औरतों के नाम अफ्रीका का सबसे बड़ा फिल्म महोत्सव
३ मार्च २०२३सीरा से इंतजार नहीं होताः वो अपने परिवार के साथ अपने दूल्हे से मिलने जा रही है. लेकिन रास्ते में इस्लामी आतंकवादी उनके काफिले पर हमला कर देते हैं, सारे पुरुषों की हत्या कर दी जाती है. सीरा रेगिस्तान में अकेली फंस जाती है, जहां सामने सिर्फ मौत है. लेकिन वो जांबाज है.
अपोलिन त्राओरे फिल्म "Sira" में वजूद की एक दिलचस्प लड़ाई की दास्तान पेश की गयी है. फिल्म निर्देशक त्राओरे ने बुर्किना फासो से डीडब्लू को बताया कि "ये फिल्म प्रतिरोध के बारे में हैं, हार न मानने के बारे में."
और एक चीज उनके दिल के करीब हैः औरतों का सिनेमा में मजबूत किरदारों के रूप में चित्रण. वो कहती हैं, "मैं बस उन्हें एक आवाज मुहैया कराती हूं. ज्यादातर समय उन्हें पीड़ितों की तरह दिखाया जाता है. लोग औरतों को शरणार्थी शिविरों में दिखाते हैं जो अपने पिता या पति खो चुकी होती हैं. लेकिन यही औरतें अपने बच्चों की हिफाजत करती हैं. उन्हें बचाने के लिए खतरनाक रास्तों से भी गुजर जाती हैं." ये वो औरते हैं जिन्होंने वास्तव में दिखाया है कि जिंदा कैसे रहा जाता है. त्राओरे के मुताबिक, यही औरतें अफ्रीका में जिहादियों के खिलाफ लड़ाई में प्रमुख भूमिका निभाती हैं.
जहां आतंक खूनी हकीकत है
यूरोप में, सीरा फिल्म ने हाल में संपन्न हुए 73वें बर्लिन अंतरराष्ट्रीय फिल्म महोत्सव में बेस्ट फीचर का पेनोरमा ऑडियंस अवार्ड हासिल किया था. जर्मन दर्शकों के लिए ये एक सुदूर सिने अनुभव था लेकिन बुर्किना फासो में अपोलिन त्राओरे के हमवतनों के लिए ये खून में भीगा यथार्थ है.
सालों से, हथियारबंद जिहादियों ने देश के लोगों को आतंकित रखा है. इसीलिए अपोलिन त्राओरे अपने घर के उत्तरी इलाके में अपनी फिल्म की शूटिंग करना चाहती थी. वो एक प्रामाणिक लोकेशन थी जहां लोग लंबे समय से आतंकी खतरों से जूझते रहे हैं.
लेकिन शूटिंग से पहले ही कुछ गड़बड़ हो गई. "तीन महीने के लिए जब मैं वहां अपनी टीम के साथ पहुंचने ही वाली थी, उससे थोड़ा पहले एक और हमला वहां हो गया. सरकार ने मुझे सूचित किया कि सुरक्षा के लिए सैनिक साथ ले जाने होंगे. लेकिन वैसा करना शायद और भी खराब हो सकता था, उनके पास वाकई दूसरी जिम्मेदारियां भी थीं."
बेहद खतरनाक है बुर्किना फासो में फिल्म बनाना
मजबूरी में अपोलिन त्राओरे को दूसरी लोकेशन देनी पड़ी और आखिरकार फिल्म की शूटिंग के लिए मॉरिटैनिया को चुना गया. वो कहती हैं, वहां उन्हें भरपूर समर्थन मिला. लेकिन उन्हें अब भी काफी अफसोस है कि बुर्किना फासों में फिल्म नहीं कर पाई. उन्हें उम्मीद है कि अगली बार शायद मौका मिल पाए.
