"खाना नहीं एक पुरानी चप्पल दे दो"
१८ मई २०२०उत्तर प्रदेश के गोरखपुर के पिपराइच के निवासी त्रिलोकी कुमार गुजरात के सूरत में एक कपड़ा मिल में काम करते थे और ट्रेन से नहीं जा पाने के बाद उन्होंने पैदल ही घर की ओर निकलने का फैसला किया. त्रिलोकी कहते हैं, "मैंने खुद को श्रमिक ट्रेन के लिए पंजीकृत किया और एक सप्ताह तक इंतजार किया. किसी ने फोन नहीं किया और आखिरकार हमने घर वापस जाने का फैसला किया. किसी अनजान जगह पर मरने के बजाय घर पर मरना बेहतर है." त्रिलोकी बताते हैं कि उत्तर प्रदेश की सीमा में प्रवेश करने से पहले ही उनकी चप्पलों ने उनका साथ छोड़ दिया था. त्रिलोकी कहते हैं, "मैं नंगे पैर चल रहा हूं और मेरे फोड़े से भी खून बह रहा है. मुझे अभी भी 300 किलोमीटर से ज्यादा चलना है."
समूह के एक अन्य प्रवासी ठाकुर ने कहा कि लोग उन्हें रास्ते में भोजन और पानी की पेशकश कर रहे हैं लेकिन उनके लिए जूता अब एक बड़ी समस्या बन गया है. उन्होंने कहा, "मेरे जूते का सोल निकल रहा था इसलिए मैंने उसके ऊपर कपड़े का एक टुकड़ा बांध दिया है. हम एक या दो दिन भोजन के बिना चल सकते हैं, लेकिन इस स्थिति में बिना जूतों के चलना असंभव है." त्रिलोकी और ठाकुर ने यह कहते हुए पैसे लेने से मना कर दिया कि, "हम चप्पल कहां से खरीदेंगे." इन प्रवासियों की दुर्दशा को देखते हुए जिनमें से कई नंगे पैर भी चल रहे थे, लखनऊ के बाहरी इलाके उराटिया में एक जूते की दुकान के मालिक ने 60 रुपये प्रति जोड़ी की कीमत पर चप्पल बेचने का फैसला किया.
वरिष्ठ नागरिकों के एक समूह ने अपना नाम बताने से इनकार करते हुए कहा कि हम इस मुद्दे पर प्रचार नहीं चाहते हैं, उन्होंने एक स्थानीय दुकान से चप्पलें खरीदीं और उन्हें लखनऊ-बाराबंकी सड़क पर प्रवासी श्रमिकों को बांट दी. कुछ सामाजि कार्यकर्ता भी लखनऊ-फैजाबाद राजमार्ग पर प्रवासियों को भोजन और पानी के साथ-साथ चप्पलें भी बांट रहे हैं.
देशभर के प्रवासी मजूदर औद्योगिक शहरों से निकलकर अपने दूर-दराज के गांवों तक वापस पहुंचने की कोशिश कर रहे हैं. इस काम में दिन के दौरान छिपना और हर रात 20 किलोमिटर का पैदाल सफर तय करना कपड़ा कारखाने में काम करने वाले 23 साल के शिव बाबू की दिनचर्या बन गई है. हरियाणा के पानीपत शहर में तौलिए का निर्माण करने वाली एक कपड़ा फैक्ट्री में काम करने वाले बाबू घर वापसी के लिए एक छोटे समूह में यात्रा कर रहा है. इस समूह में उसके गांव के लोग शामिल है. बाबू ने बताया, "हम रोज तड़के तीन बजे से दोपहर एक बजे तक चलते हैं और फिर दोपहर तीन बजे से देर रात एक बजे तक यात्रा करते हैं. आराम का समय नहीं है, हमारे पास बहुत कम पैसे बचे हैं. और परिवार तक वापस पहुंचने का कोई रास्ता नहीं दिख रहा है."
बाबू कहता है कि कई बार समूह को पकड़े जाने के डर से पूरा दिन छिपना पड़ता है जिससे दिन बर्बाद हो जाता है. वह कहता है, "हम समझते हैं कि महामारी की रोकथाम के मद्देनजर लॉकडाउन लागू किया गया है, लेकिन पानीपत में हमारी वर्तमान स्थिति अस्थिर हो गई है. वहां के लोग बेहद मददगार हैं और हमें समझाते भी हैं, लेकिन किसी पर भार बनने से अच्छा है आगे बढ़ चलना." अपने गांव और घर की तरफ जाने वाले ज्यादातर प्रवासी मजदूर दिन के समय में छिपे रहने और रात में पैदल चलने की रणनीति अपना रहे हैं.
एए/सीके (आईएएनएस)
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