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तस्वीर नहीं ख्वाब है सिनेमा

१५ अप्रैल २०१३

हिन्दी सिनेमा 100 साल का हो गया है. रेंग रेंग कर चलना सीखे सिनेमा ने अब रफ्तार पकड़ ली है. दुनिया को अलग खूबियों से अभिभूत किया है. मशहूर शायर जावेद अख्तर ने डॉयचे वेले के लिए हिन्दी फिल्मों के सफर का खाका खींचा.

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तस्वीर: picture-alliance/Mary Evans Picture Library

मैं समझता हूं कि किसी भी मुल्क की फिल्में उसी समाज का हिस्सा होती है. जैसे जैसे समाज ऊपर जाता है या बदलता है, उसी तरह फिल्में भी बदलती हैं, फिल्म इंडस्ट्री भी बदलती है. अगर समाज की हालत बेहतर होती है, तो फिल्म इंडस्ट्री की भी बेहतर होती है. अगर समाज अपनी परंपराओं को बदलता है, तो वह तब्दीली आपको फिल्मों में भी दिखाई देती है.

फिल्में समाज का आईना नहीं होती हैं, वो समाज का ख्वाब होती है. उसके अंदर वो तमाम तमन्नाएं भी दिखाई देती हैं, जो समाज के पास हैं और तमाम डर और तमाम फिक्रें भी. उसमें समाज की सभी बातें होती हैं, उसकी रिवायतें होती हैं लेकिन वो समाज की तस्वीर नहीं होती हैं. किसी ने बड़ी अक्लमंदी की बात कही है कि मुझे किसी देश या समाज के विज्ञापन दिखा दो, तो मैं उस समाज के बारे में सब कुछ बता सकता हूं.

Indien Javed Akhtar
तस्वीर: picture-alliance/dpa

मनोरंजन के लिए बनने वाली फिल्में हो सकता है कि पैसे कमाने के उद्देश्य से बनाई जा रही हों लेकिन वे भी समाज को ही दिखाती हैं. इनमें भी समाज के ख्वाब हैं, या उम्मीदें हैं. उनके संस्कार और उनके नैतिक मूल्य सब कुछ हैं. वक्त के साथ नैतिक मूल्यों में भी तब्दीली आती है, उसी तरह फिल्मों में भी यह तब्दीली दिखाई देती है.

समझदार होता बॉलीवुड

मैं समझता हूं कि वक्त के साथ साथ फिल्म बनाने वाले और इसे देखने वालों की समझदारी बढ़ी है. पहले लोग एक्टर को उसके कैरेक्टर से पहचानने लगते थे. लेकिन फिल्म बनाने वालों की और दर्शकों की मैच्योरिटी दिखाती है कि अब आप एक्टर को उसके रोल से कंफ्यूज नहीं करते हैं. बल्कि आप समझते हैं कि ये अच्छा एक्टर है और इसने अगर विलेन का रोल किया था तो बहुत अच्छा किया था और ये अच्छा वाला रोल भी अच्छा करेगा.

इसी तरह फिल्मों की कहानी चोरी करने के मामलों में भी लगाम लगी है. पहले तो बाहर की फिल्में आती ही नहीं थीं, आती थीं तो बरसों बाद आती थीं. वो भी हिन्दुस्तान के बड़े शहरों में दो एक थियेटर में लगती थीं. उस वक्त वह एक दूसरी चीज थी, कहीं दूसरी दुनिया की चीज. लेकिन अब संचार तंत्र इतना बढ़ गया है कि किसी की हिम्मत ही नहीं हो सकती कि चोरी करे. क्योंकि यह तो एक मिनट में पता लग जाएगा कि यह चीज कहां से आई है. इसके अलावा नई नस्ल के फिल्मकारों में आत्मविश्वास भी बहुत ज्यादा है. उन्हें ये पसंद नहीं कि कहीं और से चीजें लें.

Szenenbild aus dem Film Solange ich lebe
तस्वीर: www.yashrajfilms.com

खास है हिन्दी सिनेमा

मैं नाच गाने के खिलाफ नहीं हूं. जिसे नाच गाना नहीं पसंद है, वो हमारी फिल्म न देखे, दूसरी फिल्में देखे. हिन्दुस्तान में तीन चार हजार साल से कहानी सुनाने की रिवायत है. चाहे वो संस्कृत के ड्रामे हों या रामलीला या कृष्णलीला, चाहे नौटंकी हों या यात्रा, चाहे उर्दू पारसी थियेटर हो जो कि बोलती फिल्म के पहले था. उन सब में गाने थे. हम कहानी में गीत रखते हैं, यह हमारा रिवाज है. अब ये किसी को नहीं पसंद है, तो नहीं पसंद है. अब अगर कोई एतराज करे कि इतालवी ओपेरा में लोग गाते क्यों हैं. भई, उसमें गाया जाता है. आपको इतालवी ओपेरा नहीं पसंद है, आप कुछ और देख लीजिए. हमने जिम्मा नहीं लिया है कि हम सबको खुश रखेंगे. फिल्म बनाने का हमारा यही अंदाज है.

हालांकि अब नए वक्त में अलग तरह की फिल्में भी बन रही हैं. उनमें कई बार संगीत है भी तो बैकग्राउंड में है. लिप सिंक नहीं हैं. मैं चाहता हूं कि ऐसे फिल्में जरूर बनें लेकिन जो हमारी पारंपरिक फिल्में हैं, जो पहले बना करती थीं, वो भी हमेशा बनें. हमारा कहानी सुनाने का एक खास अंदाज है, वो हम क्यों छोड़ें और किसके लिए छोड़ें.

(अनवर जे अशरफ से बातचीत पर आधारित)

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