इस सबके बावजूद वो बहुत सी ज्वलंत सामाजिक समस्याओं पर ध्यान देना चाहती हैं. वो कहती हैं, "मैंने अपना क्राफ्ट अमेरिका में सीखा था. लेकिन मैं लोगों को अपनी फिल्मों में हंसा नहीं सकती, सिर्फ रुला सकती हूं. मुझे दिखाना भी यही है कि वहां किस तरह के अत्याचार हैं और लोग क्या भुगत रहे हैं. मेरे लिए ये एक किस्म की थेरेपी भी है."
बुर्किना फासो के वागडुगू में पैन-अफ्रीकन फिल्म और टीवी महोत्सव के जरिए कड़वे यथार्थ को रेखांकित करने वाली त्राओरे अकेली नहीं हैं. फेस्पाको के नाम से मशहूर, इस उत्सव में सेनेगल की मूसा सेने आब्सा की फीचर फिल्में भी हैं. उन्होंने "बचपन के घाव" ("Xale, les blessures de l'enfance") नाम की फिल्म में जबरन विवाह का मुद्दा उठाया है. मोरक्को की फिल्मकार मरियम टोजानी ने "द ब्लू ऑफ द कफ्तान" ("Le Bleu du Caftan") फिल्म में होमोसेक्सुअलिटी जैसे वर्जित विषय लिया है. नाइजीरिया की फिल्म निर्देशक वाले ओयेजिदे की फिल्म "ब्रावो बुर्किना!" एक युवक की कहानी है जो सुदूर यूरोप में अपनी किस्मत आजमाने भटकता-फिरता है.
अफ्रीकियों की अफ्रीकियों के बारे में फिल्म
फेस्पाको में सिर्फ अफ्रीकी फिल्मकारों की फिल्में दिखाई जाती हैं. इसका मकसद है अपना हुनर दिखाने के लिए उन्हें एक मंच मुहैया कराना. इसमें अमेरिका या यूरोप की फिल्में नहीं होती.
लेकिन ऐसे देश में फिल्म महोत्सव करना इतना आसान नहीं जहां अधिकांश लोग गरीबी और बार बार पड़ते सूखे की चपेट में रहते आए हैं. सिर्फ चार सिनेमाघर हैं और फेस्पाको में उमड़ने वाली भीड़ के लिहाज से ये संख्या काफी कम है. लिहाजा आयोजकों ने ओपन एयर फिल्में दिखाने की व्यवस्था की है.
1969 में यही हालात थे जब सिनेमा के शौकीनों और समर्थकों ने बुर्किना फासो में फेस्पाको का गठन किया था. उस समय बुर्किना फासो को रिपब्लिक ऑफ अपर वोल्टा कहा जाता था. देश को आजाद हुए नौ साल ही हुए थे.
फ्रांसीसी शासन के तहत, उपनिवेशों में अफ्रीकियों को लंबे समय तक फिल्में बनाने से रोका गया. अफ्रीका की शुरुआती फिल्मों में एक, पेरिस में छात्रों की 1955 में बनाई फिल्म "अफ्रीका ऑन द सेन" भी थी. उस दौर के फिल्मकारों में बेनिन के पॉलिन सौमानो विएरा भी थे जिन्हें अफ्रीकी सिनेमा का अगुआ माना जाता है.
'जनता अब हमारी कहानियां देखना चाहती है'
1969 में सिनेमा का ज्यादा अनुभव बुर्किना फासो में लोगों को नहीं था. लेकिन उनका सिनेमा से गहरा लगाव बेशक था. कुछ अपवादों को छोड़कर ये महोत्सव हर दो साल में होता रहा है.
त्राओरे ने डीडब्लू को बताया, "अफ्रीकी सिनेमा दुनिया में सबसे युवा है. लंबे समय तक वो पश्चिम की वित्तीय मदद से चलता था. इस बीच हम अपनी फिल्मों के लिए खुद ही पैसा जमा करने की कोशिश करते हैं." उन्हें ये भी लगता है कि "पश्चिम में सारी कहानियां खंगाली जा चुकी हैं, दर्शक अब हमारी फिल्में देखना चाहते हैं."
