भारत-कनाडा विवाद: सीधे सवालों के टेढ़े और उलझे जवाब
२३ सितम्बर २०२३भारत और कनाडा के बीच फिलहाल जो कड़वाहट घुली है, उसे दोनों देशों के रिश्तों का सबसे निचला स्तर बताया जा रहा है. इस वक्त मोटे तौर पर तीन सवाल सुनाई दे रहे हैं. पहला, ऐसा क्या हुआ, जो भारत और कनाडा जैसे दो मित्रदेशों के रिश्ते इतने बुरे दौर में पहुंच गए. दूसरा, क्या कनाडा में खालिस्तान समर्थक हरदीप सिंह निज्जर की हत्या में वाकई भारत सरकार का हाथ है. और तीसरा, क्या ट्रूडो का बयान पूरी तरह घरेलू वोटबैंक की राजनीति से प्रेरित है.
कूटनीतिक पेचीदगियों से भरा यह मामला इतना सीधा, इतना लीनियर है नहीं, जितना हालियां घटनाएं देखकर लगता है. दो देशों की संप्रुभता बनाम संप्रुभता की इस लड़ाई में जितनी परतें खोलिए, उतने ज्यादा पेंच और विरोधाभास दिखते हैं.
उठा-पटक भरा साल
जरा मार्च 2023 याद कीजिए. भारत से लेकर कनाडा, ब्रिटेन और अमेरिका तक कैसी हलचल मची थी. खालिस्तान की मांग करने वाले अलगाववादी संगठन 'वारिस पंजाब दे' का मुखिया अमृतपाल सिंह फरार चल रहा था. 18 मार्च 2023 को पुलिस उसे गिरफ्तार करने वाली थी, लेकिन वह भाग निकला. कई दिनों तक अलग-अलग राज्यों में पुलिस ने उसका पीछा किया. पंजाब-हरियाणा हाईकोर्ट ने पुलिस को फटकार भी लगाई कि 80 हजार पुलिसवाले एक भगोड़े को नहीं पकड़ सके.
19 मार्च को खालिस्तान की मांग कर रहे लोगों का एक जत्था लंदन में भारतीय उच्चायोग पहुंचा. उनके हाथों में 'खालिस्तान' के पीले झंडे थे और उन्होंने भारतीय उच्चायोग की बालकनी से तिरंगा झंडा हटा दिया. भारतीय विदेश मंत्रालय ने इस घटना पर नाराजगी जताई और ब्रिटिश उच्चायुक्त को तलब किया था.
अगले दिन अमेरिका के सैन फ्रांसिस्को में खालिस्तान समर्थकों ने भारतीय वाणिज्य दूतावास को नुकसान पहुंचाया और आगजनी की कोशिश की गई. भारत सरकार ने इस पर भी आपत्ति दर्ज कराई थी.
21 मार्च को कनाडा में भारतीय उच्चायुक्त संजय कुमार वर्मा भारतीय लोगों से मिलने सरी शहर जा रहे थे. भारतीय मूल के पत्रकार समीर कौशल उनका दौरा कवर करने जा रहे थे. लेकिन, कार्यक्रम स्थल तक जाने का रास्ता खालिस्तान समर्थकों ने रोक रखा था. उन्होंने समीर के साथ धक्का-मुक्की की, उन्हें आगे नहीं जाने दिया. फिर पुलिस ने भी समीर को वहां से चले जाने को कहा.
मार्च के बाद का घटनाक्रम बताता है कि भारत के नाराजगी जताने के बाद अमेरिका और ब्रिटेन में खालिस्तान समर्थकों पर नकेल कसी गई. लेकिन कनाडा में ऐसा नहीं हुआ. वहां खालिस्तान समर्थकों की रैलियां होती रहीं. कनाडा ने तर्क दिया कि उन्होंने बड़ी मेहनत से ऐसा समाज बनाया है, जहां सभी को अभिव्यक्ति की आजादी है और जब तक कोई हिंसक नहीं होता, तब तक सरकार के पास उस पर एक्शन लेने की कोई वजह नहीं है.
