अवसाद के दलदल से निकालेगा दिमाग का पेसमेकर
१५ अक्टूबर २०२१अवसाद के गंभीर मामलों में ज्ञात उपचारों के बीच एक नयी तकनीक आजमाई गई है. इसे कहते हैं डीप ब्रेन स्टिमुलेशन जिसमें मरीज के दिमाग को इलेक्ट्रोड के जरिए झिंझोड़ा जाता है. लेकिन वैज्ञानिक और डॉक्टर बिरादरी की राय बंटी हुई है.
वर्षों से गहरे अवसाद ने सारा को अपनी जिंदगी खत्म करने के इरादे की ओर धकेल दिया था. उन्होंने 20 किस्म की दवाएं और उपचार किए, महीनों अस्पताल में भर्ती रहीं, दिमाग में बिजली के झटके भी खाए और नसों की चुंबकीय थेरेपी भी की. लेकिन अवसाद के लक्षण बने रहे.
अपना नाम जाहिर न करने की शर्त पर उत्तरी कैलिफोर्निया की 38 वर्षीय सारा ने बताया, "मेरा जीवन तो कगार पर आ गया था.” पांच साल पहले सारा का अवसाद गंभीर हो गया. इतना गंभीर कि उनके लिए अकेले रह पाना सुरक्षित नहीं रह गया था. वो अपने मातापिता के पास लौट आई और अपनी नौकरी छोड़ दी.
विश्व स्वास्थ्य संगठन के मुताबिक दुनिया में तीस करोड़ लोग अवसाद की समस्या से प्रभावित हैं. सही समय पर सहायता, समर्थन और उपचार की बदौलत कुछ लोग आत्महत्या की प्रवृत्ति से निजात पाने में सफल रहे हैं. लेकिन सारा के साथ ऐसा नहीं था. वो उन 20-30 प्रतिशत लोगों में थी जिन्हें सामान्य उपचारों से कोई राहत नहीं मिलती है. वो कहती हैं, "मैं तो इस हालत में जीती नहीं रह सकती थी. अगर यही सब होना था तो फिर जीने का क्या फायदा था.”
एक फौरी उपचार?
जून 2020 में वो एक प्रयोगात्मक अध्ययन में शामिल होने वाली पहली मरीज बनीं. सैन फ्रांसिस्को स्थित कैलिफोर्निया यूनिवर्सिटी में वैज्ञानिकों के एक दल ने उनकी खोपड़ी में सिगरेट के डिब्बे के आकार की एक डिवाइस लगा दी. वो सारा के अवसाद के उभरने वाले लक्षणों की शिनाख्त करता है और मस्तिष्क में विद्युत उद्दीपन पैदा कर अपनी प्रतिक्रिया देता है. इस तरह दिमाग को अवसाद के ख्याल निकालने की ताकीद मिल जाती है. ये उसके लिए एक पेसमेकर की तरह है. अवसाद से छुटकारा पाने का ये तरीका था.
इस डिवाइस ने सारा का दुनिया को देखने का नजरिया बदल दिया. उन्होंने सीएनएन को बताया, "मुझे याद है कि एक रोज मैं डिवाइस लगाए घर लौट रही थी. मैं खाड़ी को देख सकती थी जहां वो दलदलों से मिलती है, और मेरे मन में ख्याल आया, हे भगवान, अलग अलग रंगों का क्या नजारा है, क्या उजाला है.” अपने अवसाद की गहराइयों में सारा अपने आसपास अभी तक सिर्फ बुरा ही देखती आई थी.
एमआईटी टेक्नोलॉजी रिव्यू के मुताबिक, डिवाइस लगने के बारह दिन के भीतर, 54 अंकों वाले मोंटोगोमरी-आस्बर्ग डिप्रेशन रेटिंग स्केल पर सारा के अवसाद का पैमाना 36 से गिरकर 14 पर पहुंच गया था. शोधकर्ताओं के मुताबिक, कुछ महीनों बाद वो 10 से नीचे आ गया जो इस बात का संकेत था कि उनका अवसाद ढलान पर था.
