हैलोवीन का पूरा इतिहास: कहां से आया, कैसे बदला, कहां पहुंचा
३१ अक्टूबर २०२३पूरी दुनिया में और खासकर ईसाई बहुल देशों में 31 अक्टूबर को शाम होते-होते सड़कें गुलजार हो जाती हैं. इसकी वजह है दुनियाभर में मनाया जाने वाला हैलोवीन, जिसे 'ऑल हैलोज ईव' भी कहते हैं. इस दिन लोग डरावने या हंसाने वाले कपड़े पहनते हैं. बच्चे सज-धजकर सड़कों पर उछल-कूद करते हैं और लोगों के घर जाकर घंटिया बजाकर वह मशहूर मुहावरा दोहराते हैं: ट्रिक ऑर ट्रीट. जो लोग बड़े हो गए हैं और घर-घर जाकर टॉफियां नहीं मांग सकते, उनके लिए 31 अक्टूबर हैलोवीन पार्टी करने का दिन होता है.
वैसे हैलोवीन आजकल जिस तरह मनाया जाता है, इसका यह स्वरूप अमेरिकी है. वहीं यूरोप के बहुत सारे लोग मानते हैं कि हैलोवीन वैलेन्टाइन डे की तरह ही बाजार का बनाया हुआ त्योहार है. जैसे कार्ड कंपनी हॉलमार्क ने वैलेन्टाइन डे को खूब मशहूर किया है और इसे अपने पार्टनर के लिए कुछ न कुछ खरीदने का दिन बना दिया है. लोग 14 फरवरी को फूल खरीदते हैं, गहने खरीदते हैं या अपने पार्टनर को देने के लिए कोई न कोई तोहफा खरीदते हैं. उसी तरह हैलोवीन इंडस्ट्री भी है, जिसमें हंसोड़ चेहरे वाले प्लास्टिक के कद्दू और अजीबोगरीब पोशाकें पूरे साल बनती और बिकती रहती हैं. वह भी पूरी दुनिया में.
इवेंट नहीं, रिवाज है
लेकिन बाजार की इस लुका-छिपी के पीछे एक रवायत भी है, जो सदियों से चली आ रही है. हां, इतना जरूर है कि यह प्रथा केल्टिक देशों में शुरू नहीं हुई थी, जैसा कि बहुत सारे लोग मानते हैं. केल्टिक देशों में मूर्तिपूजा करने वाले लोग सॉविन मनाते थे. यह ईसाइयों के थैंक्सगिविंग जैसा त्योहार था, जो सर्दियां आने की मुनादी करता था. यह त्योहार भी 31 अक्टूबर की शाम को शुरू होता था. इस बीच चर्च ने 1 नवंबर को ऑल सेंट्स डे मनाने की शुरुआत की. मध्य काल में यूरोप की संस्कृति पर चर्च का बहुत ज्यादा प्रभाव था.
तो हैलोवीन शब्द 'ऑल हैलोज ईव' से आया है. यानी ऑल सेंट्स डे की पिछली शाम, जब मृतकों को याद किया जाता है और उनके लिए प्रार्थना की जाती है. ईसाइयत के मुताबिक ये आत्माएं 'लास्ट जजमेंट' यानी अपने लिए आखिरी फैसले का इंतजार कर रही होती हैं. ईसाई धर्म की शुरुआत में बहुत सारे लोग मानते थे कि लास्ट जजमेंट का दिन जल्द ही आने वाला है, लेकिन ऐसा हुआ नहीं.
जर्मनी के बॉन शहर में रहने वाले सांस्कृतिक मानवविज्ञानी डागमार हेनेल बताते हैं, "जब जजमेंट डे नहीं आया, तो लोग खुद से सवाल करने लगे कि फिर आत्माओं का क्या. अब वे क्या कर रही होंगी?" इन्हीं सवालों से पर्गेटरी यानी 'यातना की जगह' या 'शुद्धि की जगह' का जन्म हुआ. पर्गेटरी यानी मौत और अनंत के बीच का वह पड़ाव, जहां लोग अपने पाप धोते हैं और अपनी आत्मा शुद्ध करते हैं. तभी से जिंदा लोगों और आत्माओं के बीच का संबंध चला आ रहा है.
