सारा तेल अमीर देश खरीद लेंगे, तो गरीब देश कहां जाएंगे?
२१ मार्च २०२२यूरोप की सबसे ताकतवर अर्थव्यवस्था वाले देश जर्मनी के वित्त मंत्री रॉबर्ट हाबेक कतर और संयुक्त अरब अमीरात के दौरे पर गए. कतर में उनकी मुलाकात यहां अमीर कहे जाने वाले देश के कमांडर या राजकुमार तमीम बिन हमद अल थानी से हुई. मुलाकात के बाद दोनों देशों ने बयान जारी किया कि उन्होंने लंबे समय तक ऊर्जा आपूर्ति को लेकर एक समझौता किया है. लेकिन, खाड़ी देशों का रुख करने वाले हाबेक इकलौते नहीं हैं.
पिछले सप्ताह ब्रिटेन के प्रधानमंत्री बोरिस जॉनसन संयुक्त अरब अमीरात और सऊदी अरब के दौरे पर गए. वहां उन्होंने सऊदी को कुछ वक्त के लिए वैश्विक बाजार में तेल की आपूर्ति बढ़ाने के लिए राजी करने की कोशिश की. वहीं इटली के विदेशमंत्री भी पहले अल्जीरिया और फिर कतर के दौरे पर गए, जहां उन्होंने ऊर्जा आपूर्ति संबंधी बातचीत की. इटली की निगाह अजरबैजान, ट्यूनीशिया और लीबिया पर भी है. सवाल यह है कि यूरोप और पश्चिम के तमाम अमीर देश खाड़ी देशों का रुख क्यों कर रहे हैं.
क्या हैं समस्याएं और मकसद?
रूस के यूक्रेन पर हमला करने के बाद से कई वैश्विक समीकरण बदल गए हैं. रूस से लंबे समय से खूब तेल और गैस खरीदने वाले तमाम यूरोपीय देश अब रूस से निर्भरता घटाना चाहते हैं. अब इसके मूल में 'लोकतांत्रिक मूल्यों की रक्षा' हो या 'रूस को दंडित करने की मंशा', लेकिन रूसी तेल और गैस पर यूरोप की निर्भरता आप यूं समझ सकते हैं कि जर्मनी अपनी कुल जरूरत की आधे से ज्यादा नेचुरल गैस, कुल जरूरत का आधा कोयला और कुल जरूरत का एक-तिहाई तेल रूस से आयात करता है.
रूस-यूक्रेन युद्ध शुरू होने के बाद अमेरिका ने रूसी तेल खरीदने पर पाबंदी लगा दी. यूरोपीय देशों ने भी तमाम पाबंदियों का एलान किया. फिर भी युद्ध शुरू होने के बाद से यूरोपीय संघ के देश तेल, नेचुरल गैस और कोयले के लिए रूस को 13.3 अरब यूरो ट्रांसफर कर चुके हैं. एक स्टडी के मुताबिक अभी यूरोप से सिर्फ तेल के लिए ही रूस को रोजाना 21 अरब रुपये से ज्यादा जा रहे हैं.
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अब ऊर्जा स्रोतों के बिना तो काम चलने से रहा. ऐसे में यूरोपीय देश नए ठिकानों की तलाश में हैं, जहां से वे ऊर्जा संसाधन खरीद सकें और रूस पर से अपनी निर्भरता घटा सकें. यहां सवाल यह उठता है कि जब पाबंदियों की वजह से रूसी तेल और गैस बिकने में दिक्कत आएगी और अमीर देश बाकी जगहों से आने वाला तेल और गैस ऊंची बोली पर भी खरीद लेंगे, तो इस संघर्ष में आर्थिक रूप से कमजोर देश कहां जाएंगे? जानकार इसके जवाब में दो पहलू बताते हैं.
कमजोर देशों पर क्या असर पड़ सकता है
डॉयचे वेले में कारोबारी मामलों के रिपोर्टर आशुतोष पांडेय गरीब देशों पर कोई खास फर्क पड़ने से इनकार करते हैं. वह बताते हैं, "याद कीजिए बीते कुछ महीनों से जब अमेरिका समेत दुनिया के कई देश तेल उत्पादक देशों के संगठन ओपेक से तेल आपूर्ति बढ़ाने की मांग कर रहे थे, तब ओपेक कह रहा था कि अभी मांग इतनी नहीं है कि आपूर्ति बढ़ाई जाए. लेकिन, अब रूस-यूक्रेन संकट के मद्देनजर उसने उत्पादन कुछ बढ़ा दिया है. तो मसला यह है कि अगर ओपेक या तेल उत्पादन करनेवाले देश उत्पादन बढ़ाते हैं, तो वे ऐसा सिर्फ तेल बेचने के लिए ही नहीं, बल्कि बाजार में अपनी हिस्सेदारी बढ़ाने के लिए करेंगे."
वह कहते हैं, "यानी अगर प्रतिबंधों की वजह से कुछ देश रूस का तेल और गैस नहीं खरीद पाएंगे, वे किसी और देश से खरीदेंगे. तो जब तेल का उत्पादन बढ़ेगा, तो उससे कमजोर देशों को भी फायदा हो सकता है, क्योंकि उनके पास ऊर्जा संसाधन खरीदने विकल्प ज्यादा होंगे."