खालिस्तान की मांग के विदेशी तार
यूं तो सिख 20वीं सदी की शुरुआत से ही विदेश जाते और बसते रहे हैं. पर 80 के दशक में सिखों की जिस बड़ी आबादी का पलायन हुआ, उसमें खालिस्तान की मांग करने वाले खूब थे. ये लोग कनाडा से लेकर अमेरिका, ब्रिटेन, इटली और ऑस्ट्रेलिया तक में बसे. सोवियत संघ के विघटन और भारत में उदारीकरण के बाद खालिस्तान की मांग के साथ नत्थी रहा हिंसक संघर्ष भले दब गया हो, लेकिन सिखों के लिए अलग देश की मांग गाहे-बगाहे भारत की चिंता बढ़ाती रहती है.
कनाडा में भारतीय मूल के करीब 15 लाख लोग रहते हैं, जिनमें से करीब 8 लाख सिख हैं. भारत से बाहर सिखों की सबसे बड़ी आबादी कनाडा में ही रहती है. ऐसे में जानकार यह सवाल भी उठाते हैं कि क्या कनाडा में रहने वाले सारे सिख खालिस्तान का समर्थन करते हैं.
नई दिल्ली में 'सिख फोरम' के अध्यक्ष रविंदर सिंह आहूजा कहते हैं कि "अक्सर ऐसा मान लिया जाता है, जैसे दुनिया के सारे सिख खालिस्तान चाहते हैं. भारत में रहने वाले सिख खालिस्तान की मांग नहीं कर रहे हैं. यह नक्शे या जमीन पर खींची गई कोई लकीर या सीमा नहीं है, बल्कि सिर्फ कल्पना है."
ऐसे में सवाल उठना लाजमी है कि कोई देश अपनी अखंडता के लिए खतरा माने जाने वाले तत्वों को संरक्षण दिया जाना कब तक बर्दाश्त करेगा. भले ही सामने मित्रदेश ही क्यों न हो.
यह सवाल बताता है कि हरदीप सिंह निज्जर की हत्या भारत-कनाडा रिश्तों के इतने नाजुक मोड़ पर पहुंचने की इकलौती वजह नहीं है. पर मामला अभूतपूर्व जरूर है, क्योंकि भारत सरकार पर पहली बार किसी दूसरे देश में घुसकर उसके नागरिक की हत्या करने का ऐसा आरोप लगा है. वह भी सीधे उस देश की संसद से. भारत और कनाडा के रिश्तों में पड़ी खटास में निज्जर एक अहम पहलू है.
हरदीप सिंह निज्जर की हत्या
हरदीप सिंह निज्जर 1977 में पंजाब के जालंधर में पैदा हुआ. खालिस्तानी आंदोलने के साए में बढ़ने वाला निज्जर 1997 में फर्जी पासपोर्ट की मदद से कनाडा पहुंचा. शादी करके वहां बसने के बाद निज्जर ने कनाडा की नागरिकता कैसे हासिल की, यह भी पहेली है. उसने सिख समुदाय में पैठ बनाई और प्लंबिग का काम जमाया. लेकिन, 2007 में लुधियाना में सिनेमाहॉल बम धमाके में निज्जर का नाम था, जिसके बाद इंटरपोल के वॉरेंट 2014 और 2016 में जारी हुए.
2020 में भारत सरकार ने निज्जर को आतंकवादी घोषित किया. सरकार ने निज्जर को 'खालिस्तान टाइगर फोर्स' यानी KTF के सदस्यों का संचालन, नेटवर्किंग, प्रशिक्षण और उनके लिए पैसों का इंतजाम करने का जिम्मेदार बताया था.
