संग्रहालयों में मानव अवशेषों की देखरेख कैसे करता है जर्मनी
१५ मार्च २०२४जर्मनी कभी अपनी उन कॉलोनियो (उपनिवेशों) को मीठी जबान में "प्रोटेक्टोरेट" कहा करता था, जो 1884 से लेकर प्रथम विश्व युद्ध उसके अधीन थीं.
जर्मनी की उपनिवेशी ताकत फ्रांस, ब्रिटेन या नीदरलैंड्स जैसे देशों के स्तर तक कभी नहीं पहुंच पाई, लेकिन अफ्रीका, ओशेनिया और एशिया में उसका साम्राज्य कम क्रूर नहीं था. ये साबित होता है उपनिवेशी दौर के उन मानव अवशेषों से जो आज भी बड़ी संख्या में जर्मन संग्रहालयों और विश्वविद्यालयों में संभाल कर रखे हुएहैं.
उपनिवेशवादियों के खौफनाक अपराध
इन अवशेषों में ज्यादातर फांसी पर लटकाए गए लोगों की खोपड़ियां और हडिड्यां हैं. उन्हें शरीर से अलग कर, धो-पोंछकर, ट्रॉफियों की तरह जर्मनी रवाना किया गया.
बर्लिन के यूनिवर्सिटी अस्पताल 'शारिटे' के पास ऐसे 106 इंसानी अवशेष हैं जो अफ्रीका, ओशेनिया, एशिया और उत्तरी अमेरिका से लाए गए थे. उनके मूल स्थानों को लेकर किए जा रहे शोध के एक भाग के रूप में, इन अवशेषों की ज्यादा बारीकी से जांच कर उनके बाबत सूचनाओं को डॉक्युमेंट किया जा रहा है.
लेकिन डॉयचे वेले से पूछे गए सवाल के जवाब में शारिटे स्थित बर्लिन म्यूजियम ऑफ मेडिकल हिस्ट्री ने बताया कि उपरोक्त जांच के बाद 2011 से 2019 के बीच सिर्फ नौ चीजें ही वापस की गईं.
कुछ संग्रहालयों ने अपने यहां रखी उपनिवेशी संदर्भ वाली कुछ चीजों को ऑनलाइन डॉक्युमेंट किया, लेकिन बर्लिन स्थित शारिटे के डिपो में मौजूद अवशेषों के बारे में जानकारी अभी भी गुप्त रखी गई है. कर्मचारी युडिथ हान ने डीडब्लू को बताया, "हम लोग किसी भी तस्वीर को उपलब्ध नहीं कराते जब तक हम ये न जान लें कि मानव अवशेष मूल रूप से कहां से आया है."
'खोपड़ी संग्रहकर्ताओं' की राजधानी
और बात ठीक यही हैः बर्लिन में आखिर ये चीजें आई कैसे? हम्बोल्ड्ट यूनिवर्सिटी में प्रोफेसर आंद्रियास एकर्ट ने डीडब्लू को बताया कि 19वीं सदी की शुरुआत में जर्मन राजधानी एंथ्रोपलॉजिकल (मानवविज्ञानी) रिसर्च का केंद्र बन गई थी "क्योंकि अत्यंत उत्साही या झक्की किस्म के चुनिंदा संग्रहकर्ता (कलेक्टर्स) यहां काम करते थे."
अपने कथित "नस्ली विज्ञान" के पक्ष में निष्कर्ष निकालने के लिए रुडोल्फ फिरचॉ और फेलिक्स फॉन लुशन ने बर्लिन में रखे अवशेषों की जांच की.
एकर्ट कहते है, "ऑर्डर की सूचियां हमें मिलीः अगर ये साफ था कि कोई इलाके में जा रहा है जैसे कि जर्मन उपनिवेश दक्षिण पश्चिम अफ्रीका (आज का नामीबिया) में तो उन्हें एक ऑर्डर मिलता था."
