आठ अरब लोग स्थाई रूप से एक साथ एक ग्रह पर कैसे रह सकते हैं?
२३ दिसम्बर २०२२15 नवंबर को दुनिया की आबादी बढ़कर आठ अरब के आंकड़े को पार कर गई है. महज एक दशक में आबादी एक अरब से ज्यादा बढ़ गई.
न्यूयॉर्क में संयुक्त राष्ट्र की जनसंख्या विशेषज्ञ सारा हर्टोग कहती हैं, "वैश्विक जनसंख्या में वृद्धि दरअसल एक उल्लेखनीय सफलता की कहानी है" जो,1950 के बाद से वैश्विक स्तर पर औसत जीवन प्रत्याशा में 25 साल की बढ़ोत्तरी और मृत्यु दर में गिरावट को दर्ज करती है. यह सब तब संभव हुआ है जबकि महिलाओं और लड़कियों को शिक्षा के अच्छे मौके मिले, परिवार नियोजन के लिए लोग जागरूक हुए और बेहतर प्रजनन सेवाओं तक उनकी पहुंच बढ़ी.
हालांकि इस सफलता के लिए कीमत भी चुकानी पड़ी है. संयुक्त राष्ट्र की एक रिपोर्ट के मुताबिक, जनसंख्या वृद्धि ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन और पारिस्थितिकीय विनाश के लिए जिम्मेदार मुख्य कारकों में से एक है.
ब्रिटेन के गैर सरकारी संगठन पॉपुलेशन मैटर्स का कहना है, "जैवविविधता का नुकसान, जलवायु परिवर्तन, प्रदूषण, वनों की कटाई, जल और खाद्य पदार्थों की कमी- इन सबके पीछे हमारी विशाल और लगातार बढ़ती जनसंख्या है.”
सबसे ज्यादा आबादी के साथ भारत के सामने कैसी चुनौतियां आएंगी
दुनिया के सबसे अमीर देशों में खपत सबसे ज्यादा है. डीडब्ल्यू से बातचीत में हर्टोग कहती हैं कि अस्थाई उपभोग और उत्पादन के तरीकों को विस्फोटक आबादी पर थोपना बहुत आसान है, खासकर, दक्षिणी गोलार्ध के विकासशील देशों पर, लेकिन यह उम्मीद करना एक भूल होगी कि जनसंख्या वृद्धि दर धीमी होना ही इन सब समस्याओं का एकमात्र निदान है.
हर्टोग कहती हैं कि दुनिया के सबसे अमीर देशों में जनसंख्या वृद्धि दर या तो धीमी हो गई है या फिर कम हो गई है लेकिन प्रति व्यक्ति आधार पर प्राकृतिक संसाधनों का सबसे ज्यादा इस्तेमाल वही करते हैं. वो कहती हैं, "जनसंख्या वृद्धि की बजाय बढ़ती हुई आमदनी, खपत बढ़ाने और उससे संबंधित प्रदूषण के लिए कहीं ज्यादा जिम्मेदार है.”
उप-सहारा अफ्रीका और एशिया के कुछ गरीब और विकासशील देश जो कि आने वाले दशकों में बढ़ने के लिए तैयार हैं, वे वैश्विक उत्सर्जन और संसाधनों के उपयोग के लिए बहुत कम जिम्मेदार हैं.
ग्लोबल फुटप्रिंट नेटवर्क के मुताबिक, यदि धरती पर रहने वाला हर व्यक्ति अमरीकी नागरिकों की तरह रहने लगे तो हमें संसाधनों के लिए कम से कम पांच पृथ्वी की जरूरत पड़ेगी. जबकि नाइजीरिया जैसे देशों के नागरिकों की तरह रहने पर भी हर साल दुनिया के 70 फीसद संसाधनों का ही इस्तेमाल होता है. 1.3 अरब से ज्यादा की आबादी वाले देश भारत के लिए यह आंकड़ा 80 फीसदी है.
हम अपने संसाधनों से परे रह रहे हैं'
जनसंख्या वृद्धि अपरिहार्य होने के साथ संयुक्त राष्ट्र का अनुमान है कि साल 2050 तक दुनिया की आबादी 9.7 अरब तक पहुंच जाएगी और साल 2100 तक इसके 11 अरब तक पहुंचने का अनुमान है. सस्टेनेबिलिटी विशेषज्ञों का कहना है कि जलवायु संकट के हल के लिए हमें जनसंख्या के अलावा अन्य बिंदुओं की ओर देखने की जरूरत है.
वर्ल्ड रीसोर्सेज इंस्टीट्यूट में ग्लोबल इकोनॉमिक्स डायरेक्टर वनीसा पेरेज सिरेरा कहती हैं कि यदि हम जमीन का सही तरह से उपयोग करने के बारे में फिर से सोचें तो वास्तव में धरती पर आठ अरब ही नहीं बल्कि कुछ अरब और लोगों के भरण-पोषण के संसाधन उपलब्ध हैं.
आबादी घटने की आशंका से चिंता में पड़ा चीन
मिस्र में आयोजित COP 27 सम्मेलन के दौरान डीडब्ल्यू से बात करते हुए उन्होंने कहा, "हमारे पास संसाधन हैं लेकिन राजनीतिक अर्थशास्त्र और भूराजनीतिक स्तर पर ये प्रयास होने चाहिए कि ये संसाधन वहां पहुंचें जहां इनकी जरूरत सबसे ज्यादा है.”
