चीनी दादागीरी का नया शिकार बना उसका दोस्त फिलिपींस
२६ मार्च २०२१दक्षिण चीन सागर के मामले में चीन की दादागीरी दिन-ब-दिन बढ़ती ही जा रही है. पिछले कुछ महीनों में दक्षिण पूर्व एशिया के कई देश चीन के आक्रामक रवैये से त्रस्त हुए हैं जिनमें वियतनाम, इंडोनेशिया और मलेशिया शामिल है. लेकिन हद तो तब हो गई जब चीन के साथ दोस्ताना सबंधों के कट्टर समर्थक और फिलिपींस-अमेरिका के प्रगाढ़ संबंधों की पारंपरिक लीक से हटकर चलने वाले रोड्रिगो दुतैर्ते के फिलिपींस को भी चीन की आक्रामकता का स्वाद चखना पड़ा. हुआ यूं कि चीन के तथाकथित सैन्य मिलीशिया के 220 जहाज अकस्मात फिलिपींस के जूलियन फेलिप रीफ (उर्फ व्हिट्सन रीफ) में एक साथ बिना बताए आ धमके. यह इलाका जो दक्षिण चीन सागर के स्प्रैटली द्वीप समूह में पड़ता है, फिलीपींस के 200-नॉटिकल-मील एक्सक्लूसिव इकोनॉमिक जोन (ईईजेड) की सीमा के अंदर भी आता है.
लिहाजा फिलीपींस की सुरक्षा सेनाओं, खास तौर से नौसेना के लिए यह परेशानी का सबब बन गया. फिलीपींस के रक्षा मंत्री डेलफिन लोरेन्जाना ने इस बात पर चीन के खिलाफ अपना विरोध जताया तो मानो आरोपों प्रत्यारोपों की जैसे बाढ़ सी आ गयी. जहां फिलीपींस के रक्षा मंत्री ने चीनी जहाजों को वापस जाने की अपील करते हुए दावा किया कि चीनी जहाजों ने फिलीपींस के संप्रभु क्षेत्र पर अतिक्रमण किया है, तो वहीं फिलीपींस के अंदर भी सरकार के खिलाफ विरोध के स्वर मुखर हुए. मौके की नजाकत को समझते हुए अमेरिका ने जहां फिलीपींस का कूटनीतिक तौर पर जमकर साथ दिया और फिलीपींस के साथ सैन फ्रांसिस्को समझौते के तहत युद्ध जैसी जरूरत पड़ने पर सैन्य मदद का आश्वासन दिया तो वहीं वियतनाम जैसे देशों ने चीन को उसके क्षेत्रीय शांति और सदभाव के लिए दक्षिण चीन सागर में अंतरराष्ट्रीय कानूनों का पालन करने की कसमें याद दिलाईं.
मामले में हाथ होने से चीन का इंकार
चीन ने पहले तो आनाकानी की और इस अतिक्रमण में किसी भूमिका से इनकार कर दिया, लेकिन फिर बाद में ये बताया कि चीनी मछुआरों के लिए दक्षिण चीन सागर के इन क्षेत्रों में आ धमकना स्वाभाविक है क्योंकि वह पुश्तों से ऐसा करते आए हैं और चंद देशों के कानून बना लेने मात्र से उन पर अंकुश लगाना मुश्किल है. ध्यान रहे कि चीन 1982 के यूनाइटेड नेशंस कंवेशन ऑन लॉ आफ द सी पर हस्ताक्षर करने के बावजूद इसे अपनी नाइन-डैश लाइन पर वरीयता नहीं देता. इसके साथ ही चीन इस बात से भी मुकर गया कि फिलीपींस के ईईजेड में तैनात मछुआरों की नावें मिलीशिया के जहाज नहीं हैं.
आंतरिक राजनीति के दबाव में राष्ट्रपति दुतैर्ते ने जब चीन को वापस जाने की गुहार लगाई तब जाकर फिलीपींस की नौसेना की टुकड़ियों को जूलियन फेलिप रीफ और उसके आस पास के इलाकों में तैनात किया गया है. चीन की इस हरकत ने राष्ट्रपति दुतैर्ते और फिलीपींस की सेना को सशंकित तो कर ही दिया है क्योंकि इससे चीन के मंसूबों का पता साफ चलता है. फिलीपींस को डर है कि स्कारबोरो शोल की तरह जूलियन फेलिप रीफ पर भी अंततः चीन कब्जा कर लेगा. फिलीपींस के लिए इससे भी चिंताजनक बात यह है कि दुतैर्ते के शासन काल में अमेरिका के साथ फिलीपींस के संबंधों में दरार पैदा हुई है और अब उसके पास मदद के लिए कोई नहीं है.
