"अमेरिका में नस्लभेद रोजमर्रा की जिंदगी का हिस्सा है”
३ जून २०२०"दंगा, उन लोगों की भाषा है जिन्हें सुना नहीं जाता” करीब पचास साल पहले ये शब्द नागरिक अधिकार के लिए लड़ने वाले लीडर मार्टिन लूथर किंग जूनियर ने कहे थे. वे समझा रहे थे कि अमेरिका में काले लोग क्यों सड़कों पर उतरते हैं.
यह देखना दुर्भाग्यपूर्ण है कि तब से अब तक परिस्थितियां कितनी सुधरी हैं. एक बार फिर, हजारों लोग नस्लभेद और पुलिस की बर्बरता के विरुद्ध प्रदर्शन कर रहे हैं. एक बार फिर, उन लोगों को बदलाव की बड़ी कम उम्मीद है.
प्रदर्शनों के बावजूद, ज्यादातर काले लोग अमेरिका की समृद्धि में अपनी हिस्सेदारी नहीं पा सकेंगे, वे गोरों के मुकाबले कम पैसा कमाते रहेंगे. ज्यादातर काले लोगों को खुद को बेहतर बनाने के मौके नहीं मिलेंगे. और वे अपने बच्चों को दोयम दर्जे के स्कूलों में भेजते रहेंगे. इस बात की बहुत कम गुंजाइश होगी कि उनका स्वास्थ्य बीमा होगा. उनकी जीवन प्रत्याशा कम ही रहेगी और जेल जाने की संभावना अधिक होगी, वो भी लंबी सजा के साथ. ये सब इसीलिए होगा, क्योंकि वे गोरे नहीं हैं.
एक टिप्पणीकार के मुताबिक, दोयम दर्जे के नागरिक जैसे व्यवहार से खीझकर, अमेरिका के दर्जन भर शहरों में काले लोग प्रदर्शन नहीं कर रहे हैं. वे प्रदर्शन इसलिए कर रहे हैं क्योंकि वे वाकई में सेकेंड क्लास सिटीजन हैं.
आधिकारिक रूप से, कानून के सामने हर अमेरिकी नागरिक समान है. लेकिन हकीकत में, अमेरिका की पुलिस सड़कों पर लोगों को उनके रंग और लुक के कारण रोकती है. भले ही वे संदिग्ध न भी हों तब भी उन्हें रोका जाता है. गिरफ्तारी के दौरान अगर पुलिस ने अगर कोई बर्बर गलती की, जैसी जॉर्ज फ्लॉएड के मामले में की गई, तो वे इससे इनकार करती है. लोकल डिस्ट्रिक्ट अटॉर्नी ऑफिस में मामला और बदतर हो जाता है, वहां ऐसे मामलों को दबाने की कोशिशें होती हैं.
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प्रदर्शन काफी नहीं
अमेरिका में स्थानीय प्रशासन की निगरानी करने वाली कोई स्वतंत्र संस्था नहीं है. पुलिस की कारों में तमाम कानून तोड़ने वाले बैठे हुए हैं, जो कानून के रखवाले होने का दिखावा करते हैं. ऐसे कई गोरे लोग हैं जिन्होंने इन अधिकारियों की घिनौनी हरकतों को बर्दाश्त किया है. किंग अपने संबोधन में अमेरिका की ज्यादातर जनता के बारे में बात कर रहे थे, "जो बिना विरोध के दुष्टता को स्वीकार करता है वे असल में उनके साथ सहयोग कर रहा होता है.”
लेकिन दुष्टता के खिलाफ प्रदर्शन करना ही काफी नहीं है, इसे रोकना होगा. अमेरिका के पहले काले राष्ट्रपति बराक ओबामा ने यह करने की कोशिश की, लेकिन आखिकार वे नाकाम हुए. उनके कार्यकाल के दौरान फर्गुसन में 18 साल के निहत्थे काले युवक माइकल ब्राउन को आठ बार गोली मारी गई. उसके बाद देश भर में प्रदर्शन हुए.