सैकड़ों साल पहले कैसे मनाया जाता था
डीडब्ल्यू से बातचीत में हेनेल कहते हैं, "आपको सभी धर्मों में यह बात मिल जाएगी कि हम अपना परलोक सुधार सकते हैं और परलोक से हमारा यह जीवन सुधर सकता है. इसीलिए हम पूजा करते हैं, माला जपते हैं, अच्छे काम करते हैं और दान देते हैं. तो जाहिर तौर पर ऐसा माना जाता था कि इन कामों का पर्गेटरी में फंसी गरीब आत्माओं पर सीधा असर होता है."
तो मध्यकाल में 'ऑल सेंट्स' की पूर्व-संध्या पर लोग घर-घर जाकर गरीबों के लिए दान मांगते थे. जर्मनी के कुछ ग्रामीण इलाकों में तो यह रवायत आज तक कायम है. इस दिन जवान और अविवाहित लोग गांव-गांव जाते हैं, प्रार्थनाएं करते हैं, गाते हैं, लोगों को दुआएं देते हैं और पैसे इकट्ठे करते हैं. दान इकट्ठा करने की यही रवायत अमेरिका पहुंचकर बच्चों का एक खेल बन गई, जिसे नाम मिला 'ट्रिक ऑर ट्रीटिंग'.
फिर यूरोप से गायब हो गई रवायत
18वीं और 19वीं सदी में जब धर्म पर ज्ञान और बोध का असर बढ़ा, तब चर्च को बहुत सारे पुराने रीति-रिवाजों पर संदेह होने लगा. कइयों पर तो चर्च ने प्रतिबंध भी लगा दिया. हेनेल बताते हैं, "उसी दौरान औद्योगीकरण की वजह से आबादी की घनी बसाहट होने लगी. ऐसे में लोगों को गरीबों के लिए ज्यादा पैसे इकट्ठे करने की जरूरत ही नहीं रह गई."
फिर 19वीं सदी में ही जब जर्मनी के महान नेता ऑटो फान बिस्मार्क का सामाजिक कानून लागू किया गया, तो दान देने या इकट्ठा करने की जरूरत ही खत्म हो गई. इस कानून की वजह से देश के हर गरीब की जिम्मेदारी सरकार के कंधों पर आ गई और शायद इसी वजह से यह प्रथा मुरझाती चली गई.
आयरलैंड से अमेरिका पहुंचा हैलोवीन
पर ऐसा नहीं था कि यह प्रथा हर जगह सिमट रही थी. आयरलैंड के प्रवासी जब 19वीं सदी में अमेरिका गए, तो हैलोवीन भी अपने साथ ले गए. हालांकि, बॉन यूनिवर्सिटी में मानव विज्ञानी लार्स विंटरबर्ग बताते हैं कि तब अमेरिका में भी हैलोवीन सिर्फ बड़े शहरों और ऐसे इलाकों में मनाया जाता था, जहां आयरलैंड के लोग ज्यादा संख्या में रहते थे.
डीडब्ल्यू से बातचीत में विंटरबर्ग कहते हैं, "इंटीग्रेशन यानी एककरण बहुत कम ही एकतरफा होता है. आप्रवासियों की संस्कृति उनके नए देश की संस्कृति में हमेशा घुल-मिल जाती है." तो इस तरह हैलोवीन ने अमेरिकी समाज में जगह बना ली. पहले तो इसे बस बच्चों की छुट्टी की तरह देखा जाता था, लेकिन बाद में जब बड़े भी कॉस्ट्यूम पार्टी और सजावट के साथ इसमें हिस्सा लेने लगे, तो यह समाज में और गहरे तक शामिल हो गया.