ये जरूरतें सुपरमार्केट की खरीदारी लिस्ट जैसी होती थी जिनमें विशिष्ट मात्राओं का उल्लेख भी रहता था, यानी कितनी मात्रा में चाहिए. इस सूची में सबसे ऊपर खोपड़ियां थीं. "शरीर के हिस्सों में सबसे ज्यादा मांग उन्हीं की थी."
ऐसा इसलिए क्योंकि जर्मन वैज्ञानिक सिर के आकार की तुलना का इस्तेमाल अपनी इस धारणा की पुष्टि के लिए करना चाहते थे कि गैर-यूरोपीय लोग एक निम्नतर "नस्ल" के थे. अफ्रीका, और यूरोप से इतर दूसरे महाद्वीपों को "टेरा नुलियस" यानी नो मैन्स लैंड (लावारिस भूमि) माना जाता था.
अफ्रीका पर लगा रहा बदहाल जगह का ठप्पा
गुलामी प्रथा की शुरुआत के साथ ही 17वीं सदी में बगैर इतिहास वाले महाद्वीप के रूप में अफ्रीका की भ्रामक अटपटी अवधारणा उभर कर आई थी. आगे के दशकों में ये सोच कमोबेश बनी रही. फ्रीडरिष विलहेल्म शिलर जैसे महान जर्मन कवि ने भी 1789 में येना यूनिवर्सिटी के अपने उद्घाटन भाषण में यूरोप से बाहर के "असभ्य" इलाकों का जिक्र किया था.
अपमान भरे लहजे में शिलर ने कहा था, "भोजन और शरण के लिए कुछ लोग अभी भी जंगली पशुओं से लड़ते-भिड़ते हैं, बहुतों के लिए भाषा अभी पशु ध्वनियों से ऊपर नहीं उठी है."
दूसरे और लोगों की तरह शिलर ने ये मानने से इंकार कर दिया कि उनसे हजारों साल पहले दूरस्थ महाद्वीपों में विकसित सभ्यताएं मौजूद थी और अपने पीछे आकर्षक साक्ष्य छोड़ गई थीं. यह नजरिया सदियों तक बना रहा. एकर्ट कहते हैं, "ये विचार कायम रहा कि वे संस्कृतियां निम्न कोटि की थीं और गुलामी उन्हें और भी ज्यादा बुरे हालात से मुक्त कर देगी."
19वीं सदी के प्रारंभ में, दार्शनिक जॉर्ज फ्रीडरिष विलहेल्म हेगल ने अफ्रीकी महाद्वीप पर अपने मशहूर निबंध मे लिखा थाः "अफ्रीका एक गैरऐतिहासिक महाद्वीप है, उसमें कोई गति या विकास नहीं है."
वो इस तथ्य को कतई अनदेखा कर गए कि अफ्रीका एक ऐसा महाद्वीप है जिसकी अपनी विकसित सभ्यताएं अस्तित्व में रही थी, करीब 2,000 भाषाएं और अंतहीन जातीय समूह थे जो एक-दूसरे से बहुत बड़े स्तर पर अलग अलग थे.
एकर्ट कहते हैं कि इस पृष्ठभूमि में, उपनिवेशी शासकों के लिए कब्जे वाले भूभागों से अपनी राजधानी में "लगातार कुछ नयी सामग्री लाते रहना" मुश्किल नहीं था. लेकिन अब ये स्याह विरासत कैसे लौटाई जा सकती है- और क्या ये वांछित भी है?
उपनिवेशी दौर की स्याह विरासत की बहाली
बर्लिन म्यूजियम ऑफ मेडिकल हिस्ट्री की यूडिथ हान कहती हैं कि शारिटे का तरीका "प्रोएक्टिव" है. उम्र, लिंग और संभावित बीमारियों की पहचान के लिए खोपड़ियों की नृविज्ञानी जांच 2010 में शुरू हुई थी.
