है, जिसे कॉर्निया कहा जाता है. यह असल में एक पारदर्शी टिशू होता है. कॉर्निया धूल, मिट्टी और कीटाणुओं से हमारी आंख की सुरक्षा करता है. साथ ही आंख में प्रवेश करने वाली रोशनी को नियंत्रित करता है और उसे रेटिना पर फोकस करने में अहम भूमिका निभाता है.

अगर बीमारी या चोट लगने की वजह से कॉर्निया को नुकसान होता है तो इससे हमारी देखने की क्षमता भी प्रभावित होती है. गंभीर नुकसान होने पर नजर कमजोर हो सकती है या दिखना बंद भी हो सकता है. इसे कॉर्नियल अंधापन कहा जाता है. भारत में यह एक बड़ी समस्या है. 2015 से 2019 के बीच राष्ट्रीय नेत्रहीनता एवं दृष्टिदोष सर्वेक्षण किया गया था. इसमें सामने आया कि 50 साल से कम उम्र के अंधे व्यक्तियों में से करीब 38 फीसदी को कॉर्नियल अंधापन था.

पिछले साल इंडियन जर्नल ऑफ ऑप्थैल्मोलॉजी में ‘कॉर्नियल ब्लाइंडनेस एंड आई बैंकिंग' शीर्षक से एक समीक्षा लेख प्रकाशित हुआ था. इसके मुताबिक, भारत में लगभग 12 लाख लोग कॉर्नियल अंधेपन से जूझ रहे हैं. वहीं, हर साल 25 से 30 हजार नए मामले भी सामने आते हैं. अच्छी बात यह है कि इस अंधेपन को दूर किया जा सकता है लेकिन उसके लिए कॉर्निया ट्रांसप्लांट करने की जरूरत होती है. इसमें बेकार हो चुके कॉर्निया को हटाया जाता है और उसकी जगह स्वस्थ कॉर्निया लगा दिया जाता है. इसके साथ ही वैज्ञानिक कृत्रिम कॉर्निया भी विकसित कर रहे हैं.

कॉर्निया कहां से मिलता है?

कॉर्निया ट्रांसप्लांट के मामले में दो पक्ष होते हैं. एक डोनर यानी दानकर्ता, जिससे स्वस्थ कॉर्निया लिया जाता है. दूसरा प्राप्तकर्ता, जिसकी आंख में स्वस्थ कॉर्निया लगाया जाता है. तकनीकी भाषा में इसे प्रत्यारोपण करना कहते हैं. कॉर्निया की पहली सफल ट्रांसप्लांट सर्जरी 1905 में हुई थी. इस मामले में डोनर एक 11 साल का बच्चा था. उसकी आंख में गंभीर चोट आई थी, जिसका इलाज मुमकिन नहीं था. लेकिन आंख का कॉर्निया सही-सलामत था.

डॉक्टर एडुअर्ड चम ने इस स्वस्थ कॉर्निया को एक किसान की दोनों आंखों में ट्रांसप्लांट किया था. सर्जरी के बाद बाईं आंख की दृष्टि लौट आई थी, वहीं दाईं आंख में ट्रांसप्लांट सफल नहीं रहा था. इस सर्जरी ने कॉर्नियल अंधेपन को दूर करने की दिशा में एक नया रास्ता खोला था. आज कॉर्निया ट्रांसप्लांट सबसे ज्यादा होने वाली ट्रांसप्लांट सर्जरी में से एक है. लेकिन अब स्वस्थ कॉर्निया जीवित नहीं बल्कि मृत व्यक्ति से लिया जाता है.

भारत में ट्रांसप्लांट के लिए कॉर्निया की मांग लगातार बढ़ रही है. लेकिन उतने कॉर्निया डोनेट नहीं किए जा रहे हैं. एक अनुमान के मुताबिक, देश में हर साल एक लाख कॉर्निया ट्रांसप्लांट करने की जरूरत होती है. इसके लिए सालाना दो लाख से ज्यादा टिशू प्राप्त होने चाहिए. लेकिन राष्ट्रीय अंधापन एवं दृष्टिदोष नियंत्रण कार्यक्रम के डेटा के मुताबिक, 2010 से 2022 तक हर साल औसतन 54 हजार कॉर्निया टिशू ही प्राप्त किए गए.

क्या बदलाव ला सकती है सरकार?

भारत में कॉर्निया समेत किसी भी अंग को दान करने के दो तरीके होते हैं. पहला- कोई व्यक्ति जीवित रहते हुए ही अपनी आंखों या किसी दूसरे अंग को दान करने की शपथ ले. इसके लिए दो गवाहों की उपस्थिति में एक फॉर्म भरना होता है. इनमें से एक गवाह कोई करीबी रिश्तेदार होना चाहिए. वहीं दूसरे तरीके में व्यक्ति की मौत होने के बाद मृतक के परिजनों से सहमति ली जाती है.

समस्या यह है कि भारत में नेत्रदान को लेकर जागरूकता की कमी है. भारत में हर दस लाख में से 3-4 लोग ही नेत्रदान करते हैं. अमेरिका में यह संख्या 20 से 25 के बीच है. वहीं, पड़ोसी देश श्रीलंका में यह आंकड़ा दस है. इकॉनमिक टाइम्स की हेल्थ वर्ल्ड वेबसाइट की एक रिपोर्ट के मुताबिक, हर साल एक चौथाई जरूरतमंदों का ही कॉर्निया ट्रांसप्लांट हो पाता है. बाकी 75 फीसदी मरीज कॉर्निया मिलने का इंतजार करते ही रह जाते हैं.

इंडियन एक्सप्रेस की एक रिपोर्ट के मुताबिक, इस स्थिति में सुधार लाने के लिए केंद्र सरकार एक नीतिगत बदलाव करने पर विचार कर रही है. इसके तहत, अस्पतालों में जिन लोगों की भी मौत होगी, उन्हें अपने आप कॉर्निया डोनर मान लिया जाएगा. हालांकि, अगर व्यक्ति मौत होने से पहले ही कॉर्निया दान करने से इनकार कर देता है या बाद में उसके परिजन इसके लिए मना करते हैं तो उस स्थिति में कॉर्निया डोनेट नहीं किया जाएगा.

इंसान के सीने में सूअर का दिल

फिर भी उम्मीद जताई जा रही है कि यह बदलाव होने से कॉर्निया डोनेशन में बढ़ोतरी होगी, जिससे कॉर्नियल अंधेपन से जूझ रहे हजारों लोग फिर से साफ देख पाएंगे.

शरीर अक्सर बाहरी अंगों को नकार देता है लेकिन यूरोपियन आई बैंक एसोसिएशन के मुताबिक, लिवर और किडनी जैसे ठोस अंगों की तुलना में कॉर्निया ट्रांसप्लांट के सफल होने की संभावना ज्यादा होती है. इसका श्रेय कॉर्निया की खास जैविक प्रकृति को जाता है. दरअसल, कॉर्निया में रक्त वाहिकाएं नहीं होती हैं. इस वजह से शरीर की प्रतिरक्षा प्रणाली द्वारा ट्रांसप्लांट किए गए कॉर्निया को अस्वीकार करने की आशंका कम होती है. साथ ही कॉर्निया के चलते बीमारी फैलने का खतरा भी कम होता है.

 

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