31 जनवरी 2021 को जालंधर के फिल्लौर में पुजारी कमलदीप शर्मा की हत्या हुई थी. इस हत्या के लिए KTF को जिम्मेदार ठहराया गया और चार्जशीट में निज्जर का भी नाम था. 8 अक्टूबर 2021 को यह केस NIA के हाथ में चला गया था. जुलाई 2022 में NIA ने निज्जर पर 10 लाख रुपये का इनाम घोषित किया था. फरवरी 2023 में भारत के गृह मंत्रालय ने निज्जर के संगठन KTF को आतंकी संगठन की लिस्ट में डाल दिया.
गृह मंत्रालय ने अपने एक जवाब में बताया कि 2011 में बब्बर खालसा इंटरनेशनल की शाखा के रूप में सामने आए KTF को UAPA के तहत आतंकी संगठन करार दिया गया है. यह संगठन आतंकवाद फैलाता है, इसके लोगों को आर्थिक और लॉजिस्टिकल मदद जैसे हथियार मिल रहे हैं और ये टारगेटेड किलिंग समेत कई आतंकी मामलों में शामिल रहे हैं.
जून 2023 का महीना निज्जर के सक्रिय जीवन का अंत लेकर आया. 8 जून को अंटेरियो के ब्रैंपटन में खालिस्तान समर्थकों ने एक रैली निकाली. इसमें पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की हत्या की झांकी निकाली गई. खून से सनी साड़ी और गोली दागते सिख सुरक्षाकर्मियों का मंचन किया गया.
नाराज भारत के विदेशमंत्री एस. जयशंकर ने साफ कहा कि ऐसी घटनाएं भारत-कनाडा के संबंधों के लिए ठीक नहीं हैं. फिर भारत में कनाडा के उच्चायुक्त कैमरन मकाय का भी बयान आया कि वह कनाडा में भारत की पूर्व पीएम इंदिरा गांधी की हत्या के जश्न की सूचना से चकित हैं. उन्होंने कहा कि कनाडा में नफरत और हिंसा के महिमामंडन की कोई जगह नहीं है और वह इसकी निंदा करते हैं. इसी महीने कनाडा में खालिस्तान के मुद्दे पर जनमत संग्रह कराने की तैयारियां जोरों पर थीं. निज्जर समेत KTF सदस्य इसका खूब प्रचार कर रहे थे.
इसके 10 दिन बाद 18 जून की रात करीब साढ़े आठ बजे निज्जर की गुरुनानक सिख गुरुद्वारे की पार्किंग में गोली मारकर हत्या कर दी गई. भारत और कनाडा के बीच विवाद क्या सिर्फ निज्जर की हत्या की वजह से हो रहा है? इसका 'हां' या 'ना' जैसा कोई सीधा जवाब नहीं है. बीते एक साल का घटनाक्रम देखकर मौजूदा हाल कुछ-कुछ साफ होता है.
क्या बिखर जाएंगे कारोबारी रिश्ते
सितंबर में जब ट्रूडो भारत में हो रहे G20 के मेहमान थे, तब कनाडा के ब्रिटिश कोलंबिया में खालिस्तान पर जनमत संग्रह हो रहा था. KTF के मुताबिक कई दिनों के इस जनमत संग्रह में करीब सवा लाख लोगों ने वोट डाला. इससे माना जा रहा है कि सितंबर के घटनाक्रम के बाद ही बात ज्यादा आगे निकल गई. इतनी आगे कि जब भारत में ट्रूडो का विमान खराब हो गया और भारत ने मदद का प्रस्ताव रखा, तो उन्होंने भारत का विमान लेने से इनकार कर दिया. उन्होंने कनाडा से एक दूसरे विमान से मरम्मत का सामान मंगवाया. वह दो दिन होटल में ही रहे और किसी भी कार्यक्रम में शामिल नहीं हुए.