लेकिन त्राओरे एक खतरा ये देखती हैं कि वित्तीय रूप से मजबूत देश महज फिल्म निर्माण को लेकर टिप्स देने तक महदूद नहीं रहेंगे बल्कि वे शायद अफ्रीकी इतिहास को पश्चिमी लेंस से दिखाने का जोर भी डालेंगे. "इस चीज के खिलाफ हमें संघर्ष करना होगा. हमें पश्चिम को दिखाना होगा कि हम लोग अपनी कहानी खुद तैयार करने में समर्थ हैं और हमसे बेहतर इसे कोई और बता भी नहीं सकता- क्योंकि ये हमारी कहानी है और इसे हम ही उनसे बेहतर जानते-समझते हैं."
विश्वस्त महिला फिल्मकार
अफ्रीकी सिने पटल पर अब कई नामचीन फिल्मकार हैं- खासतौर पर महिला फिल्मकारों का खासा नाम है. मिस्र, अंगोला, केन्या, मोरक्को और सेनेगल समेत कई देशों से फेस्पाको में प्रतिष्ठित पुरस्कारों के लिए नामांकित होकर आई 170 फिल्मों में से करीब आधा फिल्में महिलाओं की बनाई हैं.
ट्यूनीशिया की जूरी अध्यक्ष डोरा बोचाउचा ने डीडब्लू को बताया, "मुझे इस पर जरा भी हैरानी नहीं. और मेरे ख्याल से अफ्रीका में किसी को भी हैरानी नहीं होगी, सिर्फ महाद्वीप के बाहर के लोग अचरज करेंगे. मैंने 25 साल पहले अपनी पहली फिल्म बनाई थी और मेरी टीम में अधिकांश औरतें ही थीं. बेस्ट प्रोडक्शन मैनेजर तो स्त्रियां ही हैं. फिल्मनिर्माण का संबंध डिटेलिंग से है यानी वो एक बारीक काम है. और सभी जानते हैं कि बारीकियों को लेकर औरतें ही ज्यादा सचेत होती हैं. उनमें इगो यानी अहम भी उतना नहीं होता. हम लोग अपने ढंग से फिल्में बनाते हैं- और हम ये काम बखूबी करते हैं."
शांति की सिनेमाई अपील
25 फरवरी को शुरू हुए फेस्पाको का उद्घाटन बुर्किना फासो और माली के प्रधानमंत्रियों ने किया था. इस साल समारोह में माली गेस्ट ऑफ ऑनर देश है. बुर्किना फासो, माली और दूसरे अफ्रीकी देशों को, खासतौर पर आतंकवाद से जो तमाम समस्याएं हैं, उसके बावजूद- या शायद उसे देखते हुए- "शांति की संस्कृति" को फेस्पाको 2023 का मोटो यानी आदर्श-वाक्य बनाया गया था.
महोत्सव के होम पेज के मुताबिक, "दुनिया आज उन तमाम समस्याओं से घिरी है जो गैरबराबरी, बहिष्कार, चरमपंथ और हथियारों की दौड़ से पैदा हुईं." शांति स्थापना और सामाजिक एकजुटता हासिल करने के तरीकों के बारे में मिल बैठकर सोचने में फिल्में योगदान दे सकती हैं.
त्राओरे यही चाहती हैं. उनकी फिल्म "Sira" - येनेन्गा का स्वर्ण स्टैलियन (घोड़ा) – हासिल करने की दौड़ में शामिल है. ये महोत्सव का मुख्य पुरस्कार है. ये ट्रॉफी मजबूत इरादों वाली औरतों का सम्मान भी है. राजकुमारी येनेन्गा अपने घोड़े पर सवार होकर युद्ध में कूद पड़ने वाली एक बेखौफ और बहादुर योद्धा थी.
रिपोर्टः सुजाने कॉर्ड्स, साशा गैकिन