क्या गांधी ने भगत सिंह की फांसी को रोकने की कोशिश नहीं की?
२ अक्टूबर २०१९सोशल मीडिया पर महात्मा गांधी और जवाहर लाल नेहरू के बारे में ऐसी कई बातें फैलाई जा रही हैं, जिनका तथ्य से कोई लेना देना नहीं है. भारत का दक्षिणपंथी समुदाय गांधी और नेहरू को विलेन साबित करने में लगा है. इसी कड़ी में कई सारी ऐसी झूठ फैलाई जाती हैं जिससे गांधी को विलेन साबित किया जा सके. सोशल मीडिया के जमाने में लोग वॉट्सऐप और फेसबुक पर आए मैसेजों को सच मान अपनी राय कायम कर लेते हैं. हम आपको गांधी के बारे में चलने वाले कुछ झूठ और उनके पीछे की सच्चाई बताएंगे.
भ्रम- गांधी ने भगत सिंह की फांसी को रोकने की कोशिश नहीं की.
सच- गांधी जयंती से चार दिन पहले भगत सिंह की जयंती भी आती है. इन दिनों एक बात कहा जाना बहुत आम है कि गांधी ने भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरू की फांसी रोकने की कोशिश नहीं की थी. लेकिन ये सच नहीं है. 7 अक्टूबर 1930 को भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरू को फांसी की सजा सुनाई गई थी. उनकी फांसी के लिए 24 मार्च 1931 की तारीख तय की गई. कोर्ट ट्रायल और भूख हड़ताल की वजह से भगत सिंह और उनके साथी युवाओं के बीच में काफी लोकप्रिय हो गए थे. गांधी उस समय भारत के सबसे बड़े नेता बन चुके थे. ऐसे में सबको गांधी से उम्मीद थी कि वो इस मामले में तुरंत ही कुछ करेंगे. 17 फरवरी 1931 को गांधी और इरविन के बीच समझौता हुआ. भगत सिंह के समर्थक चाहते थे कि गांधी इस समझौते की शर्तों में भगत सिंह की फांसी रोकना शामिल करें.
गांधी ने ऐसा नहीं किया. इसकी वजह उन्होंने यंग इंडिया अखबार में लिखे लेख में बताई. उन्होंने लिखा, "कांग्रेस वर्किंग कमिटी भी मुझसे सहमत थी. हम समझौते के लिए इस बात की शर्त नहीं रख सकते थे कि अंग्रेजी हुकूमत भगत, राजगुरु और सुखदेव की सजा कम करे. मैं वायसराय के साथ अलग से इस पर बात कर सकता था." गांधी ने वायसराय से 18 फरवरी को अलग से भगत सिंह और उनकी साथियों की फांसी के बारे में बात की. इसके बारे में उन्होंने लिखा, ''मैंने इरविन से कहा कि इस मुद्दे का हमारी बातचीत से संबंध नहीं है. मेरे द्वारा इसका जिक्र किया जाना शायद अनुचित भी लगे. लेकिन अगर आप मौजूदा माहौल को बेहतर बनाना चाहते हैं, तो आपको भगत सिंह और उनके साथियों की फांसी की सजा खत्म कर देनी चाहिए. वायसराय को मेरी बात पसंद आई. उन्होंने कहा – मुझे खुशी है कि आपने इस तरीके से मेरे सामने इस बात को उठाया है. सजा कम करना मुश्किल होगा, लेकिन उसे फिलहाल रोकने पर विचार किया जा सकता है.''
इरविन ने ब्रिटिश सरकार को भेजी अपनी रिपोर्ट में भगत सिंह की सजा और गांधी के बारे में कहा,''गांधी चूंकि अहिंसा में यकीन करते हैं इसीलिए वो किसी की भी जान लिए जाने के खिलाफ हैं. मगर उन्हें लगता है कि मौजूदा हालात में बेहतर माहौल बनाने के लिए ये सजा फिलहाल मुलतवी कर देनी चाहिए.'' गांधी पहले सजा खत्म करवाने की जगह सजा टलवाना चाहते थे. क्योंकि अंग्रेज हुकूमत की सजा को सीधे खत्म कर देना आसान नहीं था. भगत सिंह पर अंग्रेज अधिकारी की हत्या का मामला था. ब्रिटिश सरकार उन्हें रिहा कर ये संदेश नहीं देना चाहती थी कि अंग्रेज अधिकारी की हत्या कर कोई बच सकता है.
