आज के दौर में नोबेल पुरस्कार मिलने का कोई तुक है भी?
७ अक्टूबर २०२४हर साल अक्टूबर के महीने में कुछ गिने-चुने वैज्ञानिकों की सुबह एक फोन कॉल के साथ होती है और पता चलता है कि उन्हें फिजियोलॉजी, मेडिसिन, फिजिक्स या केमिस्ट्री में नोबेल पुरस्कार मिला है. उनींदी आंखों के साथ वे पजामे के ऊपर शर्ट पहनते हैं और स्टॉकहोम से आई वीडियो कॉल से जुड़ते हैं और चंद मिनटों में दुनिया की मीडिया को अपने जीवनभर के शोध और काम बताने की कोशिश करते हैं.
क्वांटम मेकैनिक्स के वैज्ञानिकों को 2022 का नोबेल पुरस्कार
इसके बाद पत्रकार गंभीरता से समझने की कोशिश करते हैं कि 'क्वांटम डॉट' क्या होते हैं या फिर 'इनटेंगल्ड फोटॉन' क्या होते हैं. समझने के बाद वे अपनी रिपोर्ट बनाते हैं और अगले साल तक के लिए राहत की सांस लेते हैं. अगले कुछ हफ्तों तक हर कोई इसे भूल चुका होता है और जीवन चक्र में कुछ नया सामने आ जाता है.
ईमानदारी से पूछा जाए तो, नोबेल पुरस्कारों की चिंता किसे है? क्या यह पुरस्कार, जो पहली बार साल 1901 में बड़े ही शानदार आयोजन में दिए गए थे, क्या उनकी प्रासंगिकता अभी भी है? नोबेल पुरस्कार वैज्ञानिक आविष्कारों को लोकप्रिय बनाने में मदद करते हैं. लेकिन क्या ये एक झूठी धारणा भी बनाते हैं कि आविष्कार हुआ कैसे? क्या ये अमेरिका, यूरोप और पुरुषों को लेकर काफी पक्षपाती हैं?
नोबेल पुरस्कार के पीछे का नेक विचार
डायनामाइट के आविष्कार के बाद वैज्ञानिक अल्फ्रेड नोबेल को जो अपराध बोध महसूस हुआ, उससे मुक्ति पाने के लिए उन्होंने अपने वसीयतनामे में एक इच्छा जाहिर की जो नोबेल पुरस्कार की शुरुआत का आधार बनी. नोबेल का लक्ष्य था कि विज्ञान के क्षेत्र में उत्कृष्ट काम करने वाले ऐसे लोगों को पुरस्कृत किया जाए, जिन्होंने बीते वर्ष के दौरान मानव जाति के लिए कोई बड़ा लाभकारी आविष्कार किया हो.
नोबेल पुरस्कार वैज्ञानिक उन्नति के लिए मील के पत्थर हो सकते हैं. कोविड-19 के संक्रमण में रैपिड वैक्सीन के विकास से लोगों की जान बचाने, ऊर्जा बचत करने वाली एलईडी लाइट और 'जीन एडिटिंग टेक्नोलॉजी' से कई लाइलाज बीमारियों को ठीक करने का श्रेय इसे जा सकता है.
भारत के नई दिल्ली में स्थित फिजिशियन और पब्लिक हेल्थ के प्रोफेसर राजीब दासगुप्ता कहते हैं, "इस बात में कोई शंका नहीं है कि यह विज्ञान के माउंट एवरेस्ट हैं. नोबेल प्राइज कई वैज्ञानिक आविष्कारों के शिखर को दिखाते हैं और उससे एक भावनात्मक जुड़ाव भी होता है." चाहे कुछ भी हो, लेकिन ये पुरस्कार हमें याद दिलाते हैं कि हम भाग्यशाली हैं कि हम डीएनए, टीकाकरण, बिगबैंग और सब-एटॉमिक परमाणु के सिद्धांतों के बाद भी नई वैज्ञानिक प्रगति के साथ इस युग में जी रहे हैं.
क्या नोबेल पुरस्कार सच में विज्ञान के लिए प्रेरित करते हैं?
मास मीडिया के माध्यम से सामने रखे जाने पर नोबेल पुरस्कार बेशक लोगों में दिलचस्पी जगाकर उन्हें आकर्षित करने का मददगार जरिया हैं. नोबेल पुरस्कार को मीडिया किस हद तक कवर करते हैं, ये अलग-अलग देशों पर निर्भर करता है. दासगुप्ता कहते हैं कि भारतीय मीडिया खबर की कवरेज के साथ इस पुरस्कार की व्यापक जानकारी रखता है.
राजीब दासगुप्ता ने विज्ञान, प्रौद्योगिकी, इंजीनियरिंग और गणित (एसटीईएम) का जिक्र करते हुए डीडब्ल्यू को बताया, "भारत में एसटीईएम विषयों के प्रति शैक्षणिक झुकाव मध्यम वर्ग के बीच विशेष रूप से रुचि पैदा करता है." भारतीय स्कूलों के पाठ्यक्रम में दुनियाभर की तरह छात्रों की विज्ञान में रुचि जगाने के लिए नोबेल पुरस्कारों के बारे में पढ़ाया जाता है.