हेलसिंकी विश्वविद्यालय में कंज्यूमर इकोनॉमिक्स की प्रोफेसर और जर्मनी में सस्टेनेबल यूरोप रिसर्च इंस्टीट्यूट की अध्यक्ष सिल्विया लोरेक कहती हैं कि यह सब इस पर निर्भर करता है कि हम अपने संसाधनों को किस तरह से साझा करते हैं. वो इस बात पर जोर देती हैं कि हमें संसाधनों के उपभोग के मौजूदा तरीके को निश्चित तौर पर बदलने की जरूरत है, खासकर उत्तरी गोलार्ध में.
लोरेक कहती हैं, "हम काफी समय से अपनी हैसियत से बाहर रह रहे हैं और इस तरह से ज्यादा दिन तक नहीं रह सकते.”
आगे वो कहती हैं कि यहां रहने वाले इतने लोगों के लिए, खासकर उनके लिए जो पश्चिम की आरामदायक जीवन शैली को पाने की उम्मीद कर रहे हैं, जैविक संसाधनों को पुनर्जीवित करना पृथ्वी के लिए मुश्किल हो रहा है. इन संसाधनों में पेड़-पौधे, जीव-जंतु, साफ पानी और जमीन शामिल हैं जो कि जीवित रहने के लिए अत्यंत जरूरी हैं.
पांच दशक में जंगल के दो तिहाई जीव खत्म
एनजीओ ग्लोबल फुटप्रिंट नेटवर्क का अनुमान है कि विश्व की मौजूदा आबादी की जरूरतों को पूरा करने के लिए हमें हर साल दुनिया के कुल पारिस्थितिक संसाधनों के 175 फीसदी की जरूरत है.
कम में अच्छा जीने' का तरीका सीखना चाहिए
लोरेक जोर देकर कहती हैं कि संसाधनों का अतिशय उपभोग का विकल्प लोगों ने अपने आप नहीं चुना है बल्कि सामाजिक बनावट और मूल्यों की वजह से यह बढ़ता चला गया है. वो कहती हैं, "मीडिया, विज्ञापन, फिल्म और टीवी के चलते लोगों में यह मानसिकता पैदा हो रही है कि वित्तीय रूप से मजबूत होना ही सब कुछ है.”
हाल के वर्षों में लोरेक और उनके क्षेत्र के अन्य लोग इस बात पर शोध कर रहे हैं कि अच्छी जीवन शैली जीने वाले लोग गुणवत्तापूर्ण जीवन को छोड़े बिना ‘कम चीजों के साथ अच्छा जीवन' जीना कैसे सीख सकते हैं. इन लोगों ने मुख्य रूप से उन तीन क्षेत्रों पर अपना ध्यान केंद्रित किया है जो उत्सर्जन और संसाधनों के उपभोग के लिए सर्वाधिक जिम्मेदार हैं. ये हैं- हम कैसे खाते हैं, हम कैसे रहते हैं और हम कैसे चलते हैं.
इनकी सिफारिशों से वो सभी लोग भली-भांति परिचित होंगे जिन्होंने जलवायु परिवर्तन पर होने वाली बहस को सुना है. ये हैं- शाकाहार जीवन की ओर बढ़ना और जीव आधारित खाद्य सामग्री पर निर्भरता कम करना, हवाई यात्राओं और व्यक्तिगत मोटर वाहनों से दूर रहना. इसके अलावा शहरों के भी पुनर्निर्माण की जरूरत है ताकि इमारतें ज्यादा प्रभावी बन सकें और एकल परिवार और अकेले रहने वालों की जरूरतों के मुताबिक हों. इससे बिजली की बचत होगी और उत्सर्जन में कमी आएगी.
डीडब्ल्यू से बातचीत में लोरेक कहती हैं कि अपनी जीवन शैली में बदलाव के लिए समाज और नीति निर्धारकों को सिर्फ तथ्य और आंकड़ों से ही नहीं समझाया जा सकता है बल्कि इसके अलावा भी कोशिश करनी होगी.
2050 तक दुनिया की एक चौथाई आबादी के पास नहीं होगा पीने का पानी
वो कहती हैं, "सिर्फ विज्ञान के पीछे चलना एक तरह की ‘पारिस्थितिक तानाशाही" होगी. हमें गरीब और अमीर के बीच संतुलन बनाने के लिए समाज के स्तर पर एक विमर्श छेड़ने की जरूरत है. इससे यह सुनिश्चित हो सकेगा कि जीवन जीने के लिए न्यूनतम चीजें हर व्यक्ति को सुलभ हों. इसके साथ ही कुछ लोगों को धरती के सीमित संसाधनों के ज्यादा उपयोग पर पाबंदी लगे जो, "सामाजिक सामंजस्य के लिए खतरनाक है.”
पेरेज सिरेरा का कहना है कि हर व्यक्ति को एक जैसी ही जीवन शैली अपनाने की जरूरत नहीं है लेकिन यह दिखाना जरूरी है कि अत्यधिक उपभोग पर अंकुश लगाकर ‘आशावादी और आकर्षक' जीवन स्तर संभव हो सकता है.
वो कहती हैं, "मेरा मानना है कि इच्छाओं को बदलने की जरूरत है. यदि हम यह संदेश देते हैं कि आज हम जिस चीज का महत्व समझेंगे, भविष्य में हम उसका आनंद लेंगे, तो निश्चित तौर पर यह कोई वास्तविक संदेश नहीं है. बजाय इसके, नीति निर्धारकों को यह देखने की जरूरत है कि आर्थिक विकास तब भी संभव था जब हमारा ध्यान गुणवत्ता पर था ना कि मात्रा पर. हमें निश्चित तौर पर यह दिखाने की जरूरत है कि कम चीजों के साथ भी एक संतोषजनक जीवन जिया जा सकता है.”