न्यू यार्क शहर में आइकान स्कूल ऑफ मेडिसिन के सेंटर फॉर एडवांस्ड सर्किस थेरेप्युटिक्स की निदेशक और न्यूरोलॉजिस्ट हेलेन मेबर्ग ने डीडब्ल्यू को बताया, "ये तकनीक वैज्ञानिक इंजीनियरिंग के एक प्रयत्न के रूप में अविश्वसनीय है. ये दिखाती है कि न्यूरोविज्ञान से जो हमने सीखा है उससे क्या कुछ संभव है.”
सभी अवसाद एक जैसे नहीं
सारा के अवसाद के उपचार में प्रयुक्त तरीके को डीप ब्रेन स्टिम्युलेशन कहा जाता है. इसमें दिमाग के एक हिस्से में लगातार विद्युत संवेग भेजे जाते हैं. ये उपचार तीस साल से चला आ रहा है. पार्किन्संस, ऑब्सेसिव कंपल्सिव डिसऑर्डर (जुनूनी बाध्यकारी विकार) और मिरगी जैसी बीमारियों में भी इसका इस्तेमाल किया जाता है.
करीब 20 साल पहले शोधकर्ताओं ने गंभीर अवसाद के इलाज के रूप में इसका परीक्षण शुरू किया था. लेकिन पूर्व के क्लिनिकल ट्रायलों में सीमित सफलताएं ही मिल पाईं. अमेरिका के दो ट्रायल तो बीच में ही रोकने पड़े क्योंकि मरीजों में डिवाइसों के जरिए प्लेसेबो की अपेक्षा बेहतर नतीजे नहीं मिल पाए थे.
जर्मन शहर ओबरहाउजेन में योहानिटर अस्पताल में मनोचिकित्सक येंस कून ने डीडब्ल्यू को बताया, "दुर्भाग्यवश डीप ब्रेन स्टिम्युलेशन से अवसाद के इलाज का साक्ष्य हमारे पास अब भी बहुत कम हैं.” दिमाग को झिंझोड़ने वाले इस उपचार से जुड़ी एक बड़ी चुनौती ये है कि इसमें हर व्यक्ति के दिमाग में अलग अलग हिस्से शामिल हो सकते हैं. फ्राइबुर्ग यूनिवर्सिटी क्लिनिक में न्यूरोसर्जन फोल्कर कोएनन ने डीडब्ल्यू को बताया कि "अवसाद हमेशा एक जैसा नहीं होता है.” इस लिहाज से ‘हर मर्ज का एक ही उपचार' वाला रवैया अख्तियार करना नामुमकिन है.
हर मरीज का अलग उपचार
इस केस स्टडी में खास और उत्साह बढ़ाने वाली बात ये है कि सारा के अवसादी मस्तिष्क पैटर्न के लिहाज से उपचार को व्यक्तिनिष्ठ बनाया गया है. अध्ययन की प्रथम लेखक और मनोचिकित्सिका कैथरीन स्कानगोस ने पत्रकारों को बताया, "हम लोग इससे पहले मनोचिकित्सा में इस किस्म की पर्सनलाइज्ड थेरेपी नहीं कर पाए थे.”
डिवाइस को सारा के अवसाद लक्षणों के हिसाब से सेट करने के लिए शोधकर्ताओं ने उनके दिमाग का दस दिनों तक अंवेषण किया. उन्होंने विभिन्न स्थानों पर इलेक्ट्रोड रखे, उन्हें उद्दीप्त किया और सारा से भावनाओं में आए बदलावों के बारे में पूछा.
सारा ने न्यू यार्क टाइम्स को बताया कि इस प्रक्रिया के दौरान एक बिंदु पर उन्हें हंसी आ गई और पांच साल में पहली बार मुस्कुरा उठीं. लेकिन दिमाग के अलग हिस्से को झिंझोड़ने से उन्हें एक खराब सी अनुभूति होती थी जैसी कुछ लोगों को तब महसूस होती है जब कोई दीवार पर या बोर्ड पर नाखुन खुरचता है. अंवेषण के अंत में शोधकर्ता, सारा के अवसाद से उपजे पैटर्नों का एक नक्शा तैयार करने में सफल रहे. कोएनन ने कहा, "शोधकर्ताओं ने पता लगा लिया कि मरीज के मस्तिष्क के किस हिस्से में समस्या मौजूद है.”