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आशुतोष एक और बात पर जोर देते हैं, "जर्मनी और ज्यादातर यूरोपीय देश छोटी नहीं, बल्कि लंबी अवधि की योजना बना रहे हैं. उनके सामने चुनौती ऊर्जा संसाधनों का तुरंत इंतजाम करने की नहीं, बल्कि रूस से निर्भरता घटाने की है. ऐसे में जब तक यूरोपीय देश रूस से तेल और गैस खरीद रहे हैं, तब तक आर्थिक रूप से कमजोर देशों को चिंता करने की कोई खास जरूरत नहीं है. जब तक यूरोप रूस का कोई वैकल्पिक इंतजाम नहीं कर लेता, तब तक बाकी देशों पर भी रूस से तेल-गैस न खरीदने का उतना दबाव नहीं पड़ेगा."
पर क्या हो सकती हैं दिक्कतें?
हालांकि, ऐसा भी नहीं है कि कमजोर देशों को एकदम ही दिक्कत नहीं होगी. अभी तेल की कीमतें बीते 14 वर्षों में सबसे ज्यादा हैं, जो अपने आप में एक समस्या है. सऊदी और ओपेक के तेल उत्पादन बढ़ाने से ये कीमतें घट सकती हैं, लेकिन ऐसा होने के कोई आसार अभी दिख नहीं रहे हैं.
व्यापारिक मामलों के जानकार पत्रकार शिशिर सिन्हा अपनी बात की शुरुआत यहां से करते हैं कि रूसी तेल खरीदने पर अभी कोई पाबंदी नहीं है और वह सस्ते में भी उपलब्ध है. यहां इस बात पर भी गौर किया जाना चाहिए कि क्वॉड में भारत के साझेदारों तक ने यह कह दिया है कि उसके रूस से ऊर्जा संसाधन खरीदने से कोई नाराज नहीं है. ऐसे में यह मामला कूटनीतिक नहीं, बल्कि व्यापारिक है. कमजोर देशों की समस्याएं भी कारोबारी हो सकती हैं.
शिशिर बताते हैं, "विकासशील देशों और गरीब देशों की बड़ी परेशानी विदेशी मुद्रा भंडार की है. इसका सबसे बड़ा उदाहरण श्रीलंका है. इसके जैसे कई देशों में पर्यटन विदेशी मुद्रा में कमाई का एक बड़ा जरिया रहा है, लेकिन कोरोना की वजह से बीते दो वर्षों से पर्यटन ठप पड़ा है. तो इन देशों के लिए महंगा तेल खरीदने और फिर विदेशी मुद्रा में भुगतान करना अपने आप में संकट है. अब लड़ाई के बीच तेल के भाव में भारी उतार-चढ़ाव देखने को मिल रहा है, तो इन देशों को परेशानी होना स्वाभाविक है."
पर क्या यूरोप की रूस पर से निर्भरता कम हो पाएगी?
यूरोपीय संघ का लक्ष्य है कि 2022 खत्म होते-होते रूसी गैस पर निर्भरता दो-तिहाई कम कर ली जाए और 2030 से पहले रूसी जीवाश्म ईंधन से मुक्ति पा ली जाए. किंतु इस लक्ष्य को पूरा करने के सामने कई ढांचागत चुनौतियां भी हैं. जैसे जर्मनी के वित्त मंत्री ने कतर दौरे के अंत में कहा कि उनके साथ जो कंपनियां कतर गई थीं, अब सौदा करना उनके ऊपर है.
अब कतर दुनिया में लिक्विफाइड नेचुरल गैस यानी LNG के तीन सबसे बड़े निर्यातक देशों में से है. जर्मनी जहाजों के जरिए LNG लाना चाहता है, लेकिन दिक्कत ये है कि लंबे समय तक पाइपलाइन गैस पर निर्भर रहने की वजह से जर्मनी के पास जहाजों के लिए कोई टर्मिनल नहीं है. दो नए LNG टर्मिनल बनाने को मंजूरी तो मिली है, लेकिन ये 2026 से पहले उपयोग में नहीं आ पाएंगे.
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कतर के कुछ अधिकारी यह भी कह चुके हैं कि कतर की ज्यादातर गैस, एशियाई देशों के साथ लंबी अवधि के समझौतों के तहत उनके पास जाती है. ऐसे में शॉर्ट नोटिस पर सिर्फ 10 से 15 फीसदी गैस ही किसी दूसरे ग्राहक को दी जा सकती है. वहीं संयुक्त अरब अमीरात ग्रीन हाइड्रोजन का बड़ा केंद्र है. यह जर्मनी को स्वच्छ ऊर्जा पर शिफ्ट होने के अपने दीर्घकालिक लक्ष्य हासिल करने में मदद कर सकता है.
तो मसला यही है कि लक्ष्य दीर्घकालिक हैं. इन लक्ष्यों के हकीकत में बदलने में भी वक्त लगेगा और इस बदलाव के नतीजे सामने आने में भी वक्त लगेगा. वैसे भी तेल और गैस जैसे ऊर्जा संसाधनों का बाजार मांग और आपूर्ति का बाजार है. जिस देश की जरूरत जहां से पूरी हो रही होगी, वह अपनी जरूरत पूरी करेगा. पाबंदियों के दौर का ईरान और इससे कारोबारी रिश्ते रखने वाले देश इस बात के सबसे सटीक उदाहरण हैं.