गांधी ने भगत सिंह की फांसी रोकने के लिए कानूनी रास्ते भी तलाशने शुरू किए. 29 अप्रैल, 1931 को सी विजयराघवाचारी को भेजी चिट्ठी में गांधी ने लिखा, "इस सजा की कानूनी वैधता को लेकर ज्यूरिस्ट सर तेज बहादुर ने वायसराय से बात की. लेकिन इसका भी कोई फायदा नहीं निकला." गांधी के सामने बड़ी परेशानी ये थी कि ये क्रांतिकारी खुद ही अपनी फांसी का विरोध नहीं कर रहे थे. गांधी एक कोशिश में थे कि भगत सिंह और उनके साथी एक वादा कर दें कि वो आगे हिंसक कदम नहीं उठाएंगे. इसका हवाला देकर वो अंग्रेजों से फांसी की सजा रुकवा लेंगे. लेकिन ऐसा नहीं हुआ. 19 मार्च 1931 को गांधी ने इरविन से फिर भगत सिंह और उनके साथियों को लेकर बात की. इरविन ने गांधी को जवाब देते हुए कहा, "फांसी की तारीख आगे बढ़ाना, वो भी बस राजनैतिक वजहों से, वो भी तब जबकि तारीख का ऐलान हो चुका है, सही नहीं होगा.
सजा की तारीख आगे बढ़ाना अमानवीय होगा. इससे भगत, राजगुरु और सुखदेव के दोस्तों और रिश्तेदारों को लगेगा कि ब्रिटिश सरकार इन तीनों की सजा कम करने पर विचार कर रही है." गांधी ने इसके बाद भी कोशिश जारी रखी. उन्होंने आसिफ अली को लाहौर में भगत सिंह और उनके साथियों से मिलने भेजा. वो बस एक वादा चाहते थे कि भगत सिंह और उनके साथी हिंसा का रास्ता छोड़ देंगे. इससे वो अंग्रेजों के साथ बात कर सकेंगे. लेकिन आसिफ अली और भगत सिंह की मुलाकात ना हो सकी. आसिफ अली ने लाहौर में प्रेस को बताया, "मैं दिल्ली से लाहौर आया, ताकि भगत सिंह से मिल सकूं. मैं भगत से एक चिट्ठी लेना चाहता था, जो रिवॉल्यूशनरी पार्टी के उनके साथियों के नाम होती. जिसमें भगत अपने क्रांतिकारी साथियों से कहते कि वो हिंसा का रास्ता छोड़ दें. मैंने भगत से मिलने की हर मुमकिन कोशिश की, लेकिन कामयाब नहीं हो पाया."
एक और झटका लगने के बाद भी गांधी कोशिशों में लगे रहे. 26 मार्च से कराची में कांग्रेस का अधिवेशन शुरू होना था. गांधी को इस अधिवेशन में जाने के लिए निकलना था. लेकिन 21 मार्च 1931 के न्यूज क्रॉनिकल में रॉबर्ट बर्नेज ने लिखा, "गांधी कराची अधिवेशन के लिए रवाना होने में देर कर रहे हैं, ताकि वो भगत सिंह की सजा पर वायसराय से बात कर सकें." 21 मार्च को गांधी और इरविन की मुलाकात हुई. गांधी ने इरविन से फिर भगत सिंह की सजा रोकने की मांग की. 22 मार्च को फिर से गांधी और इरविन की मुलाकात हुई. इरविन ने वादा किया कि वो इस पर विचार करेंगे. 23 मार्च को यानी फांसी की तारीख से एक दिन पहले गांधी ने इरविन को एक चिट्ठी लिखकर कई कारण गिनाए और इस सजा को रोकने की अपील की. लेकिन 23 मार्च की शाम को सजा की मुकर्रर तारीख से एक दिन पहले भगत सिंह और उनके साथियों को फांसी दे दी गई.
24 मार्च 1931 को गांधी कराची पहुंचे. तब तक भगत सिंह की मौत की खबर फैल चुकी थी. वहां खड़े नौजवान भगत सिंह जिंदाबाद और गांधी के विरोध में नारे लगा रहे थे. उन लोगों का आरोप था कि गांधी ने जानबूझकर भगत सिंह को नहीं बचाया. गांधी ने अपने भाषण में इस बात का जिक्र किया. उन्होंने कहा, "किसी खूनी, चोर या डाकू को भी सजा देना मेरे धर्म के खिलाफ है. मैं भगत सिंह को नहीं बचाना चाहता था, ऐसा शक करने की तो कोई वजह ही नहीं हो सकती. मैं वायसराय को जितनी तरह से समझा सकता था, मैंने समझाया. मैंने हर तरीका आजमा कर देखा. 23 मार्च को मैंने वायसराय के नाम एक चिट्ठी भेजी थी. इसमें मैंने अपनी पूरी आत्मा उड़ेलकर रख दी. लेकिन मेरी सारी कोशिशें बेकार हुईं."
इन सारी कोशिशों को देखने के बाद ऐसा तो कहीं से नहीं कहा जा सकता कि गांधी ने भगत सिंह की फांसी को रुकवाने की कोशिश नहीं की. लेकिन वो इसे रुकवाने में कामयाब ना हो सके यह एक तथ्य है.
इस लेख में दी गई कई जानकारियां गांधी सेवाग्राम आश्रम, वर्धा की वेबसाइट, मार्क शेपर्ड की किताब 'गांधी और उनसे जुड़े झूठ' और पंजाब विश्वविद्यालय के प्रोफेसर राजीव लोचन के साथ बातचीत पर आधारित हैं.
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