फिर ट्रूडो के कनाडा लौटते ही पहली खबर यह आई कि भारत और कनाडा के बीच हो रही व्यापार-वार्ता स्थगित कर दी गई है. पीयूष गोयल ने भी इसकी पुष्टि करते हुए कहा कि "कुछ मसलों पर असहमति की वजह से कनाडा के साथ व्यापार समझौते की कोशिशें ठंडे बस्ते में चली गई हैं. हम सुनिश्चित करना चाहते हैं कि भूराजनीतिक और वित्तीय मामलों में हम सेम पेज पर हों." कनाडा की ट्रेड मिनिस्टर को भी भारत आना था, लेकिन ऐन वक्त पर दौरा आगे खिसका दिया गया.
भारत और कनाडा के कारोबारी रिश्ते
2022 में भारत और कनाडा का आपसी व्यापार 12 अरब डॉलर से ज्यादा का था. इसी साल भारत कनाडा का दसवां सबसे बड़ा ट्रेडिंग पार्टनर था. कनाडा के पेंशन फंडों ने भारत में 55 अरब डॉलर का निवेश किया है और कनाडा भारत में 17वां सबसे बड़ा निवेशक है. कनाडा की करीब 600 कंपनियां भारत में काम कर रही हैं, जबकि 1,000 और कंपनियां कारोबार के मौके तलाश रही हैं.
वहीं भारत की दवा निर्माता और सॉफ्टवेयर निर्माता कंपनियां कनाडा के बाजार में बढ़ रही हैं. भारत कनाडा से कोयला, ऊर्वरक, दालें, खनिज और औद्योगिक केमिकल खरीदता है. कनाडा भारत से गहने, दवाइयां, कपड़े और इंजीनियरिंग के हल्के सामान खरीदता है. सवाल है कि क्या खालिस्तान मुद्दे की वजह से भारत और कनाडा के बीच यह व्यापार प्रभावित होगा?
अंतरराष्ट्रीय मामलों के जानकार और वरिष्ठ पत्रकार प्रकाश के. रे की राय है कि भारत और कनाडा के बीच होने वाली कूटनीति और व्यापार को अलग-अलग रखकर देखना चाहिए. वह बताते हैं, "ट्रेड डील करते समय कोई भी दो देश यही सोचते हैं कि वे एक-दूसरे को क्या बेच सकते हैं. भारत और रूस के संबंध बहुत अच्छे रहे हैं. फिर भी भारत रूस पर से हथियारों की निर्भरता घटाने की कोशिश करता रहा है. भारत का चीन के साथ गंभीर सीमा विवाद है. फिर भी दोनों देशों के बीच कारोबार खूब फल-फूल रहा है."
फिर भारत और कनाडा के संदर्भ में बात करते हुए रे कहते हैं, "पिछले कुछ वर्षों में दोनों के बीच व्यापार बेहतर हुआ है. दोनों ही देश संसाधन संपन्न हैं, लेकिन अभी दोनों देशों के पास ऐसे उत्पाद कम ही हैं, जिनसे एक-दूसरे का काम ही न चले. कनाडा हमसे डेयरी, खेती और पोल्ट्री से जुड़े उत्पादों के लिए रास्ता खोलने की उम्मीद करता है, जबकि ऐसा करने से भारतीय किसानों को दिक्कत होगी. भारत ने अमेरिका के सेबों पर से टैरिफ भले खत्म कर दिया हो, पर इसके पीछे और सौदे भी थे. हमारे छात्र, कामकाजी लोग और पर्यटक कनाडा जाते हैं, जिससे कनाडा को भी फायदा होता है. तो इस वजह से आपसी सहयोग बढ़ रहा है और आगे भी बढ़ता रहेगा. बस खालिस्तान के मुद्दे ने इस पर एक ब्रेक लगा दिया है."
