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समलैंगिक विवाह शहरी, एलिटिस्ट विचार: केंद्र सरकार

आमिर अंसारी
१७ अप्रैल २०२३

केंद्र सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में समलैंगिक विवाह को एक "शहरी, संभ्रांतवादी" विचार बताते हुए उसका विरोध किया है. मंगलवार से इस मामले की सुनवाई शुरू हो रही है.

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केंद्र सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में समलैंगिक विवाह का विरोध किया
केंद्र सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में समलैंगिक विवाह का विरोध कियातस्वीर: lev dolgachov/Zoonar/picture alliance

भारतीय सुप्रीम कोर्ट समलैंगिक विवाह को मान्यता देने के मामले में सुनवाई 18 अप्रैल को करेगी लेकिन इससे पहले केंद्र सरकार ने एक आवेदन कर इसका विरोध किया है.

सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ समलैंगिक जोड़े की शादी को मान्यता देने वाली याचिकाओं पर मंगलवार से सुनवाई शुरू करेगी. केंद्र ने भारत के मुख्य न्यायाधीश डी वाई चंद्रचूड़, जस्टिस एसके कौल, जस्टिस रवींद्र भट, जस्टिस हिमा कोहली और जस्टिस पीएस नरसिम्हा की बेंच के सामने सुनवाई से पहले एक नया आवेदन दायर किया है.

केंद्र सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में कहा है कि समलैंगिक विवाह की मांग सामाजिक स्वीकृति के उद्देश्य से केवल "शहरी संभ्रांतवादी" विचार है, और इसे मान्यता देने का मतलब कानून की एक पूरी शाखा को दोबारा लिखना होगा.

केंद्र का ऐतराज

केंद्र ने कहा है कि समलैंगिक विवाह को कानूनी मान्यता देने का मुद्दा सुप्रीम कोर्ट के अधिकार क्षेत्र में नहीं आता है. केंद्र सरकार ने कोर्ट से कहा है कि समलैंगिक शादी को मान्यता देने का अनुरोध करने वाली याचिकाएं "शहरी संभ्रांतवादी" विचारों को प्रतिबिंबित करती हैं. केंद्र ने कहा कि विवाह को मान्यता देना अनिवार्य रूप से विधायी कार्य है और कोर्ट को इस पर फैसला करने बचना चाहिए.

केंद्र ने याचिकाओं के विचारणीय होने पर सवाल उठाते हुए कहा कि इस कोर्ट के सामने जो याचिकाएं आईं हैं, वह सामाजिक स्वीकृति के उद्देश्य से मात्र शहरी संभ्रांतवादी विचार है.

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भारत सरकार का तर्क 

केंद्र का कहना है कि एक संस्था के रूप में शादी को केवल विधायिका द्वारा मान्यता दी जा सकती है. समलैंगिक शादी को कानूनी मान्यता देने से पहले विधायिका को शहरी, ग्रामीण और अर्ध ग्रामीण सभी विचारों पर विचार करना होगा.

इस आवेदन में केंद्र ने तर्क देते हुए कहा है कि "समान लिंग विवाह के अधिकार को मान्यता देने में कोर्ट द्वारा फैसले का मतलब कानून की एक पूरी शाखा का एक आभासी न्यायिक पुनर्लेखन करने जैसा होगा. कोर्ट को इस तरह के सर्वव्यापी आदेश पारित करने से बचना चाहिए. क्योंकि उसके (कानून के लिए) उचित विधायिका है."

सरकार का यह भी कहना है कि सिर्फ शहरी अभिजात्य विचारों को दर्शाने वाली याचिकाओं की तुलना उपयुक्त विधायिका से नहीं की जा सकती है. केंद्र ने कहा विधायिका व्यापक परिद्दश्य के विचारों और आवाजों को दर्शाती है और पूरे देश में फैली हुई है.

मुस्लिम संगठन भी कर रहे हैं विरोध

बीते दिनों तेलंगाना मरकजी शिया उलेमा काउंसिल ने समलैंगिकता और समलैंगिक विवाह का विरोध करते हुए एक याचिका सुप्रीम कोर्ट में दायर की थी. काउंसिल ने कहा था कि इस्लाम में समलैंगिकता और सेम सेक्स मैरिज हराम है और इस तरह के विवाह को मान्यता नहीं दी जा सकती है. उसका कहना है कि इस्लाम में सिर्फ महिलाओं और पुरुष के बीच संबंध वैध है.

इससे पहले जमीयत उलेमा ए हिंद ने भी सुप्रीम कोर्ट का रुख किया था और उसने मामले में पक्षकार बनने की मांग की थी. हस्तक्षेप याचिका में उसने कहा था कि विपरीत लोगों का विवाह भारतीय कानूनी शासन के लिए जरूरी है.  

सीजेआई डीवाई चंद्रचूड़, जस्टिस पीएस नरसिम्हा और जस्टिस जेबी पारदीवाला की बेंच ने 13 फरवरी को संबधित पक्षों की दलीलें सुनने के बाद मामले को पांच सदस्यीय संविधान पीठ के पास विचार के लिए भेजने का फैसला सुनाया था.