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समाज

शहर का लॉकडाउन गांवों से अलग कैसे

आमिर अंसारी
२५ जुलाई २०२०

लॉकडाउन का अनुभव हर किसी के लिए अलग था. हमने महामारी का भी अनुभव किया.ऐसी महामारी जो लोगों को दूर भी ले जाती है और कहीं ना कहीं पास भी लाती है.लोग शहर से दूर अपनी मिट्टी यानी गांव लौटे लेकिन शहरवासी ऐसा नहीं कर पाए.

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तस्वीर: DW/A. Ansari

मैंने और सभी ने जीवन में पहली बार तालाबंदी या लॉकडाउन का अनुभव किया. दंगों या दो समुदायों की झड़प के दौरान कर्फ्यू का तो अनुभव था लेकिन इस तरह के कर्फ्यू की कल्पना हमने कभी नहीं की थी. भारत जैसे विशाल देश में एकाएक लॉकडाउन हो जाना अभूतपूर्व और अप्रत्याशित था. देश की इतनी बड़ी आबादी को घरों, फ्लैटों, मकानों और झुग्गियों में रहने के लिए कहना और उसका पालन कराना चुनौती भरा काम था. हमें भी प्रोफेशनल काम के अलावा घर से बाहर जाने की इजाजत नहीं थी. लॉकडाउन की ऐसी सख्ती कि सुबह अखबार आने बंद हो गए. सुबह जब आंख खुलती तो अहसास होता कि दफ्तर तो जाना नहीं है लेकिन काम करना है और वह भी घर पर रहकर. परिवार के साथ घर पर रहकर काम करना एक चुनौती भी है. घर से काम करने का अनुभव भी नया और अनोखा था. घर से काम करने पर यह भी अहसास होता था कि काम के प्रति कोई कमी ना रह जाए.

सुबह की शुरूआत टीवी न्यूज और मोबाइल पर खबरें पढ़ने से होती और फिर बालकनी में जा-जाकर यह देखने में लगे रहते कि सड़क से कौन पार हो रहा है. आम तौर पर गाड़ियों का शोर घर के अंदर रहते हुए भी सुना जाता था लेकिन तालाबंदी में गाड़ी का शोर, सब्जी बेचने वाले की आवाज, फेरी लगाने वाले के अजब-गजब तरीके हमसे कहीं दूर चले गए थे. शहरों का यह सन्नाटा अजीब सा था. घर में रहकर और काम करते हुए दिन इसी उम्मीद के साथ गुजर जाता कि आज का सूरज डूबेगा और कल एक नई सुबह होगी. शाम होते ही अन्य लोगों की तरह हम लोग भी घर की छत पर चले जाते और वहीं डूबते सूरज को देखते और बस देखते ही रहते. सूरज बिलकुल स्थिर दिखता है लॉकडाउन के वक्त की तरह. आसमान का नीलापन दिन भर की उबासी को दूर देता. निर्माण बंद होने और फैक्ट्रियां बंद होने से हवा भी अच्छी होने लगी.

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लॉकडाउन के दौरान कॉलोनी में पसरा सन्नाटा.तस्वीर: DW/A. Ansari

छत पर आस पड़ोस के लोग भी हमें देखते और हम उन्हें देखते. लॉकडाउन के दौरान शहरों में सिलसिला इसी तरह से चलता रहा. लॉकडाउन की पूरी अवधि में मैं जब भी छत पर जाता तो हर बार छत से ही नया कुछ देखने को मिलता और अनुभव करने को मिलता. लॉकडाउन के दौरान ही अहसास हुआ कि भले ही आप कितने महंगे या कितने सस्ते मकान में रहते हों लेकिन आपको बिना किसी जरूरत के घर से बाहर जाने की इजाजत नहीं है. हां यह जरूर है कि संपन्न लोगों के मुकाबले सुविधाओं की कमी हो सकती है. जैसे किसी के घर पर इंटरनेट की सुविधा न होना या फिर आज के जमाने के स्मार्ट गैजेट्स जिसके सहारे समय गुजारना आसान हो.