अंतरराष्ट्रीय राजनीति पर असर
कारोबार के बाद बात आती है भूरणनीति की, जिसके लिहाज से मौजूदा अंतरराष्ट्रीय राजनीति बेहद दिलचस्प दौर में है. सेंटर फॉर इंटरनेशनल गवर्नेंस इनोवेशंस में डिजिटल इकॉनमी के मैनेजिंग डायरेक्टर बॉब फे ने कहा, "ट्रूडो ने निज्जर की हत्या से भारत के संबंधों की जांच करने की बात कही. नतीजतन ट्रेड डील पर वार्ता रुक गई. लेकिन, इससे ज्यादा चिंता की बात यह है कि कनाडा ने हाल ही में भारत को केंद्र रखकर जो इंडो-पैसिफिक रणनीति बनाई थी, उसका क्या होगा."
इस इंडो-पैसिफिक रणनीति के बारे में पूछने पर प्रकाश के. रे बताते हैं, "चीन से जुड़ी रणनीतियां कनाडा के साथ-साथ अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया, ब्रिटेन और आसियान देशों का भी मुद्दा हैं. जब अंतरराष्ट्रीय सुरक्षा, व्यापार और राजनीति की बात आती है, तो कनाडा का अपना कोई स्वतंत्र अस्तित्व नहीं दिखता. या तो वह अमेरिका की राह पर चलता नजर आता है या यूरोप की. लेकिन कनाडा बड़ा देश और बड़ी इकॉनमी है. नाटो का सदस्य है. उसके पास प्राकृतिक संसाधन बड़ी मात्रा में हैं और यह अमेरिका का सबसे करीबी सहयोगी है. इस लिहाज से कनाडा को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता."
एक सवाल यह भी उठ रहा है कि भारत और कनाडा के संबंधों में टकराव और ट्रूडो के सत्ता संभालने के बीच भी कोई ताल्लुक है. भारत के थिंकटैंक ऑब्जर्वर रिसर्च फाउंडेशन के उपाध्यक्ष हर्ष वी. पंत मानते हैं कि जस्टिन ट्रूडो के सरकार में रहते हुए भारत-कनाडा के बीच संबंध ठीक होने की संभावना कम है.
पंत मानते हैं कि ट्रूडो ने इसे अपना निजी मसला बना लिया है. उन्हें लगता है कि उन पर निजी हमले किए जा रहे हैं. भारत तो खालिस्तान के मुद्दे पर अपनी बात मुखरता से रख ही रहा था. साथ ही कारोबार पर भी बातें चल ही रही थीं. लेकिन ट्रूडो के इस नए रवैये से लगता है कि वह खुद को बैकफुट पर पा रहे हैं. इसी वजह से वह भी भारत के साथ तनाव को लेकर खुले तौर पर मैदान में आ गए हैं.
कनाडाई मीडिया में भी ये बातें हो रही हैं. टोरंटो सन ने अपनी रिपोर्ट में लिखा, "दुर्भाग्यवश जस्टिन ट्रूडो को ऐसा लगता है कि नरेंद्र मोदी की घरेलू सियासी नीतियों का असर उनके अपने राजनीतिक भविष्य पर भी पड़ेगा. इसीलिए वह न सिर्फ मोदी से दूरी बनाए रखना चाहते हैं, बल्कि उनकी आंख में आंख डालकर देखना भी नहीं चाहते."
भारत सरकार पर क्यों लगे आरोप
ट्रूडो ने भारत सरकार पर कनाडा में घुसकर एक कनाडाई नागरिक की हत्या का जो आरोप लगाया है, जानकार उसकी एक दूसरी सूरत भी दिखाते हैं. इस साल मई में पाकिस्तान के लाहौर में खालिस्तान कमांडो फोर्स के मुखिया परमजीत सिंह पंजवाड़ की गोली मारकर हत्या कर दी गई थी. भारत खालिस्तान कमांडो फोर्स को आतंकी संगठन करार दे चुका है और पंजवाड़ के हत्यारों की अभी तक पहचान नहीं हुई है.