यूके के न्यूबरी में 11 से 18 वर्ष के बच्चों के एक हाईस्कूल में जीव विज्ञान की शिक्षिका लिली ग्रीन ने कहा कि उन्होंने अपनी विज्ञान कक्षाओं में नोबेल पुरस्कारों के इतिहास के बारे में पढ़ाया, लेकिन हर अक्टूबर में होने वाली पुरस्कार की घोषणाओं के बारे में जानने की कोशिश नहीं की.
ग्रीन ने कहा, "हम इनका उपयोग विज्ञान के आधारभूत सिद्धांतों को सिखाने के लिए अधिक करते हैं. सबसे अच्छी खोजें वो हैं, जो बच्चों की कल्पना को किसी कहानी या स्कैम के साथ जोड़ती हैं. जैसे कि (बैरी मार्शल) जिन्होंने खुद को बैक्टीरिया से इसलिए संक्रमित कर लिया ताकि वे यह दिखा सकें कि जीवाणु कैसे अल्सर का कारण बनते हैं."
हालांकि, ग्रीन को संदेह है कि नोबेल पुरस्कारों ने विश्वविद्यालय में विद्यार्थियों को विज्ञान पढ़ने के लिए सच में प्रेरित किया या नहीं. उन्होंने डीडब्ल्यू को बताया, "वे सामान्य तौर पर विज्ञान में रुचि रखते हैं, बजाय इसके कि वे नोबेल पुरस्कार जीतना चाहते हों."
जीनियस वैज्ञानिकों के मिथक
नोबेल पुरस्कारों के शुरुआती वर्षों में अल्बर्ट आइंस्टाइन या रुदर फोर्ड जैसे ज्यादातर पुरुष वैज्ञानिकों को ये पुरस्कार दिए जाते थे. मैरी क्यूरी का लिंग- महिला और पुरुष वैज्ञानिकों के अनुपात में- पहले और अब भी एक अपवाद है. क्यूरी को दो नोबेल पुरस्कार मिले थे, तो वह इस मामले में भी अपवाद हैं.
इस पुरस्कार ने प्रतिभाशाली वैज्ञानिकों के विचार को विकसित करने में मदद की. ऐसे वैज्ञानिक, जिन्होंने महज अपनी प्रतिभा से विज्ञान को अलग शिखर तक पहुंचाया. मगर असल में वैज्ञानिक प्रगति समसामयिक शोध के मामले में एक अलग तरह से आगे बढ़ती है. वैज्ञानिक आविष्कार दुनियाभर के अलग-अलग क्षेत्रों में सैकड़ों शोधकर्ताओं के सहयोग से जन्म लेते हैं. विज्ञान बहु-विषयक और विविधता से भरा समुदाय है.
अब नोबेल पुरस्कार आमतौर पर वैज्ञानिक समूहों के बीच बंटते हैं, लेकिन हर नोबेल पुरस्कार विजेता के पीछे हजारों अन्य वैज्ञानिक, पीएचडी छात्र और टेक्नीशियन भी उस शोध का हिस्सा होते हैं. हालांकि, उनको कभी इस बात का श्रेय नहीं मिलता, खासतौर पर आम जनमानस के बीच.
ग्रीन इस बात पर सहमति जताती हैं कि नोबेल पुरस्कारों में एक वैज्ञानिक के काम को बढ़-चढ़ाकर दिखाया जाता है. हालांकि, वह इस बात को भी महसूस करती हैं कि एकदम अकेले जीनियस वैज्ञानिक की अवधारणा कम हो रही है. उन्होंने कहा, "हम अधिक-से-अधिक सिखा रहे हैं कि विज्ञान सहयोगात्मक प्रयास है. यह बच्चों की यह देखने में मदद करता है कि वैज्ञानिक खोजों में कितना काम किया जाता है."
नोबेल पुरस्कारों में विविधता की कमी
नोबेल पुरस्कारों की सबसे बड़ी आलोचना उनमें विविधता की कमी और पश्चिमी वैज्ञानिक संस्थानों के प्रति अधिक झुकाव है. विज्ञान के क्षेत्र में जितने नोबेल पुरस्कार विजेता हुए हैं, उनमें महिलाएं 15 फीसदी से भी कम हैं.
इसके अलावा यूरोप और अमेरिका के बाहर के देशों से बहुत ही कम लोगों ने नोबेल पुरस्कार जीता है. नोबेल पुरस्कार विजेताओं की संख्या की रैंकिंग में 663 विजेताओं के साथ अमेरिका, ब्रिटेन और जर्मनी हावी हैं. चीन में आठ और भारत में 12 नोबेल पुरस्कार विजेता हैं.
राजीब दासगुप्ता कहते हैं, "अधिकांश विजेता बहुत योग्य हैं. हालांकि, वे राजनीति से परे नहीं हैं. भारत सहित कई देशों में संस्थानों को नजरअंदाज किया जा रहा है. और, निश्चित तौर पर नोबेल पुरस्कार समिति उतनी समावेशी नहीं है, जितना उन्हें होना चाहिए."
नोबेल पुरस्कार उन संस्थानों को अधिक फंडिंग देकर असमानता को बढ़ा सकते हैं, जो पहले ही पुरस्कार जीतकर मान्यता प्राप्त कर चुके हैं. दासगुप्ता कहते हैं कि असलियत यही है कि भारत और अन्य जगहों के संस्थानों को अमेरिका या यूरोप की बराबरी करने के लिए मजबूत होना पड़ेगा, तभी ये देश अपने यहां पैदा हुई प्रतिभाओं को अपने पास रख पाएंगे.