अपने अक्खड़ स्वभाव और अमेरिका विरोधी वक्तव्यों के लिए जाने-जाने वाले दुतैर्ते के लिए अब अमेरिका से मदद की गुहार लगाना तो लगभग असंभव ही है. और फिलीपींस के पास चीन को रोकने के लिए पर्याप्त सैन्य क्षमता है नहीं. ऐसे में दुतैर्ते के पास बहुत रास्ते हैं नहीं. कानूनी तौर पर भी देखें तो फिलीपींस के पास बहुत विकल्प नहीं हैं. 2016 में दक्षिण चीन सागर मुद्दे पर चीन के खिलाफ इंटरनेशनल कोर्ट ऑफ जस्टिस में जीत हासिल करने के बाद भी फिलीपींस ने चीन से दोस्ती का हाथ बढ़ा लिया और कानूनी ढंग से मामले को सुलझाने पर ध्यान नहीं दिया. वैसे शायद फिलीपींस चाहता भी तो यह कर सकना मुश्किल ही होता.
दक्षिण पूर्व एशिया के देशों के पास क्या विकल्प
तो क्या दक्षिण पूर्व एशिया के देशों के पास कोई रास्ता नहीं है? इस सवाल का जवाब कई ढंग से दिया जा सकता है. पहला तो यही कि दक्षिण पूर्व एशिया का चीन को सबसे अच्छा जवाब होगा आसियान के दसों देशों की एकजुटता और उनका मिलकर चीन की दादागिरी से निबटने का निश्चय. लेकिन इस बात पर और बड़ा सवाल यह उभरता है कि बिल्ली के गले में घंटी बांधे कौन, और चीन के खिलाफ सबको लामबंद करने का जिम्मा कौन ले? भारत और जापान जैसे देश तो ऐसा करने से झिझकते रहे हैं तो दक्षिण पूर्व एशिया के देशों की क्या बिसात.
इस पर मुसीबत यह कि इन देशों की अर्थव्यवस्था का ज्यादातर हिस्सा चीन के साथ व्यापार की वजह से मुकम्मल है. चीन के साथ निवेश और व्यापार संबंध खराब होते ही इन देशों का खेल भी चौपट. यह निर्भरता किस कदर दक्षिण पूर्व एशिया के इन देशों की मजबूरी बन चुकी है इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि दक्षिण पूर्व एशिया के दसों देशों के संगठन आसियान का सबसे बड़ा आर्थिक सहयोगी और कोई नहीं चीन ही है. साफ है, ये देश चीन के साथ कोई बड़ा खतरा उठाने में समर्थ नहीं हैं. हां, अगर दूसरे क्षेत्रों की शक्तियां और अमेरिका खुद से ही आसियान की मदद करना चाहे तो यह देश उससे इनकार नहीं करेंगे. आसियान देशों के दबी जुबान इंडो-पैसिफिक व्यवस्था और उसके नियमों के समर्थन के पीछे यही कारण रहा है.
यह चीन की दादागीरी ही है जिसने भारत, जापान, अमेरिका, और आस्ट्रेलिया के मिनिलेटरल संगठन क्वाड को मूर्त रूप देने में मदद की है. यदि चीन दक्षिण चीन सागर में अपना रवैया जारी रखता है, तो इससे चीन के विरुद्ध आसियान और अन्य समान विचारधारा वाले पीड़ित देशों का साझा संगठन बनने में देर नहीं लगेगी. फिलहाल तो यही लगता है कि अपनी मर्जी से आए चीनी मिलीशिया के लोग अपनी मर्जी से ही जाएंगे और दक्षिण चीन सागर में चीनी दादागीरी और संसाधनों की खसोट का दमन चक्र यूं ही चलता रहेगा. फिलीपींस और दक्षिण पूर्व एशिया की सरकारें यह दुर्दशा झेलने को तब तक विवश हैं जब तक वह चीन के इस रवैये के खिलाफ पूरी तरह एकजुट नहीं हो जातीं. और फिलहाल ऐसा होना मुश्किल है.
(राहुल मिश्र मलाया विश्वविद्यालय के एशिया-यूरोप संस्थान में अंतरराष्ट्रीय राजनीति के वरिष्ठ प्राध्यापक हैं)