नई बसें आईं तो पढ़ पा रही हैं पेशावर की लड़कियां
९ मई २०२२पाकिस्तान के पेशावर में पढ़ने वालीं माहजबीं अपनी पढ़ाई का श्रेय देश की नई बस व्यवस्था को देती हैं. उन्हें लगता है कि नया बस सिस्टम ना आता तो वह घर में ही कैद रहतीं और उनकी शादी कर दी जाती. 23 साल की माहजबीं कहती हैं कि नई बस रैपिड ट्रांजिट (बीआरटी) व्यवस्था के चलते वह अपनी मास्टर्स की पढ़ाई जारी रख पाईं और उनका वैज्ञानिक बनने का सपना जिंदा है.
माहजबीं बताती हैं, "मेरे माता-पिता ने तो मेरी पढ़ाई रोकने का फैसला कर लिया था क्योंकि उन्हें मेरा भरी हुईं माजदा वैगन में आना-जाना ठीक नहीं लगता था.” माजदा वैगन छोटी निजी बसें हैं जो पेशावर में परिवहन का बड़ा जरिया रही हैं.
बीआरटी ने बदले हालात
2020 में जब पेशावर में बीआरटी सेवा शुरू हुई तो माहजबीं की जिंदगी बदल गई. नई चमकती बस में वह कॉलेज आ-जा रही हैं, जिसका स्टॉप उनके घर के पास ही है. यह बस उन्हें यूनिवर्सिटी के गेट पर ही उतारती है. बीआरटी व्यवस्था रूढ़िवादी समाज में रह रहीं महिलाओं के बीच खासी लोकप्रिय है, जहां 2016 में हुए एक सर्वे में 90 प्रतिशत महिलाओं ने कहा था कि वे सार्वजनिक परिवहन में असुरक्षित महसूस करती हैं.
पाकिस्तान में बसों में यात्रा करती महिलाओं के साथ यौन शोषण, शारीरिक छेड़छाड़, सीटियां बजाना जैसी हरकतें आम मानी जाती हैं. इस कारण बहुत से माता-पिता अपनी बेटियों को पढ़ने या काम करने के लिए अकेले बाहर भेजने घबराते हैं. वर्ल्ड बैंक की रिपोर्ट के मुताबिक सिर्फ इस वजह से पाकिस्तान की कई महिलाओं ने नौकरी की तलाश तक छोड़ दी थी.
लेकिन पेशावर की बीआरटी आने के बाद हालात कुछ बदले हैं. बसों में एक चौथाई सीटें महिलाओं के लिए रक्षित हैं. डीजल और इलेक्ट्रिक एनर्जी से चलने वालीं ये हाइब्रिड बसें आरामदेह भी हैं. इनमें सीसीटीवी कैमरे लगे हैं. इसके अलावा बसों में गार्ड भी तैनात रहते हैं, ताकि महिलाएं सुरक्षित महसूस करें.
बढ़ गई महिला यात्रियों की संख्या
बीआरटी चलाने वाली सरकारी कंपनी ट्रांसपेशावर के प्रवक्ता मोहम्मद उमर खा बताते हैं कि बीआरटी में 2,000 से ज्यादा कर्मचारी हैं जिनमें से लगभग 15 प्रतिशत महिलाएं हैं. वह कहते हैं कि इन बदलावों का ही असर है कि अब शहर की बसों में यात्रा करने वाली महिलाओं की संख्या 30 फीसदी तक पहुंच गई है, जो दो साल पहले मात्र दो प्रतिशत हुआ करती थी.
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पाकिस्तान की महिलाएं यातायात के लिए अक्सर सार्वजनिक वाहनों पर निर्भर करती हैं जबकि पुरुषों के पास कार, मोटरसाइकल आदि निजी साधन भी हैं. लाहौर स्थित संस्था सेंटर फॉर इकनॉमिक रिसर्च की प्रोजेक्ट मैनेजर लाला रूख कहती हैं कि इसका अर्थ है महिलाएं आने-जाने के मामले में बहुत ज्यादा बंधी हुई हैं.
लाहौर यूनिवर्सिटी ऑफ मैनेजमेंट साइंसेज में सईदा वहीद जेंडर इनिशिएटिव की हादिया माजिद कहती हैं कि इन बंधनों के कारण महिलाओं का पढ़ना, काम करना, घर से बाहर निकलना और लोगों से मिलना-जुलना तक सीमित हो जाता है. वह कहती हैं, "सुरक्षित, भरोसेमंद और सस्ता सार्वजनिक परिवहन लोगों को नौकरी की ज्यादा गहनता से खोज कर पाने लायक बनाता है और वे अपने कौशल के अनुरूप काम खोज पाते हैं.”
आखरी मील तक कोशिश जरूरी
पाकिस्तान में महिलाएं साइकल भी बहुत कम चलाती हैं और रिक्शा पर सवारी करना सुरक्षित नहीं समझा जाता. बसें या ठस्स भरी हुईं निजी वैन से आने-जाने से वे परहेज करती हैं. वर्ल्ड बैंक के आंकड़ों के मुताबिक ऐसे ही मुद्दों के चलते पाकिस्तान में कामकाजी महिलाओं की संख्या 2015 के 24 प्रतिशत से घटकर 2019 में 23 प्रतिशत पर आ गई थी.
बीआरटी की 30 पाकिस्तानी रुपये की टिकट वाली यायत्रा ने काफी सुविधा पहुंचाई है और गरीब घरों की महिलाएं भी यात्रा कर पा रही हैं. ट्रांसपेशावर की कर्मचारी उम्मे सलमा कहती हैं कि वह रिक्शा या मिनी बस से आने-जाने में रोजाना 280 रुपये खर्च करती थीं, जबकि बीआरटी ने उनका पैसा भी बचाया है और वक्त भी. वह कहती हैं, "रोज के आने जाने में 30 मिनट की बचत होने लगी है.”
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हालांकि कुछ जानकार मानते हैं कि अब भी सुधार की खासी गुंजाइश है. सेंटर फॉर इकनॉमिक रिसर्च की प्रोजेक्ट मैनेजर लाला रूख कहती हैं हैं कि परिवहन व्यवस्था की नीतियों में बदलाव करते वक्त अन्य कई बातों का ध्यान रखा जाना भी जरूरी है. वह बताती हैं, "बस स्टॉप से घर के पैदल रास्ते के वे आखरी 15 मिनट भी सुरक्षित बनाए जाने की जरूरत है ताकि महिलाएं पूरी तरह सुरक्षित हो सकें.” इसके लिए कार्यकर्ता पैदल यात्रियों के लिए सुविधाएं जैसे स्ट्रीट लाइट, सुनसान इलाकों में पुलिस की मौजूदगी आदि पर जोर देने की बात कहते हैं.
वीके/सीके (रॉयटर्स)