भारत: कई अदालती फैसलों में राजनीति की छाया क्यों दिखती है?
७ मार्च २०२४धनंजय सिंह को जिस मामले में सजा हुई है, वो चार साल पुराना है जिसमें उन पर आरोप थे कि उन्होंने पीडब्ल्यूडी के एक अधिकारी को धमकी दी और उनका अपहरण कर लिया. उनके खिलाफ अपहरण, रंगदारी मांगने, धमकी देने संबंधी धाराओं में केस दर्ज किए गए.
इस केस में धनंजय सिंह की गिरफ्तारी भी हुई थी और फिर जमानत मिल गई. बाद में यह केस बिल्कुल निष्क्रिय सा हो गया. कुछ महीनों पहले ही इसमें फिर कार्रवाई शुरू हुई और अब उन्हें इसमें दोषी मानकर सात साल की सजा सुनाई गई है.
बात अगर धनंजय सिंह की ही की जाए, तो उनका पहले से ही अपराध से नाता रहा है और उसके बाद उन्होंने राजनीति में प्रवेश किया. हालांकि, राजनीति में आने के बाद भी अपराध की दुनिया से उनका वास्ता बना रहा. इसके गवाह 40 से ज्यादा वो मुकदमे हैं, जो 1990 के दशक से ही उनके खिलाफ दर्ज होते रहे हैं.
लेकिन ये सारे मुकदमे धीरे-धीरे न्यायपालिका में इसलिए खारिज होते गए कि उनके खिलाफ ठोस सबूत नहीं मिले. यानी, उन सभी मामलों में वो बरी हो गए. इनमें से कुछ तो ऐसे मामले थे, जिन्हें बेहद संगीन कहा जाता है. इनमें हत्या जैसे अपराध में शामिल होने जैसे आरोप भी थे.
लोकसभा चुनाव लड़ना चाहते थे धनंजय सिंह
जिस मामले में उन्हें सजा हुई है, उसकी टाइमिंग को लेकर कई तरह के सवाल उठ रहे हैं. धनंजय सिंह जौनपुर से जनता दल यूनाइटेड (जेडीयू) से टिकट चाह रहे थे. जेडीयू के बीजेपी से गठबंधन के बाद वह आश्वस्त थे कि उन्हें टिकट मिल जाएगा, बीजेपी से नहीं तो जेडीयू से. लेकिन बीजेपी ने कांग्रेस पार्टी से बीजेपी में आए कृपाशंकर सिंह को टिकट दे दिया.
टिकट न मिलने के बाद धनंजय सिंह ने शहर भर में पोस्टर छपवाए, जिनसे साफ जाहिर था कि वो पूरी ताकत से चुनाव लड़ने के मूड में हैं. इसी बीच ये अदालती मामला आ गया और वो सजायाफ्ता बन गए. यानी, अब वो चुनाव नहीं लड़ पाएंगे.
जेल जाते वक्त धनंजय सिंह ने आरोप लगाया कि उनके खिलाफ साजिश की गई है, ताकि वो चुनाव न लड़ सकें. लेकिन सवाल यह उठता है कि इस षड्यंत्र में न्यायालय कैसे शामिल हो सकता है. हालांकि यह जरूर है कि हाल में ऐसे कई फैसले आए हैं, खासकर निचली अदालतों के, जब उन फैसलों की ताशीर में राजनीतिक रुझान की झलक देखी गई.
बड़ी संख्या में विपक्षी नेताओं पर कार्रवाई
धनंजय सिंह को एमपीएमएलए विशेष कोर्ट ने सजा सुनाई है और इस कोर्ट से अब तक यूपी में 300 से ज्यादा नेताओं को सजा सुनाई गई है. उनमें ज्यादातर विपक्षी दलों के ही नेता शामिल हैं. हालांकि इनमें से ज्यादातर का संबंध आपराधिक जगत से रहा, लेकिन अपराध जगत से संबंध रखने वाले ऐसे विधायकों-सांसदों के खिलाफ फैसलों की सूची बहुत छोटी है, जो सत्ता पक्ष से संबंधित हैं.
समाजवादी पार्टी के नेता आजम खान, उनके बेटे अब्दुल्ला आजम खान, अतीक अहमद, अशरफ अहमद, मुख्तार अंसारी, उसके भाई अफजाल अंसारी, बेटा अब्दुल्ला अंसारी जैसे तमाम नेताओं को अलग-अलग मामलों में सजा सुनाई जा चुकी है. हालांकि, इसी दौरान सत्ता पक्ष के विधायक कुलदीप सेंगर को भी आजीवन कारावास की सजा दी गई और उनका भी राजनीतिक करियर खत्म हो गया, लेकिन सत्ता पक्ष के नेताओं के उदाहरण बहुत कम हैं. उनके मामलों की पैरवी में भी हीलाहवाली और लटकाए रखने के आरोप लगते हैं.
अफजाल अंसारी को तो गैंगस्टर मामले में निचली अदालत ने चार साल की सजा सुना दी थी, लेकिन उन्हें सुप्रीम कोर्ट से राहत मिल गई. वह एक बार फिर 2024 के लोकसभा चुनाव के लिए गाजीपुर से मैदान में हैं.
भारतीय संविधान के अनुच्छेद 102(1) और जन प्रतिनिधित्व अधिनियम, 1951 के तहत अगर किसी भी जनप्रतिनिधि को दो साल से ज्यादा की सजा मिली है, तो उसकी सदस्यता तत्काल प्रभाव से चली जाएगी. वह आगे भी छह साल तक चुनाव लड़ने के योग्य नहीं रहेगा.