अवसाद के चक्र को तोड़ने की कोशिश
वैज्ञानिकों के समूह ने पता लगाया कि डर और गुस्से जैसी भावनाओं के लिए जिम्मेदार मस्तिष्क के एक अदना से कोने, अमिगडला ने सारा के बदतर अवसाद लक्षणों का पूर्वानुमान लगा लिया था. दूसरी ओर भावुकता, प्रेरणा और पुरस्कार से जुड़े दिमागी हिस्से, वेंट्रल स्ट्रिएटम ने सारा की अवसाद की भावनाओं को मिटा दिया था. इन नतीजों ने शोधकर्ताओं को मांग पर उपलब्ध थेरेपी देने वाला एक चक्र तैयार करने के लिए जरूरी औजार मुहैया करा दिए.
बिंदुओं को जोड़कर उन्होंने दोनों हिस्सों में दो इलेक्ट्रोड लगा दिए. एक अवसाद चक्र के प्रारंभ को चिन्हित करने के लिए और दूसरा लक्षणों का मुकाबला करने वाले उद्दीपनों को जागृत करने के लिए. कोएनन कहते हैं, "मापन, उद्दीपन, मापन और उद्दीपन का ये सचेत और सतर्क तरीका ही इस केस स्टडी की एक विशिष्टता है.”
डिवाइस और थेरेपी के मिलेजुले प्रभाव से सारा के भावनात्मक ट्रिगर और अटपटे ख्यालात उन पर हावी नहीं होने पाते. सारा कहती हैं, "वे ख्याल अब भी उभर आते हैं, लेकिन...बस ज़रा ही देर में...फनां भी हो जाते हैं.”
महंगा और जोखिम भरा उपचार
सारा के जीवन पर इस डिवाइस का बड़ा असर पड़ा है लेकिन इस तरीके की अंतर्वेधिता यानी भीतर घुसकर दखल देने की जरूरत, जोखिम भरी है. मरीज के दिमाग में इलेक्ट्रोड डालने से खून भी बह सकता है. गंभीर मामलों में इससे मौत भी हो सकती है. कोएनन कहते है, "ये उपचार की एक अपेक्षाकृत कठोर विधि है जो आमतौर पर सिर्फ मिरगी के मरीजों पर इस्तेमाल की जाती है.”
दिमाग में उल्लास और आनंद को नियंत्रित करने वाले हिस्से वेंट्रल स्ट्रिएटम को उद्दीप्त करना भी जोखिम भरा है. मेबर्ग कहती हैं, "ये वो इलाका है जिसमें लत लगने की क्षमता है.” वो इस पर भी हैरान हैं कि हो सकता है कि उपचार के दौरान मरीजों में आगे चलकर इस किस्म के उद्दीपन से कोई हरकत ही न हो यानी वे उसे जज्ब ही करने लग जाएं. तब क्या होगा.
शोधकर्ताओं के दिमाग में दूसरा सवाल ये है कि ये डिवाइस सारा के अलावा और लोगों की मदद कर सकता है या नहीं. इस विधि की सफलता उसकी पेचीदगी और वैज्ञानिक कौशल पर निर्भर है. यही चीजें उसकी सबसे बड़ी समस्या भी हैं. मेबर्ग कहती हैं, "इसका संचालन और क्रियान्वयन वाकई, वाकई पेचीदा है.”
डिवाइस को पर्सनलाइज यानी हर मरीज के लिहाज से तैयार करना होगा. हर मरीज के लिए अलग डिवाइस. इसका मतलब है दसियों हजार डॉलर की कीमत, विशेष किस्म के उपकरण, और अस्पताल में सप्ताह भर का निवास, इस किस्म की विलासिता सबके बस में नहीं. मेबर्ग कहती हैं, "उस रूप में तो इसकी माप नहीं हो सकती.”
कमियों और असुविधाओं के बावजूद, अध्ययन से हासिल जानकारी भविष्य में सैकड़ों मरीजों को फायदा पहुंचा सकती है. मनोचिकित्सक कैथरीन स्कानगोस कहती है, "लक्षणों के उभरते ही एक ही पल में हम उनका उपचार कर सकते हैं. ये विचार असल में, अवसाद के सबसे गंभीर और सबसे कठिन मामलों के इलाज से निपटने का पूरी तरह एक नया ही तरीका है”
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