क्या अब कड़े आर्थिक सुधार लागू कर पाएंगे नरेंद्र मोदी?
५ जून २०२४दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र भारत में छह हफ्तों तक चली चुनाव की भारी-भरकम कवायद के 4 जून को नतीजे आ गए. परिणामों के मुताबिक, प्रधानमंत्री नरेंद्र नोदी की बीजेपी के नेतृत्व वाले गठबंधन एनडीए ने पूर्ण बहुमत का आंकड़ा पार कर लिया है और यह अपना तीसरा कार्यकाल हासिल करने की राह पर है. हालांकि, बीते दो चुनावी नतीजों से उलट इस बार बीजेपी को पूर्ण बहुमत नहीं मिला.
543 सीटों पर हुए चुनाव के अंतिम नतीजों में बीजेपी को 240 और एनडीए को 292 सीटें हासिल हुईं. जबकि एग्जिट पोल बीजेपी और इसके नेतृत्व वाले गठबंधन के लिए बंपर जीत का अनुमान दे रहे थे.
अब चूंकि बीजेपी अपने बूते बहुमत का आंकड़ा पार नहीं कर पाई है, तो इसका अर्थ है कि पार्टी को सत्ता में बने रहने के लिए अपने गठबंधन साझेदारों की जरूरत होगी. यह बीते दो कार्यकाल से उलट सूरत होगी, जब बीजेपी के पास अपना पूर्ण बहुमत रहा. इससे नीति-निर्माण और प्रशासन में कुछ अनिश्चितता पैदा हो सकती है.
4 जून को जब वोटों की गिनती शुरू हुई और शुरुआती रुझान आने लगे, तो भारतीय सूचकांक निफ्टी और सेंसेक्स ने आठ फीसदी से ज्यादा का गोता लगाया. हालांकि, बाद में स्थिति कुछ सुधर गई. यह मार्च 2020 के बाद सबसे बड़ी गिरावट थी और इससे शेयर बाजार एक दिन पहले के रिकॉर्ड स्तर से तेजी से नीचे आ गया.
भारत का वैश्विक निर्माण केंद्र बनने का सपना
कारोबारी और निवेशक उम्मीद कर रहे हैं कि नया मोदी प्रशासन दुनिया में सर्वाधिक आबादी वाले देश में राजनीतिक स्थिरता और नीतिगत निरंतरता सुनिश्चित करेगा, जो वैश्विक स्तर पर सबसे तेजी से बढ़ती प्रमुख अर्थव्यवस्था भी है.
इस मार्च को समाप्त हुए वित्तीय वर्ष में भारत की आर्थिक वृद्धि 8.2 फीसदी की दर से हुई, जो बड़ी वैश्विक अर्थव्यवस्थाओं में सबसे ज्यादा है. ऐसा भारी मांग और इंफ्रास्ट्रक्चर पर सरकार के हाथ खोलकर खर्च करने की वजह से मुमकिन हुआ.
भारत में करीब 65 फीसदी लोग 35 साल से कम उम्र के हैं. इतनी युवा आबादी वाले देश में इतने बड़े पैमाने पर बेरोजगारी होने के बावजूद इंफ्रास्ट्रक्चर सेक्टर की वजह से समग्र आर्थिक प्रगति के बारे में सकारात्मक माहौल बना हुआ है.
वृद्धि तेज करने और हर साल लेबर मार्केट में घुसने वाले लाखों युवाओं के लिए रोजगार पैदा करने के लिए मोदी सरकार ने भारत को वैश्विक विनिर्माण केंद्र की तरह विकसित करने का लक्ष्य रखा है.
बीते पांच वर्षों में सरकार ने देश में उत्पादन इकाइयां स्थापित करने के लिए एप्पल जैसी टेक क्षेत्र की कई दिग्गज कंपनियों को आकर्षित किया है. वह भी ऐसे वक्त में, जब कई बहुराष्ट्रीय कंपनियां चीन और पश्चिम के बीच बढ़ते भू-राजनीतिक तनाव के कारण चीन से इतर अपनी सप्लाई चेन में विविधता लाने की कोशिश कर रही हैं.