दूसरे विश्व युद्ध के दौरान और इसके बाद हैलोवीन का जश्न एक बार फिर यूरोप लौटा. जैसे जब अमेरिकी सैनिक जर्मनी में तैनात थे, तो वे हैलोवीन मनाते थे. हालांकि, शुरुआत में जर्मनी के लोग इसके प्रति बहुत उत्साहित नहीं थे. यूरोप के समाज में हैलोवीन को हाथों-हाथ तब लिया गया, जब फिल्मों और टीवी सीरीज के जरिए यह यूरोपीय संस्कृति का हिस्सा बनने लगा.
1978 में आई जॉन कारपेंटर की डरावनी फिल्म 'हैलोवीन' ने इस जश्न के प्रति लोगों का उत्साह जगा दिया. इस फिल्म में हैलोवीन से जुड़ी चीजों के साथ-साथ जॉम्बी, शैतानों, चुड़ैलों, वैंपायर और भूतों के साथ-साथ बच्चों के खेलों का भी मिश्रण था. वैसे विडंबना और हंसाने वाली बात यह है कि अब आयरलैंड में भी हैलोवीन का जश्न अमेरिकी तरीके से ही मनाया जाता है.
जर्मनी में सिनेमा की वजह से बढ़ा हैलोवीन
जर्मनी के हैलोवीन के रंग में सराबोर हुए अरसा हो चुका है. हैलोवीन के आसपास दुकानों की खिड़कियों में असली और प्लास्टिक के कद्दू रखे जाते हैं. बहुत सारे बार 31 अक्टूबर और इसके आगे-पीछे के दिनों में हैलोवीन थीम वाली पार्टियां आयोजित करते हैं. हालांकि, हैलोवीन के सबसे बड़े फैन तो युवा और बच्चे ही हैं.
1990 के दशक में जब जर्मनी में हैलोवीन का प्रचार जोर पकड़ने लगा, तो ऐसा लगा कि जर्मनी में पहले से अच्छी तरह स्थापित मेला उद्योग हैलोवीन के जश्न को जर्मन लोगों पर थोपने की कोशिश कर रहा है.
वर्त्सबर्ग यूनिवर्सिटी में नृवंशविज्ञानी योर्ग फुक्स याद करते हैं कि 1991 में मेलों में होने वाली मशहूर 'रोज मंडे परेड' खाड़ी युद्ध की वजह से रद्द हो गई थी. परेड रद्द होना मेला उद्योग के लिए बहुत बड़ा झटका था. इस फैसले से उनका लाखों का कारोबार ठप हो गया था.
फुक्स यह थ्योरी देते हैं कि चूंकि जर्मनी के मेलों में लोग अनोखी पोशाकें पहनकर आते हैं, तो मेलों के आयोजकों को उसी साल एक और मेला आयोजित करने का मौका दिखा. फुक्स मानते हैं कि इसी वजह से हैलोवीन की लोकप्रियता और ज्यादा बढ़ गई.
जर्मनी में हैलोवीन मनाने के लिए कुछ बहुत बढ़िया जगहें हैं. बोखुम की रुअर यूनिवर्सिटी तो बिल्कुल मुफीद जगह है. कहा जाता है कि यहां एक छात्र की आत्मा रहती है, जो सीढ़ियों पर लोगों को डराती है. जब-तब कोई न कोई उसे देखने का दावा करता है, लेकिन बताते हैं कि अगले ही पल आत्मा हवा में गायब हो जाती है.
हालांकि, जर्मनी के बहुत सारे पुराने लोग अपनी पोशाकों सिर्फ मेलों के लिए बचाकर रखते हैं. वैसे भी जर्मनी में मेलों और त्योहारों की तैयारियों का दौर हैलोवीन के डेढ़ हफ्ते बाद ही 11 नवंबर से शुरू हो जाता है. फिर यह अगले साल फरवरी में ईसाइयत की ही एक रीति 'ऐश वेडनसडे' तक चलता है.