लेकिन उनकी लूट की एक सदी से ज्यादा बीत जाने के बाद, अवशेषों के मूल स्थान को निर्धारित करना और उन्हें किसी व्यक्ति विशेष से संबंद्ध करना लगभग असंभव है. 46 प्रतिशत मानव अवशेषों का ज्योग्राफिकल एसाइनमेंट (भूगोलीय निर्धारण) मुमकिन नहीं है. जिन अवशेषों का मूल स्थान ज्ञात है उनमें से अधिकांश (71 प्रतिशत) अफ्रीका और ओशियानिया से है.
उपनिवेशी संदर्भों से कॉन्टेक्ट प्वांयट फॉर कलेक्शन्स का एक अध्ययन मानव अवशेषों पर आगामी शोध और उनको लौटाने का प्रारंभिक बिंदु बन सकता है.
लेकिन वापसी का ये काम (रेस्टिट्यूशन) मुश्किल भी हो सकता है. ऑस्ट्रियाई एंथ्रोपलॉजिस्ट और एथनोलॉजिस्ट फेलिक्स फॉन लुशन के कपाल संग्रह (स्कल कलेक्शन) से जुड़ी एक रिसर्च के हवाले से एकर्ट ये दिखाते हैं.
उन्होंने 1885 से बर्लिन एथनओलॉजिकल म्यूजियम में काम किया और दुनिया भर से 6,500 खोपड़ियां जमा की. उनमें पूर्व जर्मन उपनिवेश भी शामिल थे. ये संग्रह 1948 से शारिटे की कस्टडी में है.
एकर्ट कहते हैं, "बहुत सी खोपड़ियों के साथ लगी टिप्पणी में तंजानिया लिखा था. लेकिन देश का नाम देने का चलन 1964 से ही आया, लिहाजा ये संकेत पूर्व जीडीआर (पूर्वी जर्मनी) में दर्ज किया गया होगा. और अंत में, ये पता चला कि इनमें से बहुत सारी खोपड़िया दरअसल जर्मन पूर्वी अफ्रीका से आई थी, जो अब रवांडा कहलाता है."
मूल स्थान की रिसर्च में मुश्किलें
प्रोफेसर एकर्ट कहते हैं कि खोपड़ियों पर दर्ज नोटेशन, वित्तीय फायदे के लिए जानबूझकर गलत रखी गई थी. क्योंकि, उदाहरण के लिए, फॉन लुशन ने विशिष्ट जातीय समूहों से जुड़े लोगों की खोपड़ियों का ऑर्डर दिया था, जिसके लिए उसने औरों की अपेक्षा ज्यादा भुगतान किया.
दशकों तक माना जाता रहा कि यह संग्रह नष्ट हो चुका है. बहुत बुरी स्थिति में शारिटे के बेसमेंट में वो संग्रह पड़ा मिला, तब तक कोई नहीं जानता था कि वो अस्तित्व में है भी या नहीं.
अपनी इस मान्यता में एकर्ट अकेले नहीं हैं कि और भी ज्यादा मानव अवशेष जर्मन संस्थानों में रखे हो सकते हैं. वो कहते हैं, "अनुमान है कि करीब 20 हजार हड्डियां रखी हुई हैं. उनके अलावा सालों से दफन अवशेष भी जो हैं सो हैं. तो आप कल्पना कर सकते हैं अपेक्षाकृत बहुत कम समयावधि में बहुत बड़ी मात्रा में हड्डियां जर्मनी लाई गई थीं."
वो ये भी बताते है कि उनके मूल स्थान को निर्धारित करने की मुश्किल के साथ साथ एक समस्या और हैः "कुछ इलाकों में, लोग अक्सर शिकायत करते हैं, 'आप अब इस सामग्री से छुटकारा पाना चाहते हैं लेकिन हमें वास्तव में ये सब नहीं चाहिए.'" कुछ लोगों को डर है कि ये अवशेष उपनिवेशी दौर के काले दिनों की गहरी याददिहानी हैं लिहाजा लौटाए नहीं जाने चाहिए.
- सबीन ओएल्त्स