फिर जून में खालिस्तान लिबरेशन फोर्स के प्रमुख अवतार सिंह खांडा की लंदन के एक अस्पताल में मौत हो गई. मौत की कई वजहें बताई गईं, लेकिन कोई ठोस जानकारी अभी तक सामने नहीं आई है. लंदन के जिस प्रदर्शन में भारतीय झंडा उतारा गया था, उस मामले में खांडा को गिरफ्तार भी किया गया था.
इसके तीन दिन बाद ही कनाडा में निज्जर की हत्या हो गई. इन्हीं घटनाओं को आधार बनाकर भारत सरकार पर आरोप लग रहा है कि भारत विदेशों में रह रहे खालिस्तान समर्थकों को निशाना बना रहा है.
पूर्व राजनयिक केसी सिंह ट्रूडो के आरोपों को गंभीर बताते हैं. उनका कहना है,"किसी सीनियर डिप्लोमैट पर इस तरह के आरोप लगना रेयर बात है. अगर हम G7 या नेटो के सदस्य देशों की बात करें, तो उनकी ओर से कभी ऐसा बात सुनने को नहीं मिली है. भारत को इसका अंदाजा होना चाहिए था और जब ट्रूडो भारत दौरे पर थे, तब उनकी अनदेखी करने के बजाय इस मुद्दे पर बात करनी चाहिए थी. अब हालात उस मोड़ पर पहुंच गए हैं, जहां से लौटना मुश्किल होगा."
कनाडा और अभिव्यक्ति की आजादी का तर्क
यहां फिर वही सवाल उठता है कि क्या बात इतनी सीधी सी है कि कनाडा अपने नागरिकों को अभिव्यक्ति की आजादी दे रहा है और भारत का इन पर नकेल कसने का आग्रह बस जिद भर है.
इसके जवाब में प्रकाश के. रे कहते हैं, "2018 में जब ट्रूडो भारत दौरे पर आए थे, तब तो खालिस्तान इतना बड़ा मुद्दा नहीं था. फिर भी ट्रूडो को बहुत तवज्जो नहीं दी गई. तो हमें अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया और ब्रिटेन की घटनाओं पर भी ध्यान देना होगा. ये घटनाएं अचानक नहीं होने लगी हैं. जो तत्व भारत की संप्रभुता और अखंडता के लिए खतरा हैं, वे इन देशों में लंबे समय से हैं और उन्हें खुली जगह मिलती रही है. ऐसे लोग सिर्फ अलगाववादी या आतंकी नहीं होते, बल्कि मनी लॉन्ड्रिंग, हथियारों की तस्करी और टारगेटेड किलिंग्स जैसे अपराधों में शामिल होते हैं. दुनिया की अलग-अलग सरकारें अपने फायदों के लिए इन्हें इस्तेमाल करती रहती हैं."
फिर भी, रे अब तक के घटनाक्रम को हल्का नहीं मानते. उनके विश्लेषण से एक और विरोधाभासी तस्वीर उभरती है. वह कहते हैं, "भारत निज्जर की हत्या में शामिल था या नहीं, कनाडा के आरोप राजनीति से प्रेरित हैं या नहीं, इसका सच हमें शायद कभी पता न चले, लेकिन असली सवाल यह है कि ऐसी नौबत क्यों आई. अगर कोई भारतीय किसी और देश की नागरिकता लेकर भारत के खिलाफ काम करे, तो क्या यह उस देश की सरकार की जिम्मेदारी नहीं बनती कि वह दूसरे देश में होने वाली साजिश रोकने की कोशिश करे. एक और अहम बात है कि जो देश खुद को अभिव्यक्ति की आजादी, उदारवाद, लोकतंत्र और मानवाधिकारों के चैंपियन दर्शाते हैं, उनका अपना अतीत कैसा रहा है."