बेंगलुरु स्थित तक्षशिला इंस्टिट्यूट में शोधकर्ता अमित कुमार कहते हैं, "अभी भारत को चीन+1 की रणनीति के अग्रणी दावेदार के रूप में देखा जा रहा है." कुमार ने डीडब्ल्यू से कहा, "भारत को वियतनाम, थाईलैंड, मलेशिया और पूरे आसियान से प्रतिस्पर्धा करनी पड़ रही है. मेक्सिको भी प्रतिद्वंद्वी है."
कुमार आगे कहते हैं, "भू-राजनीति ही वह वजह है, जिसके कारण चीन से जोखिम कम करने और विविधता लाने को बढ़ावा मिल रहा है. इसलिए दूसरे देशों की तुलना में भारत ज्यादा सुरक्षित दांव है." अपनी बात के पक्ष में कुमार भारत के बढ़ते भू-राजनीतिक प्रभाव और विशाल उपभोक्ता बाजार का हवाला देते हैं.
मोदी की मिली-जुली सफलता?
बीते एक दशक में मोदी सरकार ने सड़क, रेलवे और पुल समेत भारत के इंफ्रास्ट्रक्चर को बेहतर बनाने के लिए बड़ी मात्रा में पैसा खर्च किया है. सरकार ने विदेशी निवेश आकर्षित करने और उच्च गुणवत्ता वाले इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों जैसी चीजों के उत्पादन को बढ़ावा देने की कोशिश भी की.
अंतरराष्ट्रीय अर्थशास्त्री और 'एशिया मेगाट्रेंड्स' के लेखक राजीव बिस्वास डीडबल्यू से बातचीत में कहते हैं, "दुनिया के सबसे बड़े और सबसे तेजी से बढ़ते उपभोक्ता बाजारों में से एक तटस्थ लोकतंत्र के रूप में भारत अमेरिका, यूरोपीय संघ, एशिया और मध्य पूर्व की बहुराष्ट्रीय कंपनियों से प्रत्यक्ष विदेशी निवेश के लिए एक केंद्र के रूप में तेजी से आकर्षक बन रहा है."
उन्होंने कहा, "यह विदेशी बहुराष्ट्रीय कंपनियों के भारत के प्रति आकर्षण का ही नतीजा है कि बीते दशक में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश दोगुना हो गया है. 2014 से 2023 के बीच भारत का संचयी प्रत्यक्ष विदेशी निवेश बढ़कर करीब 600 बिलियन डॉलर हो गया."
'कैपिटल इकोनॉमिक्स' में उप मुख्य अर्थशास्त्री शिलान शाह ने हाल ही में अपने एक नोट में कहा था कि भारत ने वैश्विक उच्च-स्तरीय इलेक्ट्रॉनिक्स निर्यात में अपनी हिस्सेदारी बढ़ाने में प्रगति की है. साथ ही, शाह जोड़ते हैं, "लेकिन भारत निम्न-स्तरीय उत्पादों के बाजार में कोई अतिरिक्त हिस्सेदारी हासिल करने में नाकाम रहा, जिनमें अमूमन ज्यादा श्रम लगता है."
शाह मानते हैं कि समस्या का एक हिस्सा यह है कि चीनी कंपनियां इन चीजों को अधिक पूंजी-प्रधान बनाकर इनका ज्यादा उत्पादन करने लगी हैं. उनके मुताबिक, "इसने भारतीय कंपनियों के लिए मुकाबला करना मुश्किल बना दिया है. इससे मोदी के नेतृत्व वाली अगली सरकार में संरचनात्मक सुधार की रफ्तार बढ़ाने की जरूरत का पता चलता है."
और नौकरशाही से जुड़ी बाधाएं?
भारत में कामगारों की बड़ी तादाद है और उत्पादन क्षेत्र में काम करने वाले लोगों की मजदूरी सामान्य तौर पर चीन से कम है.
जॉन हॉपकिंस यूनिवर्सिटी में इंटरनेशनल इकोनॉमिक्स और बिजनेस के प्रोफेसर प्रवीण कृष्ण कहते हैं कि सस्ती मजदूरी से मिलने वाले फायदे अक्सर उत्पादकता, लॉजिस्टिक की दक्षता, नियामकों और व्यावसायिक स्थितियों से जुड़ी समस्याओं की वजह से कम हो जाते हैं.