अलग-अलग रवैये पर सवाल
यूपी में जब अब्दुल्ला आजम और उनके बेटे अब्दुल्ला आजम को अलग-अलग मामलों में सजा हुई, तो उनकी विधानसभा सदस्यता तत्काल समाप्त करने की स्पीकर की तरफ से अधिसूचना एक-दो दिन के भीतर आ गई.
वहीं, जब बीजेपी विधायक विक्रम सिंह सैनी को स्पेशल एमपी-एमएलए कोर्ट ने मुजफ्फरनगर दंगों के लिए दोषी ठहराते हुए अक्टूबर 2022 में दो साल की सजा सुनाई. विधानसभा सचिवालय की तरफ से उनकी सदस्यता रद्द करने संबंधी अधिसूचना जारी करने में करीब एक महीना लग गया. इस देरी के लिए राष्ट्रीय लोकदल की तरफ से स्पीकर के दफ्तर को पत्र भी लिखा गया था.
अभी पिछले दिनों सुल्तानपुर की एमपी एमएलए कोर्ट ने कांग्रेस नेता और सांसद राहुल गांधी को एक ऐसे मामले में समन भेजकर तलब कर लिया कि उन्होंने कर्नाटक में एक प्रेस कॉन्फ्रेंस के दौरान गृहमंत्री अमित शाह के लिए अपमानजनक शब्दों का इस्तेमाल किया था. राहुल गांधी उस दौरान 'भारत जोड़ो न्याय यात्रा' पर थे और फिर वहीं से वह कोर्ट के सामने हाजिर हुए.
राहुल गांधी को ऐसे ही एक मामले में गुजरात की एक अदालत ने दो साल की सजा भी सुनाई थी, जिससे उनकी लोकसभा की सदस्यता चली गई थी. हालांकि, बाद में सुप्रीम कोर्ट से वह न सिर्फ बरी हुए बल्कि उनकी सदस्यता भी बहाल हो गई.
लखनऊ में वरिष्ठ पत्रकार सिद्धार्थ कलहंस कहते हैं कि सीधे तौर पर तो यह कहना ठीक नहीं है कि अदालती फैसलों पर राजनीति का असर है, लेकिन पिछले कुछ समय में कुछ ऐसे फैसले जरूर आए हैं जिन्होंने ज्यादातर विपक्षी दलों के नेताओं को ही प्रभावित किया है. डीडब्ल्यू से बातचीत में कलहंस कहते हैं, "शुरू में तो ये चीजें इग्नोर की गईं, लेकिन अब पब्लिक में चर्चा हो रही है कि अदालती फैसलों पर कहीं-न-कहीं राजनीति का असर है. यानी, अदालतों पर लोगों को उंगली उठाने का मौका मिल रहा है."
कलहंस आगे कहते हैं, "सत्ता पक्ष के कई नेताओं के खिलाफ हेट स्पीच जैसे मामलों में भी हीलाहवाली हुई है, जबकि विपक्ष के कुछ नेताओं के मामलों में मामूली धाराओं में भी कठोर फैसले आए हैं. लोअर जूडिशरी के फैसलों पर सबसे ज्यादा उंगलियां उठ रही हैं. कई बार तो इन फैसलों को ऊंची अदालतों में बदला भी गया है, लेकिन तब तक इन निर्णयों से राजनीतिक लाभ लोगों को मिल चुका था."
फैसलों के बाद नियुक्तियां
अदालती फैसलों पर उंगलियां इसलिए भी उठ रही हैं कि कुछ विवादास्पद मामलों में सरकार के मनमाफिक फैसला देने वाले जजों को रिटायरमेंट के बाद पुरस्कृत भी किया गया है. ताजा उदाहरण वाराणसी के ज्ञानवापी मस्जिद के तहखाने में पूजा का अधिकार संबंधी फैसला देकर चर्चित हुए जज डॉ अजय कृष्ण विश्वेश का है. रिटायरमेंट के महज एक महीने बाद सरकार ने उन्हें डॉक्टर शकुंतला मिश्रा राष्ट्रीय पुनर्वास यूनिवर्सिटी का लोकपाल नियुक्त कर दिया. डॉक्टर विश्वेश 31 जनवरी को रिटायर हुए और 1 मार्च को उन्हें इस पद पर नियुक्त कर दिया गया.
सिद्धार्थ कलहंस कहते हैं, "इन फैसलों पर राजनीतिक संलिप्तता के आरोपों की पुष्टि इस बात से भी होती है कि हाल के कुछ फैसलों में विशेष अदालतों के खिलाफ हाईकोर्ट की नजरें टेढ़ी हुई हैं. लेकिन एक बात यह भी है कि सत्ता पक्ष के मामलों में शासन-प्रशासन की ओर से तेजी नहीं दिखाई जाती, जिससे फैसलों में देरी होती है. वहीं, विपक्षी नेताओं के मामले में पैरवी में तेजी दिखाई जाती है."
बात अगर धनंजय सिंह की ही की जाए, तो जौनपुर में माना जा रहा था कि यदि वह बगावती तेवर दिखाते हुए निर्दलीय या फिर किसी दूसरी पार्टी से चुनाव लड़ गए, तो बीजेपी उम्मीदवार को नुकसान पहुंचा सकते हैं. ऐसे में तत्काल उनके खिलाफ एक ऐसे फैसले ने सवाल खड़े कर दिए, जिसने उन्हें चुनाव लड़ने के काबिल ही नहीं रखा. सिद्धार्थ कलहंस कहते हैं कि फैसलों पर राजनीतिक प्रभाव है या नहीं या फिर कितना है, इसका प्रमाण दे पाना तो मुश्किल है, लेकिन यदि ऐसा है तो निश्चित तौर पर यह लोकतंत्र और न्यायपालिका दोनों के लिए घातक है.