ओबामा के राष्ट्रपति कार्यकाल के दौरान एक काले न्यूयॉर्क वासी एरिक गार्नर का पुलिस अधिकारी ने गला दबोचा. गार्नर ने मौत से पहले कहा, "आई कान्ट ब्रीद.” एक हफ्ते पहले जॉर्ज फ्लॉयड के मुंह से भी यही आखिरी शब्द निकले. उनकी गर्दन पर करीब नौ मिनट तक एक पुलिस अधिकारी ने दबाई थी.
रोजमर्रा के नस्लभेद के सामने लाचार
अमेरिकी राष्ट्रपति भले ही दुनिया की सबसे ताकतवर सेना का मुखिया हो, लेकिन अपने ही देशवासियों द्वारा हर दिन किए जाने वाले नस्लभेद के सामने वे लाचार दिखते हैं. निश्चित रूप से उन्हें इस अन्याय की निंदा करनी चाहिए और पुलिस बर्बरता का शिकार बनने वाले परिवार के साथ सहानुभूति व्यक्त करनी चाहिए, लेकिन ऐसा तभी होगा जब वो आक्रोश और भावनाओं को शांत करने की कोशिश करने की सोचेंगे.
लेकिन जैसा लग ही रहा था, वैसा ही हुआ, राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रंप इस मामले में बुरी तरह नाकाम रहे. उनकी सहानुभूति वैसी ही है जैसे फूलों के बागान में किसी उल्का पिंड का गिरना. ट्रंप की आँखों में अभी सिर्फ दोबारा राष्ट्रपति बनने का सपना है और उन्हें लगता है कि अपने सैन्य रागों से वे गोरे वोटरों को रिझा सकेंगे.
हो सकता है कि नंवबर में होने वाले राष्ट्रपति चुनावों में यह रणनीति काम कर जाए, ये अमेरिका की कमजोरी को ही बयान करेगी.
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दुर्भाग्य से जो जॉर्ज फ्लॉयड के साथ हुआ, वो अकेला मामला नहीं है. ऐसे ही हजारों मामले हैं. कालों के प्रति बैर सिर्फ पुलिस अधिकारी या डिस्ट्रिक्ट अटॉर्नी या जज ही नहीं रखते, बल्कि टीचर और नौकरी देने वाले भी ऐसे ही सोचते हैं. यह प्रदर्शन हर दिन होने वाले ऐसे ही नस्लभेद का विरोध हैं.
यह नस्लभेद अमेरिका में रोजमर्रा की जिंदगी का हिस्सा है, इसीलिए इससे निपटना मुश्किल है. बरसों से मानवाधिकार कार्यकर्ता अमेरिकी पुलिस अधिकारियों के लिए बेहतर ट्रेनिंग की मांग कर रहे हैं. दशकों से पुलिस और डिस्ट्रिक्ट अटॉर्नी के काम काज की निगरानी और सख्त गन लॉ के लिए स्वतंत्र निगरानी तंत्र की मांग हो रही है. लेकिन अब तक इन मामलों में ना के बराबर प्रगति हुई है.
हालांकि प्रदर्शनकारियों की मंशा से लोगों को सहानुभूति हो सकती है. लेकिन यह कहना भी जरूरी है कि हिंसा कोई हल नहीं देती है. यह बचाव नहीं हैं, न ही इसे सही ठहराया जा सकता है. हिंसक कदम, कई गोरे लोगों के पूर्वाग्रह को और चारा देते हैं.
ऐसे में क्या पीछे बचता है? शायद जो मार्टिन लूथर किंग जूनियर ने कहा, "हमें ढेरों लेकिन सीमित निराशाएं स्वीकार करनी चाहिए लेकिन असीमित आशा को नहीं खोना चाहिए.” शायद ये शब्द जॉर्ज फ्लॉयड के परिवार को जरा सी सांत्वना दे सकें.
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