कितना लंबा खिंच सकता है विवाद
अब आखिरी में बात इसकी कि यह मुद्दा कितना लंबा खिंच सकता है. इस पर भी जानकारों की राय बंटी हुई है. शुरुआत करते हैं अमेरिका के पूर्व रक्षा अधिकारी माइकल रूबिन से. उन्होंने कहा है, "अगर कनाडा इस मुद्दे पर विवाद करना चाहता है, तो यह किसी चींटी के हाथी से लड़ाई करने जैसा है. भारत रणनीतिक रूप से कनाडा से कहीं ज्यादा अहम है."
इसे पश्चिम से आया सबसे मुखर बयान कह सकते हैं, क्योंकि इससे पहले वाशिंगटन में 'विल्सन सेंटर' थिंकटैंक में साउथ एशिया इंस्टीट्यूट के निदेशक माइकल कुगलमैन ने कहा था, "मेरा मानना है कि यह हम सबके लिए सबक है कि भारत के पश्चिमी साझेदारों के साथ घनिष्ठ संबंधों में कुछ भी अलंघनीय नहीं है. यह एक चेतावनी है कि हां, भारत एक गुट-निरपेक्ष देश है. यह ग्लोबल साउथ के साथ अपने रिश्तों को तवज्जो देता है. यकीनन भारत के लिए पश्चिम के साथ संबंध अहम हैं, लेकिन इसका यह मतलब नहीं है कि इन संबंधों में किसी बड़े संकट की आशंका नहीं है."
लंदन के स्कूल ऑफ एफ्रीकन एंड ओरिएंटल स्टडीज में राजनीति और अंतरराष्ट्रीय संबंध पढ़ाने वाले अविनाश पालीवाल कहते हैं, "अगर आपकी खुफिया एजेंसियों ने पुख्ता जानकारी जुटा ली है कि कोई देश, भले वह आपका दोस्त हो, आपकी जमीन पर एक खुफिया ऑपरेशन में शामिल था, तो आप पर उस पर कार्रवाई करने के लिए बाध्य हैं. मेरा ख्याल है कि ट्रूडो ने यह मुद्दा पहले दूसरे मंचों पर उठाने का प्रयास किया होगा. चीन और रूस की निगाह भी इस घटनाक्रम पर होगी, जो भारत और पश्चिम के बीच दरार देखकर खुश होंगे. हालांकि, रणनीतिक पक्ष पर इसका असर नहीं पड़ेगा और न ही अमेरिका इसकी वजह से भारत से मुंह मोड़ लेगा."
भूरणनीति विशेषज्ञ ब्रह्मा चेलानी का विश्लेषण है कि ट्रूडो के बयान की वजह से भारत और कनाडा के द्विपक्षीय रिश्तों को जो नुकसान पहुंचा है, उसकी भरपाई में लंबा वक्त लगेगा. वह कहते हैं कि कनाडा में अक्टूबर 2025 में चुनाव होने हैं. फिर शायद कनाडा में सरकार बदलने के बाद ही इस मुद्दे पर कोई प्रगति देखने को मिले.
रिश्तों में प्रगति का जिक्र 1982 के प्रकरण की यादें भी ताजा करता है, जब भारत के बहुत सारे सिख कनाडा जाकर बस रहे थे. इनमें खालिस्तान के कई समर्थक भी थे. तब भारत की प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने कनाडा के प्रधानमंत्री पिएर ट्रूडो से आग्रह किया था कि कनाडा यह स्थिति नियंत्रित करने का प्रयास करे. शायद यही वह बड़ा मुद्दा था, जिसके चलते अगले 10-15 साल भारत-कनाडा के रिश्तों में गर्माहट नहीं थी. फिर पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के कार्यकाल में हुए परमाणु परीक्षण का भी कनाडा ने जोरदार विरोध किया था.
अब पिएर के बेटे जस्टिन ट्रूडो कनाडा के प्रधानमंत्री हैं. कनाडा में खालिस्तान समर्थकों की गतिविधियां भारत सरकार की चिंता बढ़ा रही हैं और भारत एक बार फिर कनाडा से हालात काबू में करने का आग्रह कर रहा है.