वह कहते हैं, "विडंबना यह है कि भारत उन क्षेत्रों में निवेश आकर्षित करने में नाकाम रहा है, जो भारत की प्रचुर श्रम-क्षमता का इस्तेमाल करते और विनिर्माण क्षेत्र में रोजगार बढ़ाते हैं. जहां चीन ज्यादा मेहनत मांगने वाले कपड़ा और परिधान क्षेत्र को खाली कर रहा है, वहीं उन्हीं क्षेत्रों में भारत का वैश्विक लाभ न्यूनतम रहा है."
तक्षशिला शोधकर्ता कुमार चीनी अर्थव्यवस्था और भारत-चीन संबंधों के विशेषज्ञ हैं. वह कहते हैं, "भारत में कारोबार स्थापित करना अब भी चीन या 'चीन+1' के पायदान के लिए होड़ कर रहे इसके प्रतिस्पर्धी देशों की तुलना में बोझिल है." वह जमीन, मजदूरी, बिजली और पानी संबंधी बहुत सारी नौकरशाही स्वीकृतियों की ओर इशारा करते हैं, जिन्हें हासिल करने में बहुत समय लगता है.
कुमार आगे कहते हैं, "हाई-प्रोफाइल परियोजनाओं में सरकार की भागीदारी के कारण आवेदनों पर तेजी से कार्रवाई हुई है, लेकिन ये मामले अपवाद थे. जो भी कंपनियां भारत में निवेश करना चाहती हैं, जरूरी नहीं है कि उन सभी को वांछित राजनीतिक या सरकारी समर्थन मिले."
कारोबार-हितैषी बदलावों का क्या हुआ?
उम्मीद की जा रही थी कि अपने तीसरे कार्यकाल में नरेंद्र मोदी और कड़े फैसले लेंगे, जो कारोबारों के हित में होंगे, ताकि भारत को वैश्विक उत्पादन केंद्र के तौर पर स्थापित किया जाए. लेकिन चूंकि बीजेपी अपने बूते बहुमत हासिल नहीं कर पाई है, तो अब इसे अपने फैसले लागू करने के लिए अन्य पार्टियों का समर्थन भी चाहिए होगा.
कुमार कहते हैं कि मोदी सरकार की भारत को विनिर्माण क्षेत्र के प्रमुख देश के तौर पर विकसित करने की जो रणनीति रही है, उसका मुख्य हिस्सा विदेशी कंपनियों को निवेश के लिए प्रेरित करना और कारखाने स्थापित करना रहा है. वह जोर देते हैं, "लेकिन यह भी देखने को मिला है कि कभी-कभी आत्मनिर्भरता का नारा जोर पकड़ लेता है. फिर घरेलू खिलाड़ियों की जोरदार पैरवी या लॉबीइंग भी इस खुलेपन के खिलाफ जाती है."
वह कहते हैं, "बहुत सारे घरेलू खिलाड़ी न तो पर्याप्त प्रतिस्पर्धी हैं और न ही सक्षम. संरक्षणवादी नीतियों के जरिए इनकी मदद करने की भारी कीमत चुकानी पड़ती है, जबकि इसकी कोई गारंटी भी नहीं होती कि वे वैश्विक रूप से प्रतिस्पर्धी खिलाड़ी बन पाएंगे या नहीं."
विशेषज्ञ कहते हैं कि विनिर्माण क्षेत्र में भारत को अधिक प्रतिस्पर्धी बनाने के लिए अगले पांच वर्षों में सरकार की बड़ी प्राथमिकता बुनियादी ढांचे की गुणवत्ता में और सुधार करने की होगी. बिस्वास कहते हैं कि साथ ही, भारत को विनिर्माण प्रक्रियाओं में इंडस्ट्रियल ऑटोमेशन और जेनेरेटिव एआई के एकीकरण को बढ़ावा देकर डिजिटल बदलावों में भी तेजी लानी चाहिए.
बिस्वास कहते हैं, "वैश्विक विनिर्माण आपूर्ति शृंखलाओं का हिस्सा बनने के संबंध में भारत के सामने बड़ी चुनौती यह है कि वह एशिया-प्रशांत के दो सबसे बड़े क्षेत्रीय व्यापार ब्लॉकों, आरसीईपी और सीपीटीपीपी का सदस्य नहीं है." उन्होंने सरकार से आग्रह किया कि वह बड़ी उन्नत अर्थव्यवस्थाओं के साथ द्विपक्षीय एफटीए वार्ता में तेजी लाए, ताकि टैरिफ और गैर-टैरिफ व्यापार बाधाएं और कम की जा सकें.