सत्तापक्ष हो या विपक्ष, भारतीय राजनीति में जिधर देखिए धर्म की ही बात हो रही है. पूरे देश में टीवी पर प्रधानमंत्री को पूजा-अर्चना करते दिखाया जा रहा है और उन्हें चुनौती देने वाले खुद को उनसे भी बड़ा धर्म-रक्षक बताने की कोशिश में लगे हुए लगे हैं.
राहुल गांधी चीख चीख कर अपने हिंदू होने का प्रमाण देने की कोशिश कर रहे हैं. अखिलेश यादव काशी गलियारे की परिकल्पना का सहरा अपने सिर बांधने की कोशिश कर रहे हैं.
उधर अगले लोक सभा चुनावों में विपक्ष का सबसे बड़ा चेहरा बनने की कोशिश में लगीं ममता बनर्जी ने तो अपनी पार्टी टीएमसी का मतलब "टेम्पल, मस्जिद, चर्च" बता कर पार्टी के पूरे अस्तित्व को ही धर्म के खूंटे से गाड़ दिया है.
स्पष्ट है कि जहां बीजेपी धर्म के रास्ते ही चुनावी राजनीति पर अपनी पकड़ को और मजबूत बनाना चाह रही है, वहीं विपक्षी पार्टियों को भी लग रहा है कि बीजेपी को हरा कर सत्ता के दरवाजे के ताले को खोलने की कुंजी भी धर्म ही है.
जरा याद कीजिए
देश की प्रमुख राजनीतिक पार्टियों की घोषित प्राथमिकताओं को देख कर लगता ही नहीं कि देश में जनहित के लिए कोई और विषय आवश्यक है.
यह वही देश है जो विकास के अधिकतर पैमानों पर अभी भी काफी पिछड़ा हुआ है. यहां 20 प्रतिशत से ज्यादा आबादी अभी भी अशिक्षित है. 25 प्रतिशत से भी ज्यादा आबादी गरीबी रेखा के नीचे है. अमीरों-गरीबों के बीच की खाई का मुंह और फैलता ही चला जा रहा है.
यह वही देश है जो अभी अभी महामारी की एक ऐसी लहर से निकला है जिसने पूरे देश को जैसे एक विशाल श्मशान घाट में बदल दिया था. शायद ही कोई ऐसा शख्स हो जिसके परिवार, संबंधियों, दोस्तों या परिचितों में से किसी के घर को भी मौत छू कर ना गई हो.
अपने प्रियजनों की मौत और उनके अंतिम दर्शन तक ना कर पाने के अफसोस का बोझ अपने अपने दिलों पर लिए लोग क्या इतनी जल्दी उस त्रासदी को भूल गए हैं?
प्राथमिकता क्या है
सत्ताधारी तो चाहेंगे ही कि लोग यह सब भूल जाएं. वो चाहेंगे कि जनता यह भी भूल जाएं कि देश की अर्थव्यवस्था जिस तरफ जा रही है वो एक अलग ही त्रासदी है. पहले से ही विकास की रफ्तार खो रही अर्थव्यवस्था महामारी के इन दो सालों में चरमरा गई है.
इतिहास में पहली बार अर्थव्यवस्था बढ़ने की जगह सिकुड़ रही है. धनी परिवार इस झटके को झेल सकते हैं लेकिन गरीबों और मध्यम वर्ग के लिए खतरे की घंटी है.
हाल के दशकों में जो करोड़ों लोग धीरे धीरे गरीबी से निकल पाए वो गरीबी की चपेट में वापस जा चुके हैं. पिछले कम से कम 12 सालों में ऐसी महंगाई नहीं देखी गई. बेरोजगारी दर ने 45 सालों के रिकॉर्ड को तोड़ दिया है.
राजनीतिक तमाशों के परे देखेंगे तो समझ में आएगा कि देश इस समय किन हालात में है. इस समय देश को एक ऐसी राजनीति की जरूरत है जो बताए कि करोड़ों लोगों को रोजगार कैसे मिलेगा, घरों में चूल्हा कैसे जलेगा, बच्चे स्कूलों में कैसे पहुंचेंगे, अस्पताल, डॉक्टरों और अस्पतालों में बिस्तरों की संख्या कैसे बढ़ेगी?
ऑक्सीजन जैसी मूलभूत चीज की कमी कैसे दूर होगी? अस्तित्व के लिए जरूरी ऐसे सवाल हमारे सामने खड़े हैं. ऐसे में, क्या सबसे ज्यादा चिंता इस बात की होनी चाहिए कि कौन सा मंदिर कहां और कब बनेगा?
जनता किसे चुनना चाहती है वो चुनावों में बता सकती है, लेकिन राजनीतिक पार्टियों के पास अपनी प्राथमिकताओं को दिखाने का मौका चुनाव के पहले ही उपलब्ध रहता है.
इस समय ऐसा लग रहा है कि वो अपनी प्राथमिकताएं तय कर चुकी हैं. और उसमें फिलहाल आम लोगों की जिंदगियों को बेहतर बनाने के प्रयासों की कोई जगह नहीं दिखती.