पर्यावरण पर असर

छत और बालकनी आते-जाते हमने पर्यावरण का बेहतरीन रूप देखा. बिलकुल नीला आसमान, जो कि दिल्ली-एनसीआर से देख पाना मुश्किल है. हां छोटे शहरों या फिर गांव में ऐसा मुमकिन है. गाड़ियों का शोर थमा तो हमें उन पक्षियों की मस्ती भी देखने को मिली जो पक्षी आम तौर पर हमारी कॉलोनियों तक नहीं आते.

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जहां कभी पर्यटकों की भीड़ होती थी वहां भी लोग नहीं.तस्वीर: DW/A. Ansari

मुझे आज भी याद है कि हम कैसे गर्मी की छुट्टियों के दौरान नानी के घर पर जाया करते थे, जो कि गांव में था. लॉकडाउन के दौरान मुझे अचानक उस गांव की याद आ गई. तालाब में नहाना, खेत में घूमना और आम के पेड़ों से कच्चे आम तोड़ कर खाना. हो सकता है कि लॉकडाउन में गांवों में उतनी सख्ती नहीं हुई हो और वहां के हालात शहरों से बेहतर रहे हों. लेकिन वहां की चुनौतियां अलग रही होंगी. जैसे किसी जरूरी चीज का तुरंत नहीं मिल पाना या फिर उसके लिए छोटे शहरों तक दौड़ भाग करना. लॉकडाउन के बारे में शहरों में बैठ कर अनुमान लगाना थोड़ा नहीं बहुत मुश्किल है. किसानों, मजदूरों और महिलाओं की चुनौतियां अलग रही होंगी. जो बच्चे सिर्फ गांव के स्कूलों में पढ़ने जाते होंगे उनकी पढ़ाई पर असर पड़ना और उनका स्कूल छूटना. शहरी बच्चों के लिए स्कूली शिक्षा अब ऑनलाइन हो गई है लेकिन गांवों के बच्चों के लिए दिक्कत तो बनी हुई है.

शहर और गांव की अलग-अलग चुनौती

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एक बीमारी ने जिंदगी की रफ्तार थाम दी.तस्वीर: DW/A. Ansari

गांवों में भले ही कच्चे-पक्के मकान हैं लेकिन वहां आपको जानने वाला दूर-दूर तक है और आप भी उन्हें जानते हैं. लेकिन इस तुलना में शहरों में ऐसा ना के बराबर है. शहरों में दरबानुमा फ्लैट या मकान में जिंदगी सिमट जाती है. लॉकडाउन के दौरान ना तो आप पार्क जाते हैं और ना ही बाजार लेकिन गांवों का अनुभव कुछ और ही रहा होगा. गांवों में रोजगार और शिक्षा के अवसर कम होने की वजह से ही लोग शहरों में पलायन कर जाते हैं. शहरों की ही तरह गांवों में रोजगार और शिक्षा के बेहतर अवसर मुहैया होंगे तो शहर और गांव के बीच का फासला कम हो जाएगा.

लॉकडाउन के दौरान जब बड़ी आबादी गांवों की तरफ लौटी तो शहरी लोगों ने सवाल किया कि ये हमारे शहर में कहां थे. ये वो लोग थे जो शहरी लोगों के दफ्तरों में, घरों में या अन्य छोटे मोटे काम करते थे. चमकते-दमकते शहरों में ऐसे लोगों को मुसीबत के समय गांव की मिट्टी खींच ले गई. हो सकता है कि शहरों के मुकाबले गांव में अपनापन ज्यादा होगा लेकिन जब तक गांव में जीवनयापन के उपाय मौजूद हैं वे लोग गांव में ही रहना पसंद करेंगे लेकिन साधन खत्म होने पर उन्हें शायद शहरों में दोबारा लौटना पड़े.

हमारे जैसे लोगों के पास गांव के विकल्प बेहद कम या नहीं है, हम बस हरे भरे खेतों, तालाब और नदियों के बारे में सोच कर मन ही मन खुश हो सकते हैं.

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